।। श्री गणेशाय नमः ।।
श्री दादा दशक
।। भाग 9 वा ।।
केशव विनय
केशव प्रेरित जो लखे, केशव के गुण कर्म।
विनय रूप से सो कहे, शरण हुए हित मर्म ।। 1 ।।
नित्य पढ़े जो ध्यान दे, प्रेम सहित छै मास ।
करै कृपा दादा हरी, हरेँ सभी दुख त्रास ।। 2 ।।
हरि ॐ हर
श्री स्वामी केशवानंद की जय।
श्री स्वयं दत्त अवधूत की जय।
श्री धूनी वाले दादा की जय ।
श्री डंडे वाले दादा की जय ।
केशव विनय
।। पूर्वाद्ध ।।
त्रिभंग छंद
श्री कृष्णानंदा, आनंदाकंदा, नमो मकुन्दा, अविकारी। सच्चिदानंदा, परमानन्दा, केशवानन्दा, मदनारी ।।
श्री भानूछन्दा, शीर्षहिं चन्दा, स्कन्दहि दण्डा तमहारी ।। अंगे सुगन्धा, नग्न निबन्धा, काटे कुद्वन्दा, भवपारी ।।
(1)
।। भुजंग प्रयात् ।।
नमो स्वामी श्री केशवानन्द दादा,
नसाते सभी पाप त्रैताप बाधा।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 1 ।।
जनों के अनेकों हरो दोष गाता,
अज्ञानी जनों के स्वयं ज्ञानदाता।
नमो त्राहि दादा पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 2 ।।
सभी ऋद्धियां के सिद्धियां के प्रदाता,
पराभक्ति सामुक्ति के आप दाता ।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।3।।
हरो जन्म मुत्यु अनेकों विधाता,
स्वयं आप संसार में एक त्राता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।4।।
जनों के पिता आप माता सुभ्राता,
स्वयं मित्र स्वामी सुत्राता सुताता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।5।।
महादृष्टि मदान्ध के दृष्टि दाता,
सजन्मान्ध के आप आँखें प्रदाता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ||6||
किये मूक वाचाल पंगूस पादा,
सकुष्टी अकुष्टी कियेदे सुगाता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।7।।
अपस्मार धातु विकारादि घाता,
तनाघात अर्द्धांग रोगादि घ्नाता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 8।।
सुतार्थी धनार्थी सकामी अनाथा,
दयादृष्टि से सो फलाभिष्ट पाता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा || 9 ||
महाशान्ति सन्तोष विद्या सुदाता,
हरो शोक संताप आनन्द दाता ।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 10।।
अहोनी सहोनी सभी हाथ दादा,
मरों को जिला भी सको आप दादा।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 11 ।।
अहंकार नाशो करीहुं विनादा,
स्वयं आप हुंकार भानू प्रभादाः।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 12 ।।
(2)
पुनः भुजंग प्रयात्
तुझे भू न रोकी, सके जी न तोकी।
सके आग धोकी, न पानी डबोकी ।।
न वायू उड़ोकी न आकाश झोकी।
नमो त्राहि दादा स्वयं तू बिशोकी ।। 1 ।।
तुझे ना सके सो, महाशक्ति सोखी।
महातत्व विद्यान, सोवज्रभोकी।।
सभी दास तेरे, तरैं नाम घोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ॥ 2 ॥
सके वायु छाया, प्रभा मेघ रोकी।
जभी तू चहे दे, स्वयं नीर धोकी।
जले तुल्य घी हो, तले माललौकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।। ३ ।।
अहीश्वान बिच्छू, शिवा आदिकों की।
विषैली उड़ाके, रखे देह रोकी ।।
सड़ी हो कटी हो, जिलाता, मरोंकी।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ॥4 ।।
जला नीर से दे, जली आग रोकी।
बुझादेत कोशों, वही लौ घरों की ।।
बिठा आग में, ठंड देवे हिमोंकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।5।।
क्रियाएं अनेकों करे तू रसों की।
तुझे छोड़ भोक्ता, दिखे ना त्रिलोकी ॥
सके जो जराखा, स्वयं तुल्यजौकी ।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ।।6।।
चले शक्ति तेरे, सहारे सबों की।
पचा अन्न पानी, बना रक्त कोखी ।।
सदाकाल रक्षा, करै इन्द्रियों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।7।।
बिना आग यों ही, जलादे बिलोकी।
चहे लौ, न पाके, कणी चावलों की ।।
पकादेत तू वस्तु छू भोजनों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।। 8 ।।
पवी भस्म माटी, विषों बोतलों की।
तथा मूत्र विष्टा, गुली आदिकों की ।।
करै शर्करा, मालखोवा बिलोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।9।।
तुही विश्वकर्मा स्वयं अग्नि चोखी।
करै कर्म सारे, प्रकाशे त्रिलोकी ।।
सदा तू करें, व्यापार रक्षा सबोंकी।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ।।10।।
चहे तू तभी ना, घटे माल थोकी।
सके तू धरा के सभी विघ्न रोकी ।।
लिखावे, दिखावे, पढ़ावे बिलोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तु विशोकी ।।11।।
बचावे जिसे तू, न नाशे त्रिलोकी।
नसावे जिसे तू. सके कौन रोको ।।
सभी ठाम रक्षा, करें तू जनों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तु विशोकी ।। 12।।
(1)
।। तोटक छन्द ।।
निज दासहि ज्ञान करावत हो।
खुद दे वर देव बनावत हो ।
जन भक्त सभी अपनावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 1।।
सब योग त्रियोग सधावत हो।
सब ज्ञान विज्ञान करावत हो ।
निज रूप स्वयं दिखलावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 2 ।।
जन जो नित केशव ध्यावत हो।
गुण गावत सीस नवावत हो।
उसको सब आप दिलावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 3 ।।
भटकी दुःख पावत डूबत हो।
जन संकट में पड़ ध्यावत हो ।
उसको झट बचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 4 ।।
जनकी हठ व्यर्थ नसावत हो।
जिनको घर लावन चाहत हो ।
बिन मार्ग चले पहुँचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 5 ।।
धर रूप अनेकन जावत हो।
जनके घर भोजन पावत हो
सब चीज उसे पहुँचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 6 ।।
बहु भाँति यदा डरपावत हो।
मन को परिपक्व बनावत हो।
उरगर्व हरी उर लावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 7।।
जन भाव गहीं जस ध्यावत हो।
उसको तस आप लखावत हो।
फल तद्वत ताहि चखावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 8 ।।
बनि माँ क्षुत प्यास भगावत हो।
बनि बाप सभी दिलवावत हो ।
भय में बनि भ्रात रखावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 9 ।।
हिय मित्र बनी हुलसावत हो।
बन स्वामि सुपंथ चलावत हो।
गुरु हो तम नाशि प्रकाशत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 10।।
यम हो सब पाप भगावत हो।
बनि धर्म सनातन राखत हो।
बन न्यायपति सुलझावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो।। 11 ।।
बन वैद्य सभी रुज नाशत हो।
अवधूत बनी जन तारत हो।
वन दत्त सभी दिलवावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो।। 12 ।।
(2)
।। पुनः तोटक छन्द ।।
जनके द्रुत केशव केश गही।
फिर वे खुद काट सुकेश लही।
नित यज्ञ करें हवि केश वही।
प्रभु पाहि नमोपद त्राहि कही ।। 1।।
बन काल स्वयं जन केश गहैं।
फिर काटत हो खुद होय महे ।।
तत् होम करी त्रय ताप दहैं।
प्रभु पाहि नमो पद त्राहि महे ।। 2 ।।
शिव, केशव हो शव रुण्ड धरैं।
अघ ताप अधी शव रुप करें ।।
शव को खुद आप सजीव करैं।
प्रभु पाहि नमोपद त्राहि हरे ।। 3 ।।
सब केशव ही कर काम सके।
बल ज्ञान सुधा सब दे वश के ।।
भव उद्धर उद्भव लोप शके।
प्रभु पाहि नमो सब तार शके ।। 4 ।।
वश केशव के भव शक्ति सभी।
सब शीघ्र शके कर काम तभी ।।
कुछ भी न पड़े तब भूल कभी।
प्रभु पाहि नमो पद अर्प सभी ।। 5 ।।
सब केशव के वश शक्ति सभी।
रुचि तुल्य नचावत लोक तभी ।।
जन अन्य न घी सक प्रेरक भी।
प्रभु पाहि नमो पद अर्प सभी ।। 6 ।।
यह केशव ईशत लोक सभी।
वसुधा सबका खुद ईश तभी ।।
विधि विष्णु कहाय महेश्वर भी।
प्रभु पाहि नमो पद अर्प सभी ।। 7 ।।
विधि आप ककार सुकेशव में।
शिव ईश महेश जु केशव में ।।
खुद केशव विष्णु से केशव में ।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 8 ।।
खुद शक्ति इकार जु केशव में।
यम केश गहे बस केशव में।
वसु वासु सुधा वश केशव में।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 9 ।।
सब शक्ति चढ़ी बस केशव में।
व सजीव करें बस केशव में।
रवि चन्द स पावक केशव में।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 10।।
ऋक सूर्य ककार जु केशव में।
यजु अग्नि इकार जु केशव में ।।
शशि साम शकार जु केशव में।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 11 ।।
व अथर्व भचक्र जु केशव में।
बसु अष्ट सभी बस केशव में।
सब तत्व चराचर केशव में।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 12 ।।
(1)
।। नाराच छंद ।।
नमो नमो नमो पिता, धरी म माथ पाद् तैं ।
म त्राहि त्राहि पाहि भो, रखो मुझे स्वपाद तैं ।।
गुरु पिता म मात तैं, म मित्र स्वामि भ्रात तैं।
तुही म तात त्रात तैं, छुड़ात अहं जात तैं ।। 1।।
।। प्रभा छन्द ।।
सकेश ग्राहकाय हुं । सकेश कन्तनाय हुं ।।
सकेश याजकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 1।।
यमाय अन्तकाय हुं । सकाल पाशन्धाय हुं ।।
स कालनाशनाय हु। नमामि केशवाय हुं ।। 2 ।।
स विश्व ईषणाय हुं । स पापनाशनाय हुं।
शवं सजीवनाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 3 ।।
स्वयं सुधा कराय हुं । स्वयं प्रभा कराय हुं ।।
स्वयं प्रकाशकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 4 ।।
भवाय संभवाय हुं । वराय श्री कराय हुं ।।
शिवाय शंकराय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 5 ।।
सदण्ड धारणाय हुं । स नग्न भव्यकाय हुं ।।
स यज्ञयाजकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 6 ।।
स भक्तवत्सलाय हुं । स दीन रक्षकाय हुं ।।
त्रिताप नाशकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 7।।
स क्षौरकर्मठाय हुं । स विघ्न नाशकाय हुं ।
अनन्त रोगघ्नाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 8 ।।
स भक्त रन्जनाय हुं । स शोक गन्जनाय हुं ।।
स राग भन्जनाय हुं नमामि केशवाय हुं ।। 9 ।।
स सिद्धि ऋद्धि दाय हुं । विज्ञान ज्ञान दाय हुँ।।
स भक्ति मुक्ति दाय हुं नमामि केशवाय हुं । । 10 ।।
(ऊपर की स्तुति में जो बार-बार (हुं) का प्रयोग किया है यह महाशक्ति का मुख्य बीज है यथा ब्रह्म का (ॐ) बीज है।)
।। छन्द ।।
तू ही बुद्धि का प्रेरक स्वामी,
तभी फुरे नित वृत्ति कितेक।
इच्छावत इन्द्रियां नचावत,
नित उपजावत, राग अनेक ।।
उसमें सारा नहीं हमारा,
सबका कारण तू है एक ।
बिना शक्ति हम क्या कर सकते,
पड़े चरण में निज सर टेक ।। 1 ।।
।। दोहा ।।
राग रहित जब तू करै, तभी सधै वैराग ।
स्वयं करै वैराग तब, तव पद में अनुराग ।। 1।।
बिन तेरे अनुराग के, होय कभी ना ज्ञान ।
ज्ञान बिना ना मुक्ति हो, मुक्ति बिना कल्याण ।। 2 ।।
तव शरणागत हम सभी, तव कर में सब काज ।
पड़े चरण में राखिये, शरण गहे की लाज ।। 3 ।।
शरणागत की लाज सब, हैगी तेरे हाथ ।
शरण चरण में हैं पड़े, त्राहि नमावत माथ ।। 4 ।।
दिया समर्पी चरण में, सभी देह सीस ।
तो आशा किसकी करें, करै कौन कोशीस ।। 5 ।।
लिया शरण में जो मुझे, तव पद में तन सीस।
कौन काम अब रह गया, कौन करै कोशीस ॥ 6 ॥
स्तम्भ आप हैं विश्व के स्वयं एक आधार ।
आप तजी पर सार क्या, आप सार संसार ।। 7।।
यों मम आप ही स्तम्भ हो, एक अखिल आधार।
क्यों कर छोडू जान के, छूट बहे भव धार ।। 8 ।।
तेरी मर्जी से सदा, योग वियोग जु होय ।
करी कृपा रख शरण में, कहीं गही पद दोय ।। १।।
गर्जी तो अर्जी करै, पर तव मर्जी साँच।
बरु रज को हीरा करे, चाहे हीरा काँच ।। 10 ।।
आप अग्नि हम काठ हैं, पड़े आपके पाद ।
तो भी क्या हम रह सकै, यही काठ क्या बाद ।। 11 ।।
सूखी लकड़ी झट जलैं, गीली अति धुंदुआय।
तो भी जल के अन्त को, सभी आग हो जाए।। 12 ।।
त्यागी सूखा काठ है, रागी गीला काठ ।
जल्दी धीरे अन्त को, आग होय सब काठ ।। 13 ।।
त्यागी रागी भक्त त्यों, गही शरण भरपूर ।
जल्दी धीरे अन्त को, होवै तेरा नूर ।। 14।।
सचर अचर ना अजड़ जड़, ज्ञानी मूढ न कोय ।
जिसे जभी तू ज्यों करें, तभी तथा सो होय ।। 15।।
चाहे यथा तू त्यौं करै, सभी चराचर जीव ।
नहीं किसी की ताव है, तू ही सभी की नींव ।। 16 ।।
जैसा चाहे तू करै, सब में बैठा व्याप।
तुझे तजी ना अन्य है, कारण कर्ता आप।। 17 ॥
करै करावे ज्यों चहे, व्यापि सब में आप।
तो फिर किस की क्या त्रुटि तेरा सभी प्रताप ।। 18।।
मुझमें व्यापी यों तुही, सब कुछ करै कराय।
तो फिर मेरी क्या त्रुटी, ज्यों तू चहे रखाय ।। 19।।
भले बुरे कपड़े सभी, ज्यों दे धोबी धोय।
त्यों तू दे पावन करी, भला बुरा ना जोय ।। 20 ।।
लोहा शोधी ज्यों करै, शुचि पावन अयकार ।
त्यों तू पावन जन करी, भव से देत उबार ।। 21 ।।
(1)
भजन
कर सकता तू दादा सब कुछ,
तेरे कर में सब सत्ता।
तेरी इच्छा बिना हुये कुछ,
हिल सकता है ना पत्ता ।। टेक।।
सभी ओर सब काल सभी थल,
व्यापा बनी बसा खत्ता।
तुही स्वयं भक्तों का सच्चा,
पूरा रक्षक अलबत्ता।।
शरण लखी जन ताप हटाता,
बन शरणागत का छत्ता ।
तुझे छोड़ यों और न कोई,
सकता कान करी तत्ता ।। 1 ।।
तभी भक्त सब तुझको भजते,
पन्थहि जात बता धत्ता।
खाय मिलै जो धन ना जोरे,
तन पर राखे ना ऽ लत्ता ।।
मश्त बनी अवधूत बनि वे,
लखेँ तुझे नित तव सत्ता ।
तो भी कोई ना कह सकता,
ठीक कहाँ लो तव यत्ता ।। 2 ।।
(2)
भजन
[ ] दादा रक्षा करो हमारी,
[ ] शरणागत मैं कहत पुकारी।। टेक।।
[ ] ॐ रूप से ज्ञान रखाओ,
[ ] शक्ति रखाओ हुँ परिचारी।
[ ] नादहि द्वारा मनहि रखाओ,
[ ] तुर्या बिन्दुहि में लयकारी।।
[ ] ब्रह्मानन्द वृत्ति के हेतु,
[ ] कर देह मन की रखवारी।
[ ] जीवहि अपना अंश समझ के,
[ ] लीजे पुत्रहि निज उर धारी।। 1।।
[ ] राखो भू पै भूमि तत्व से,
[ ] नीर तत्व से नीर मझारी ।।
[ ] अग्नि तत्व से राखो अग्नि में,
[ ] वायु तत्व से मध्य बयारी।।
[ ] रखो गगन में गगन तत्व से,
[ ] विद्या द्वारा ज्ञान प्रचारी।
[ ] शक्ति सहारे रख माया से,
[ ] दीजे आवागमन मिटारी ।। 2 ।।
[ ] स्थूल देह को राखो विराटहि,
[ ] सूक्ष्म देह को नूर मझारी ।।
[ ] कारण तन को रखो शून्य हो,
[ ] अपना आपहि लो स्वीकारी।।
[ ] रखो शक्ति को स्वयं शक्ति में,
[ ] रखो ज्ञान निज ज्ञान मझारी ।
[ ] निजानन्द आनन्दहि अपने,
[ ] राखो अपना आप विचारी ।। 3 ।।
[ ] चित की रक्षा मन से कीजे,
[ ] मन की रक्षा बुद्धि प्रचारी।
[ ] सभी इन्द्रियाँ राखो आपहि,
[ ] खुद की वृत्ति में अविकारी ।।
[ ] प्रभु अंशी का अंश मुझे लख,
[ ] स्वयं सिन्धु का बिन्दु विचारी।
[ ] अपना आपहि लो अपनाई,
[ ] रखो सदा निज चरण मझारी ।। 4 ।।
(3)
।। भजन ।।
दादा रक्षा करो हमारी, दादा धूनी वाले जी ।। टेक।।
शून्य रूप से अतन अचल अज, नाम न रंग न वाले जी। निर्विकार तुम निर्विकल्प तुम, केवल रहने वाले जी । स्वयं प्रकाशक नूर रूप से, शक्ति ज्ञान सुख वाले जी ।।
स्वयं(सच्चिदानन्द) सदा हो, कारण करने वाले जी ।।1।।
सदा मग्न (आनन्द) रूप से, सभी दिशा थल वाले जी । (चित्) से चेत कराने वाले, गति के देने वाले जी ।।
(सत्) से सब हो सत्ता वाले, करने धरने वाले जी ।
गति पा सत्ता शक्ति कहाती, सोई माया वाले जी ।। 2 ।।
त्रिगुणी माया महत प्रकाशे, ज्योती सात निकाले जी । प्रकृति पुरुष तब तुम कहलाते, खुद विराट तनवाले जी । ब्रह्मा बनी रचै जग सारा, विष्णु बनी जग पाले जी ।
(सत्) से सब हो सत्ता वाले, करने धरने वाले जी ।
गति पा सत्ता शक्ति कहाती, सोई माया वाले जी ।। 2 ।।
त्रिगुणी माया महत प्रकाशे, ज्योती सात निकाले जी । प्रकृति पुरुष तब तुम कहलाते, खुद विराट तनवाले जी । ब्रह्मा बनी रचै जग सारा, विष्णु बनी जग पाले जी ।
शंकर हो जग तम संहारे, दादा घैले वाले जी ।। 3 ।।
खुद दुर्गा हो दुर्गति नाशै, निज जन को प्रति पाले जी। काली बन के काल हटावै, दुष्टों का जी सालेजी।
बनी गजानन विघ्न हरैं सब, चारों वाणी वाले जी ।
इन्द्र शुक्र बन मुन्डी खुद तुम,मरा जिलाने वाले जी॥ 4 ॥
स्वामी बनी सुपंथ चलाते, यम हो पाप निकाले जी ।
गुरु बनी देते शुभ शिक्षा, दादा डंडे वाले जी ।
पिता बनी खुद हमें रखाते, माता बन खुद पाले जी।
खुद दुर्गा हो दुर्गति नाशै, निज जन को प्रति पाले जी। काली बन के काल हटावै, दुष्टों का जी सालेजी।
बनी गजानन विघ्न हरैं सब, चारों वाणी वाले जी ।
इन्द्र शुक्र बन मुन्डी खुद तुम,मरा जिलाने वाले जी॥ 4 ॥
स्वामी बनी सुपंथ चलाते, यम हो पाप निकाले जी ।
गुरु बनी देते शुभ शिक्षा, दादा डंडे वाले जी ।
पिता बनी खुद हमें रखाते, माता बन खुद पाले जी।
भ्राता बन खुद भय हर लेते, दादा कंबल वाले जी ।। 5 ।।
धन्वन्तर खुद वैद्य बनी सब, रोग नसाने वाले जी।
धन्वन्तर खुद वैद्य बनी सब, रोग नसाने वाले जी।
दत्तात्रेय बन सभी दिलाते, नियम कुदर्ती वाले जी।।
मस्त मुक्त अवधूत बनी खुद, ज्ञान कराने वाले जी।
मस्त मुक्त अवधूत बनी खुद, ज्ञान कराने वाले जी।
शरण चरण के शरणागत हम,आप रखाने वालेजी।।6।।
रक्ष रक्ष झट रक्ष पुरारी, विघ्न नसाने वाले जी ।
त्राहि-त्राहि जन शरण निहारी, रक्षो कंबल वाले जी।
नमे नमे हम भो मदनारी, रक्षो डंडे वाले जी।
रक्षो रक्षो कहत पुकारी, रक्षो धूनी वाले जी ।। 7।।
धावो धावो धावो दादा, भक्त बचाने वाले जी ।
आवो आवो आवो दादा, लाज रखाने वाले जी ।
रक्षो रक्षा रक्षो दादा, जन अपनाने वाले जी ।
दीजे दर्शन, दीजे दर्शन, ज्ञान कराने वाले जी ।। 8 ।।
रक्ष रक्ष झट रक्ष पुरारी, विघ्न नसाने वाले जी ।
त्राहि-त्राहि जन शरण निहारी, रक्षो कंबल वाले जी।
नमे नमे हम भो मदनारी, रक्षो डंडे वाले जी।
रक्षो रक्षो कहत पुकारी, रक्षो धूनी वाले जी ।। 7।।
धावो धावो धावो दादा, भक्त बचाने वाले जी ।
आवो आवो आवो दादा, लाज रखाने वाले जी ।
रक्षो रक्षा रक्षो दादा, जन अपनाने वाले जी ।
दीजे दर्शन, दीजे दर्शन, ज्ञान कराने वाले जी ।। 8 ।।
(1)
।। आरती ।।
करत आरती दादा जी की,
जय शिव केशव दादा जी की ।। टेक।।
जिसके द्वारा भय सब भगता।
रोग देह का झट सब नसता।
मिथ्या गर्व हृदय से खसता।
मिटै सभी खुद दुविधा जी की ।। 1 ।।
जिसके द्वारा संकट हटता।
तुर्त सभी का विघ्न निबरता।
नित आनन्द सुमंगल करता।
मिटै सभी खल बाधा जी की ।। 2 ।।
शरण शरण हम शरण तुम्हारी।
दादा रक्षा करो हमारी।
राखो राखो कहत पुकारी।
काटो सभी दादा तन जी की ।। 3 ।।
तुम स्वाती हम पिहु समाना।
तुम पानी हम मीन समाना।
तुम अंशी सब अंशहि प्राणा।
हाथ तुम्हारे गति सब ही की ॥ 4 ॥
प्राण सभी के अन्तर्यामी।
तीनों लोकों के तुम स्वामी ।
प्रेरत हेरत सब की थामी।
वश्य रखत कर रज्जू धीकी ।।5।।
हाथ तुम्हारे लाज हमारी।
जैसा चाहो रखो विचारी।
शरणागत ब्रिद रक्षा कारी।
रखत सदा मर्यादा लीकी ।। 6 ।।
तुम्ही भक्त-वत्सल हो प्यारे ।
भक्त हेत तुम नर तन धारे।
उनके कारज सारत सारे।
पूर्ण करत सब इच्छा जी की ।। 7 ।।
नमत गही पद बारम्बारा।
लखी तुम्है जन का रखवारा।
संकट सभी हरो इस बारा।
अर्ज सुनी झट जन के जी की ।। 8 ।।
जो कि (आरति) शब्द (आ+रति) के योग से बना है जिसमें (आ) का अर्थ सब तरह से उत्तम प्रकार से और (रति) का अर्थ प्रीति है। इस विचार से प्रभु के चरणों में सब तरह उत्तम प्रकार से रति याने प्रीति होना ही आरती कहाती है।
( 4 )
भजन
आप सभी के प्रेरक स्वामी,
जो कुछ आप करावत हो।
सभी आपकी सेवा समझी,
सो सब आपहि अर्पित हो।। टेक।।
कान सुनै दिन रात सभी जो,
आपहि शब्द सुनावत हो ।।
समझी कीर्तन श्रवण आपका,
सो सब आपहि अर्पित हो ।
आँखें जो कुछ लखै वस्तु जग,
आपहि रूप दिखावत हो।।
समझी दर्शन ध्यान आपका,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 1 ।।
सूंघे नाक रात दिन जो कुछ ,
आपहि गंध सुंघावत हो।
समझी सोई धूप सुगंधी,
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
खावै चाखै पीवे जो मुख,
जो कुछ आप दिलावत हो ।
स्वयं अग्नि हो आप पचावत,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 2 ।।
तन से जो कुछ आप सहाते,
कर से सभी करावत हो ।
स्नान दान सो अर्चन सेवा,
समझी आपहि अर्पित हो ।।
चलें फिरावे पैर सभी थल,
आपहि उन्हें चलावत हो ।
समझी सो परिक्रमा आपकी,
सो सब आपहि अर्पित ।।3।।
ॐ जपावत विद्या द्वारा,
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
हुँ हुँ होता भ्रमर नाद खुद,
जरिये शक्ति जपावत हो।
कुण्डलनी मुख बैठ जपे जी,
सोहं आपही अर्पित हो ।। 4 ।।
स्वयं आरती करता अनहद,
आपहि नाद करावत हो ।
यश गाते सो वाद्य बजाते,
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
चित चीते मन मनन करे जो,
आप बुद्धि जो प्रेरत हो,
ध्यान धारणा वही आप की,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 5 ।।
स्वप्न स्वयं सविकल्प समाधि,
कारण स्वयं सुलावत हो।
बेहोशी निर्विकल्प समाधि,
समझी आपहि अर्पित हो ।।
होय चुका जो आगे होगा,
जो कुछ निश दिन होवत हो।
सभी आप की सेवा समझी,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 6 ।।
।। मदिरा छन्द सवैया ।।
प्राण समर्पत जीव समर्पत धी मन अर्पत चित्त तुझे।
अर्प अहं दश इन्द्रि समर्पत देह समर्पत तीन तुझे ।।
त्रैगुण अर्पत अक्स हुए सब होवत होवन हार तुझे।
सर्वदशा त्रयताप समर्पत ज्ञानरुचि सब शक्ति तुझे ।1।
आप तुही सबका खुद कारण आप फुरै तब सर्व फुरे। एक तुही जग प्रेरत हेरत भक्षत रक्षत सर्व करे ।।
ये तुझ में तब अर्पि तुझे नमि ते कहि पाहि सुत्राहि हरे । दासलखि सुत शिष्यलखी तव अंशलखी अपनाव हरे ।2।
सर्वदशा त्रयताप समर्पत ज्ञानरुचि सब शक्ति तुझे ।1।
आप तुही सबका खुद कारण आप फुरै तब सर्व फुरे। एक तुही जग प्रेरत हेरत भक्षत रक्षत सर्व करे ।।
ये तुझ में तब अर्पि तुझे नमि ते कहि पाहि सुत्राहि हरे । दासलखि सुत शिष्यलखी तव अंशलखी अपनाव हरे ।2।
।। नाराच छन्द ।।
स चीमटा उठाए ईट दंड से डरावते ।
स गोबरी स आग भस्म फैंक के भगावते ।।
विनोच खींच दाब फेंक, मार भी लगावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 1।।
प्रसन्न होय क्षौर आप नित्य ही बनावते ।
रहें सदा विनग्न रूप धूनि भी रमावते ।।
नहाय ना कदा कभी सुनीर सीस प्लावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 2 ।।
सुगन्ध पुष्प बिल्व पत्र भक्त आ चढ़ावते ।
अनेक दिव्य माल टाल भोग भी लगावते ।।
उसे उठाय लेत देत खात या बहावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 3 ।।
सही सभी जु उष्ण शीत दर्श हेत आवते ।
खड़े रहें म कीच धूप भक्त नीर प्लावते ।।
पड़े पगों तभी जु आप वस्त्र फाड़ जारते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 4 ।।
अनेक भक्त माल टाल संत को जिमावते ।
स डूण्ड काष्ट गोबरी जु धूनी में लगावते ।।
उन्हें जु आप देत गारि लिंग हूँ दिखावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 5 ।।
अनेक भक्त तेल घी सुजोत में जलावते ।
तुम्हारे दाब हाथ पैर अंग भी मलावते ।।
उन्हें कभी हटाय देत तेल घी दुरावते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 6 ।।
अनेक भक्त नीर लाय धूनि पै रखावते ।
अनेक लाय कामरी तुझे भली उढ़ावते ।।
घड़े तू फोड़ तोड़ देत कामरी जलावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 7 ||
अनेक पाक शाक रोट हुक्म पा बनावते ।
परन्तु आप मार कूट खून ये बहावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 8 ।।
जु क्योंकि आप रोग शोक हानियाँ भगावते ।
अपंग पाद बांझ पुत्र, कंग द्रव्य प्लावते ।।
सुतासु लग्न, जाल भग्न, पातकी बचावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 9।।
अकाल मृत्यु दूर सार कै मरे जिलावते ।
जिसे चहे वही उसे सदा सभी दिलावते ।।
विज्ञान, ज्ञान, ऋद्धि-सिद्धि, भक्ति मुक्ति प्लावते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 10 ।।
(5)
।। नाराच छन्द ।।
स चीमटा उठाए ईट दंड से डरावते ।
स गोबरी स आग भस्म फैंक के भगावते ।।
विनोच खींच दाब फेंक, मार भी लगावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 1।।
प्रसन्न होय क्षौर आप नित्य ही बनावते ।
रहें सदा विनग्न रूप धूनि भी रमावते ।।
नहाय ना कदा कभी सुनीर सीस प्लावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 2 ।।
सुगन्ध पुष्प बिल्व पत्र भक्त आ चढ़ावते ।
अनेक दिव्य माल टाल भोग भी लगावते ।।
उसे उठाय लेत देत खात या बहावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 3 ।।
सही सभी जु उष्ण शीत दर्श हेत आवते ।
खड़े रहें म कीच धूप भक्त नीर प्लावते ।।
पड़े पगों तभी जु आप वस्त्र फाड़ जारते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 4 ।।
अनेक भक्त माल टाल संत को जिमावते ।
स डूण्ड काष्ट गोबरी जु धूनी में लगावते ।।
उन्हें जु आप देत गारि लिंग हूँ दिखावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 5 ।।
अनेक भक्त तेल घी सुजोत में जलावते ।
तुम्हारे दाब हाथ पैर अंग भी मलावते ।।
उन्हें कभी हटाय देत तेल घी दुरावते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 6 ।।
अनेक भक्त नीर लाय धूनि पै रखावते ।
अनेक लाय कामरी तुझे भली उढ़ावते ।।
घड़े तू फोड़ तोड़ देत कामरी जलावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 7 ||
अनेक पाक शाक रोट हुक्म पा बनावते ।
परन्तु आप मार कूट खून ये बहावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 8 ।।
जु क्योंकि आप रोग शोक हानियाँ भगावते ।
अपंग पाद बांझ पुत्र, कंग द्रव्य प्लावते ।।
सुतासु लग्न, जाल भग्न, पातकी बचावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 9।।
अकाल मृत्यु दूर सार कै मरे जिलावते ।
जिसे चहे वही उसे सदा सभी दिलावते ।।
विज्ञान, ज्ञान, ऋद्धि-सिद्धि, भक्ति मुक्ति प्लावते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 10।।
दादा नाम तभी तब होय।
दादा नाम तभी तब होय ।। टेक।।
सभी काल थल सभी ओर तू, दे सकता सब कोय ।
जन दे, धन दे, अन्न भूमि दे, क्षीर चीर दे तोय ।।
पुष्टि तुष्टि दे, क्रान्ति शान्ति दे, आयु अभय दे लोय।
यश दे, सुख दे, प्राण मान दे, भव के रुज दे खोय।। 1।।
कर काँचहि दे ककड़ी मिश्री, पत्थर देत विलोय।
तेल सघृत शर्करा बना दे, आग बना दे जोय ।।
कर अटूट भंडार हि देवे, सभी जहर दे खोय।
गड़े उठा दे, मरे जिला दे, दरे उगादे टोय ।। 2 ।।
देत असम्भव को कर सम्भव, संस्कार दें धोय।
सम दे संयम योग युक्ति दे, धी विद्या दे दोय।।
अन्तर्यामी शिष्य बना दे, ज्ञान करा दे गोय ।
ऋद्धि-सिद्धि दे,सभी शक्ति दे,भक्ति-मुक्ति दे सोय।। 3।।
दादा दादू दद्दा दाजी, तू पर दादा जोय।
सब दादों का दादा तू दा, तुही दाय जी होय ।।
दाता का भी दाता है तू, सभी ददा दे खोय।
गही चरण बिच शरण हो, निजरति दे चिरसोय ।। 4 ।।
(6)
।। भजन ।।
दादा कहें तुझे या हेत। दादा कहें तुझे या हेत।। टेक।।
माँ बन तू क्षुत प्यास भगादे, बा बन निज पद देत ।
भ्रात बनी तू देत भगा भय, मित्र बनी सुख देत ।।
स्वामी बनी शुभ पन्थ चलावे, दत्त बनी सब देत। न्यायाधीश बनी तू त्योंही, न्याय सत्य कर देत ।। 1।।
दंड देत यमराज बनी तू, पाप भगा सब देत ।
वैद्य बनी तू रोग भयंकर, सभी दूर कर देत।।
धर्मराज बन धर्म सनातन, जंचा कुदरती देत ।
मस्त मुक्त अवधूत बनी तू, तार भक्त को देत ।। 2 ।।
विश्वामित्र विधि जग कर्मा, बनी रची सब देत।
बनी विष्णु तू राखे सबको, बचा भक्त को देत ।।
हरशंकर बन, हरतम उर का, नसा बला सब देत ।
शक्ति बनी तू सभी शक्ति दे,ऋद्धि-सिद्धि सब देत।। 3 ।।
गणपति हो तू विघ्न हरै सब, चारों वाणी देत ।
भैरव बन के भय हर लेता, दुष्टों को भय देत ।।
वरयोगी बन, तुरन्त शिष्य को, लगा समाधि देत ।
इन्द्र शुक्र बन के धनवंतर, मरा जिला तू देत ।। 4।।
चित्रगुप्त हो, चित्र जु रेखा, दृश्य दिखा उर देत ।
बनी जनक तू सुख दुःख दोनों, लखा तुल्य खुद देत ।। ऋषभ देव जड़ भरत बनी शुक, मस्त बना जन देत । पापी हू को शरण लखी खुद, बचा शीघ्र तू देत ।। 5 ।।
गौतम बुद्ध बनी जिन श्रावक, दयावान कर देत ।
ईशा बन तू जग हित चाहत, प्रेम बढ़ा उर देत ।।
मूसा बन, सब मत के जन को, लखा नाम गुण देत ।
तू खुद मोहम्मद दत्तात्रेय बन, सीख कुदरती देत ।। 6 ।।
जन की सेवा बड़ी भक्ति से, इब्राहिम कह देत ।
स्वयं वीर्य का गुण दर्शाई, ब्रह्मचर्य रख देत ।।
राम बनी मर्याद रखावे, सीख न्याय की देत ।
कृष्ण बनी सब योग सधाई, प्रेम बढ़ा तू देत ॥ 7 ॥
बनी कबीरा, हिन्दू मुस्लिम, एक करी तू देत ।
सुन्दर का गुरु दादू बन तू, खरी नसीहत देत ।।
तुलसी का गुरु, नरहरि बन तू, बता रुप निज देत ।
बाबा आदम तू ही जगत का, खरा ज्ञान तू देत ।। 8 ।।
तू ही बना पंजाबी नानक, सच्ची शिक्षा देत ।
तु ही बना चैतन्य बंग का, चखा प्रेम रस देत ।।
तू दादल दादार फारसी, भाजर थोस्त उदेत ।
नडियानंद अपार नाथ तू, ज्ञान देव सुख देत ।। 9 ।।
(7)
।। भजन ।।
केशव नाम इसी से सार्थक,
यथा नाम गुण तथा करै ।। टेक।।
केश नोच लें केश बांध दें, केश खिला रुज कष्ट हरै।
केश गहै खुद का केशहि, केशों का खुद यज्ञ करैं ।।
काल रूप से केश गहत हैं, शम्भु रूप से केश हरै ।
याजक बनके केशहि होमी,निजभक्तों के विघ्न हरै।।1।।
केशों का नित ओढे कम्बल, आसन उसका स्वयं करै। फाड़ें उसको जारें उसको, फैकें उसको दान करें ।।
क्षौर करावै केशों का नित्त, ना रहने दें केश शिरे ।
भक्तोंके भी केश मुड़ा दें, हुक्म करी कर केश धरै ।। 2 ।।
उग्र रूप धर स्वयं शम्भु ये, केशव ही शव रुण्ड धरै ।
केशों का नित ओढे कम्बल, आसन उसका स्वयं करै। फाड़ें उसको जारें उसको, फैकें उसको दान करें ।।
क्षौर करावै केशों का नित्त, ना रहने दें केश शिरे ।
भक्तोंके भी केश मुड़ा दें, हुक्म करी कर केश धरै ।। 2 ।।
उग्र रूप धर स्वयं शम्भु ये, केशव ही शव रुण्ड धरै ।
शक्ति रुप हो शव पै चढ़ता, काली का खुद रुप धरै।।
पाप ताप को तू शव करता, शव को तू ही सजीव करें। सड़ा गड़ा शव कटा उठादे, खुद धन्वन्तर रुप धेरै ।। 3 ।।
करी (शके) सब (वश) तेरे सब, तू ही अनेकों रुप धेरै। विराट (केशव) स्वयं विष्णु तू. (क) से ब्रह्मा तू ही करै ।। रुद्र (ईश) से शक्ति (ई) से, (व) से वसु तू अष्ट करें।
तेरा अंग चराचर है सब, जीव अंश तव पाद परै।। 4 ।।
करी (शके) सब (वश) तेरे सब, तू ही अनेकों रुप धेरै। विराट (केशव) स्वयं विष्णु तू. (क) से ब्रह्मा तू ही करै ।। रुद्र (ईश) से शक्ति (ई) से, (व) से वसु तू अष्ट करें।
तेरा अंग चराचर है सब, जीव अंश तव पाद परै।। 4 ।।
(8)
।। भजन ।।
झट रक्ष दादा रक्ष तू,
यदि दीन पै कुछ प्यार है,
अवधूत दादा स्वामी मम,
शिवशम्भू का अवतार है ।। टेक।।
तव नाम नौका सिंधु जग, जन भक्त को दे तार है ।।
लख प्रेम सच्चा भक्त का, कर देत बेड़ा पार है ।
तू एक ही खं मात्र में संसार का वर सार है ।। 1।।
दिल भक्त का तू शुद्ध कर, खुद खार देता गार है ।
सब ढोंग झूठा ढंग सब, अध ताप देता जार है।
सब झार कचरा चित्त का, धो मैल देता टार है।
तू ठार मारे फूट को, छल अग्नि देता डार है ।। 2 ।।
निज भक्त की तू ढार खुद, हर विघ्न देता तार है।
जो थार बे मर्याद की, तू शीघ्र देत विदार है ।।
भवधार में आधार तू ना छूत जो पर नार है।
वैराट तेरे नूर का, ना आर है ना पार है ।। 3 ।।
लख विघ्न आगम भक्त का, तू वस्त्र देता फार है।
उपकार करता सर्व पर, ना देखता रिपु यार है ।।
यह देख सब मत जात का, पद चूमता हर बार है।
जन भक्त परता पाद में धर, सीस बारंबार है ।। 4 ।।
भू भार लेगा शीघ्र हर, वर उच्च ये आभार है।
दुर्भाव देगा टार सब, जिसकी जु अति भरमार है ।।
खुद यार तू संसार का, दे मेट सब जो रार है।
यह एक वर मैं मांगता: यह एक सिर्फ करार है ।। 5 ।।
तब देखते संसार में क्यों होत झगड़ा वार है।
दुर्भाव क्यों पर खून हित, टपकांय मुख से लार है ।। अपराध बिन लख दीन पर, खटकांय क्यों तलवार हैं। अब अन्तकर इस बातका,यदि लोकका सचयार हैं।।6 ।।
तब दृष्टि से दुर्भाव की, द्रुत होयगी सब हार है।
देगा करी दुर्भाव की मिट्टी जु पूरी ख्वार है ।।
आनन्द होगा भूमि पर बढ़ जायेगा जन प्यार है।
युग सत्य सा बर्ताव जग, तब होयगा एक बार है || 7 ||
(9)
।। भजन ।।
झट रक्ष दादा रक्ष तू, हों शरण में मैं मांगो दुआ ।। टेक।। ऐ फिक्र कर दे दूर सब, दिल जन से मांगो दुआ ।
ऐ नेक दादा टेक ये, रख भेख की मांगो दुआ ।
हमदर्द तू इस दर्द को, दे गर्द कर मांगो दुआ ।
निष्काम पूरण काम तू, कर काम दे मांगो दुआ ।। 1 ।।
जंजाल जी का जाल ये, सब टाल दे मांगो दुआ ।
आमाल जी का काल ये, तू बाल दे मांगो दुआ ।।
ये भूल खट के शूल सी, निर्मूल कर मांगो दुआ ।
गलफांस आय निकास दे,विश्वास रख मांगो दुआ।। 2 ।।
अभिलाष पूरी आश कर, तब दास मैं मांगो दुआ ।
इस त्रास का कर नाश तू, भव पाश हर मांगो दुआ ।। ऋण भार तुरंत उतार दे, संस्कार हर मांगो दुआ।
संताप हर ताप हर, भव ताप हर मांगो दुआ ।। 3 ।।
सब आश की तू पाश हर, नैराश्य कर मांगो दुआ।
जग राग हर वैराग्य कर, अनुराग तब मांगों दुआ।।
ये भूल खट के शूल सी, निर्मूल कर मांगो दुआ ।
गलफांस आय निकास दे,विश्वास रख मांगो दुआ।। 2 ।।
अभिलाष पूरी आश कर, तब दास मैं मांगो दुआ ।
इस त्रास का कर नाश तू, भव पाश हर मांगो दुआ ।। ऋण भार तुरंत उतार दे, संस्कार हर मांगो दुआ।
संताप हर ताप हर, भव ताप हर मांगो दुआ ।। 3 ।।
सब आश की तू पाश हर, नैराश्य कर मांगो दुआ।
जग राग हर वैराग्य कर, अनुराग तब मांगों दुआ।।
अज्ञान हर उर ज्ञान कर, धर ध्यान तब मांगो दुआ।
तवभक्ति की दृढ शक्ति दे कर मुक्ति दे मांगो दुआ ।। 4 ।।
तवभक्ति की दृढ शक्ति दे कर मुक्ति दे मांगो दुआ ।। 4 ।।
(10)
।। भजन ।।
हे दादा ! शरणागत वत्सल, रक्ष रक्ष तू रक्ष सदा ।। टेक।।
माया पति मायावी तू,
माया तेरी चेरी सदा ।
भूल भुलैया खिला सकै ला,
तेरी मर्जी बिना कदा ।। 1।।
नहीं चराचर नहीं जड़ाजड़,
मूढ न कोई प्रज्ञ कदा।
यदा यथा तू जिसको करता,
तथा वही हो जाए सदा ।।2।।
जो कुछ करता तू ही करता,
मैं कुछ करता नहीं कदा
अगर कहे तू मुझको करता,
क्या तू मुझमें नही सदा ।।3।।
जिम्मेवार सदा तू मेरा,
मैं ना जिम्मेवार कदा ।
क्योंकि पिता तू मम गुरु अंशी,
रक्ष अंश सुत शिष्य सदा ।।4।।
नमो नमो मैं नमो तुझे नित,
कभी न कीजै मुझे जुदा।
स्वयं समझ तब शरण सनातन,
युगल चरण बिच राख सदा ॥ 5 ॥
।। पुनः नाराच छन्द..3..।।
समर्पि प्राण जीव धी अहं मनो चितादिये ।
त्रिदेह इंद्रियां दशों, गुणों त्रि अक्स अर्पिये ।।
सभी दशा त्रिताप अर्पि ज्ञान भाव शक्ति ये ।
तुझे सभी तवार्पि ते पड़ा तवांश तोहिये ।। 1 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
तवादि भूल मायया कदा अहं पना लिये ।
कदापि हो हुए बने मया स दोष आदि ये ।।
सभी अभी समर्पि देत वश्य मैं स्वीकारिये।
नमामि त्राहि पाहि भो! पड़ा तवांश तोहिये ।। 2 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
रचे तुही स जी स प्राण चिन्मनो अहं धिये ।
गुणों त्रिदेह तू रचे त्रि अक्स इन्द्रिये ।।
रचे दशा त्रिताप सर्वज्ञान भाव भक्तिये ।
स हेतु ये तवार्पि ते पड़ा तवांश तोहिये ।। 3 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
नचै तवादि मायया नचाय तू स्वप्रेरिये ।
तभी अहं पना उजाय, होत दोष भूलिये ।।
स हेतु सर्व अर्पि देत वश्य मैं स्वीकारिये ।
नमामि त्राहि पाहि भो ! पड़ा तवांश तोहिये ।। 4 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
त्रिदेह ये सभी जड़, गुणों त्रि अक्स इन्द्रिये ।
जड़ दशा त्रिताप ये स चिन्मनो अहं धिये ।।
स पंचभूत पंचतत्व ये जड़ त्रि शक्ति ये ।
स्वयं प्रकाश, ते चिदंश मैं तवांश तोहिए ।। 5 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
स्वयं प्रकाश तू स्वयं फुरा सशक्ति प्रेरिये ।
तभी तवादि मायया तवांश हुं पना लिये ।।
वही अनादि काल से भुला भ्रमाय जीव ये ।
प्रभो कृपा बिना कदा बची सके तवांश ये।। 6।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
फुरे तुही सते तरंग वासना समूल ये।
फुराय अंश को गहाय कल्पना सुदेह ये ।।
स वायु में घुसी जभी, यदा बनाय वायु ये।
सनीर भू घुसी जभी, रचे तु नीर भू तुये।। 7।।
हुए स हेतु तीन देह, अंश क्या करे तु ये ।।
फुरे तुही, स चित्त ते, मनो तरंग माल ये ।
करै तरंग नादहुं, वही अहंत्व भाव ये ।
प्रज्ञान रुप तू स्वयं, गहे तरंग सो धिये ।
उन्ही तरंग से भ्रमे, गहे तवांश सो हिये ।। 8 ।।
हुए हिये सुचार भेद, अंश क्या करे तु ये ।।
बनाय कौन इन्द्रियां कहो जु आप सांच ये ।
गढ़ी प्रज्ञान शक्ति से, करी विराट जांच ये ।।
तभी तवांश वृत्ति ये, गहे जु पांच-पांच ये ।
वही उजाय सूक्ष्म स्थूल, शक्ति ते भ्रमाय ये ॥ 9॥
दशों सहेतु मे भुलाय, अंश क्या करे तुये ।।
उन्हें अहं त्व शक्ति दे, प्रेरिये भुलात ये ।
सहो भुलात वासना, गही अहं भुलात ये ।।
वही भुलात सूक्ष्म होय, स्थूल होय भुलात ये।
तुझे त्व हेतु अर्पिते, अहं पनादि जात ये ।।
सभी स्वयं म हेतु तँ तवांश क्या करे तुये ।। 10।।
ॐ हरि ॐ हर
केशव विनय - उत्तरार्द्ध
।। ध्यान ।।
नंगा देह दिखे अति सुन्दर,
तन फूलों से शोभित खास।
दिव्यरूप सब केश मुड़ाये,
कम्बल ओढ़े कम्बलदास ।। 1 ।।
धर कांधे पर डंडा पकड़े,
बैठे दादा धूनी पास ।
आप दया कर, लख शरणागत,
करो सदा मम उर में वास ।। 2 ।।
केशव विनय - उत्तरार्द्ध
।। ध्यान ।।
नंगा देह दिखे अति सुन्दर,
तन फूलों से शोभित खास।
दिव्यरूप सब केश मुड़ाये,
कम्बल ओढ़े कम्बलदास ।। 1 ।।
धर कांधे पर डंडा पकड़े,
बैठे दादा धूनी पास ।
आप दया कर, लख शरणागत,
करो सदा मम उर में वास ।। 2 ।।
।। दोहा।।
केशव सब को वश करै, केशव सब को पीव ।
केशव अघ तन शव करै, शव को करै सजीव ।। 1 ।।
केशव ईशत सभी को, केशव सब को ईश ।
शके सभी केशव करी, स्वयं सुधाकर धीश ।। 2 ।।
केश गहे सब के वही, काटे सब के केश ।
केश यज्ञ केशव करे, ना तम राखै शेष ।। 3 ।।
केश गहत बन काल तू, काटत बनी महेश ।
हवन करत बन यज्ञ पति, हरता जन के क्लेश ।। 4 ।।
।। चौपाया ।।
जय जय गुरुवर कृष्णानन्द ।
जय जय केशव परमानन्द ।। 1 ।।
जय अवधूत केशवानन्द ।
जय जय नमो सच्चिदानन्द।। 2 ।।
जय-जय केशव सहजानन्द ।
जय आनन्द कन्द सानन्द ।। 3 ।।
जय-जय केशव ब्रह्मानन्द ।
त्राहि पाहि नित नमो मुकुन्द ।। 4 ।।
जय-जय डंडे वाले चन्ड ।
कन्धे पर नित धारे डंड।। 5 ।।
मार भगावै यम का फन्द ।
रोग दोष भव बाधा द्वन्द ।। 6।।
धूनी वाले स्वयं प्रचन्ड ।
करै करावै होम अखण्ड।। 7।।
तृप्त देव देवी आनन्द ।
जन के दोष हरै सानन्द ।। 8 ।।
फेंक लुटावै मेवा कन्द ।
हरता भूत पितर का फंद ।। 9 ।।
खात खिलावत कृष्णानन्द ।
ब्रह्म भोज कर, यो सानन्द ।। 10।।
चुरा उठावै जो छल छन्द ।
गुप्त दान का दोष अखण्ड ।। 11 ।।
जौ तू देत सुधा सम वन्द्य ।
बिना दिये ले विषसम निंद्य ।। 12 ।।
।। दोहा ।।
हरत देव ऋण यज्ञ से, पितृ ऋणहि लुटवाय ।
ऋषि ऋण हरता स्वयं तू, बांट खाय खिलवाय।। 1 ।।
तू जभी विघ्न आगम लखे, चीरे वस्त्र जलाय।
हरता संकट फोड़ घट, घातहि मार लगाय।। 2।।
धूनी की खुद भस्म दे, नाशत नाना रोग ।
तन मन को यों शुद्ध कर, सभी सधाता योग ।। 3 ।।
जो रक्षा तन की करै, जो जठराग्नि बढ़ाय।
जो रक्षे आयु तभी, रक्षा राख कहाय ।। 4।।
जो धूनी में देत खुद, कन्डा लकड़ी आप ।
उनके नाशत विघ्न तू, जारत तन के पाप ।। 5 ।।
धूनि सुधारत जो मनुज, उसे उच्च पद देत।
निश दिन सेवत जो उसे, सभी रोग हर लेत ।। 6 ।।
मले तेल घृत जो तुझे, भक्ति उसे निज देत ।
श्वान सुअर के जन्म सब, हरै मूत्र मल लेत ।। 7 ।।
देत ध्यान तब ज्ञान वर, पूजा दे सत्कार ।
तेरी सेवा देत सब, दया देत जन तार ।। 8 ।।
दीप हेत घृत तेल दे, जो दे दीपक जोय ।
पुत्र कामना होय तो, ता निर्वंश न होय ।। १ ।।
हो निष्कामी दीप जो, जोई करै प्रकाश।
उसके उर दे ज्ञान तू, करता तम का नाश ।। 10।।
जो झाड़ै दरबार तब, तू झाड़ै ता दोष ।
जो लीपै ता प्रेम से, तू लीपै ता दोष ।। 11।।
जो तेरे खुद नाम पर, जल पा अन्न खिलाय।
नाशत उसके घात अघ, देता भगा बलाय ।। 12 ।।
जो तव हित उत्सव करै, आप करै ता हेत।
धनी सुखी इस जन्म में, दिव्य जन्म पर देत ।। 13।।
कर्म करै तब हेत जो, सहस गुणाकर सोय।
ज्यों का त्यों वर भोग दे, दिव्य जन्म ता होय।। 14।।
जो विरक्त निष्काम हो, करै कर्म तब हेत।
उसका हरी अज्ञान सब, मुक्ति उसे तू देत ।। 15।।
तू ना चाहे काम कुछ, चहे भक्ति निष्काम।
निष्कामी ता भक्त के, स्वयं सुधारे काम।। 16 ।।
चाहे सच्चा प्रेम तू, कपट रहित व्यवहार ।
उसका तू खुद दास बन करता बेड़ा पार ।। 17।।
बैठ हजारों कोस जो, टेरे हो आसक्त ।
करत मदद तू झट उसे देखी सच्चा भक्त ।। 18 ।।
हरत देव ऋण यज्ञ से, पितृ ऋणहि लुटवाय ।
ऋषि ऋण हरता स्वयं तू, बांट खाय खिलवाय।। 1 ।।
तू जभी विघ्न आगम लखे, चीरे वस्त्र जलाय।
हरता संकट फोड़ घट, घातहि मार लगाय।। 2।।
धूनी की खुद भस्म दे, नाशत नाना रोग ।
तन मन को यों शुद्ध कर, सभी सधाता योग ।। 3 ।।
जो रक्षा तन की करै, जो जठराग्नि बढ़ाय।
जो रक्षे आयु तभी, रक्षा राख कहाय ।। 4।।
जो धूनी में देत खुद, कन्डा लकड़ी आप ।
उनके नाशत विघ्न तू, जारत तन के पाप ।। 5 ।।
धूनि सुधारत जो मनुज, उसे उच्च पद देत।
निश दिन सेवत जो उसे, सभी रोग हर लेत ।। 6 ।।
मले तेल घृत जो तुझे, भक्ति उसे निज देत ।
श्वान सुअर के जन्म सब, हरै मूत्र मल लेत ।। 7 ।।
देत ध्यान तब ज्ञान वर, पूजा दे सत्कार ।
तेरी सेवा देत सब, दया देत जन तार ।। 8 ।।
दीप हेत घृत तेल दे, जो दे दीपक जोय ।
पुत्र कामना होय तो, ता निर्वंश न होय ।। १ ।।
हो निष्कामी दीप जो, जोई करै प्रकाश।
उसके उर दे ज्ञान तू, करता तम का नाश ।। 10।।
जो झाड़ै दरबार तब, तू झाड़ै ता दोष ।
जो लीपै ता प्रेम से, तू लीपै ता दोष ।। 11।।
जो तेरे खुद नाम पर, जल पा अन्न खिलाय।
नाशत उसके घात अघ, देता भगा बलाय ।। 12 ।।
जो तव हित उत्सव करै, आप करै ता हेत।
धनी सुखी इस जन्म में, दिव्य जन्म पर देत ।। 13।।
कर्म करै तब हेत जो, सहस गुणाकर सोय।
ज्यों का त्यों वर भोग दे, दिव्य जन्म ता होय।। 14।।
जो विरक्त निष्काम हो, करै कर्म तब हेत।
उसका हरी अज्ञान सब, मुक्ति उसे तू देत ।। 15।।
तू ना चाहे काम कुछ, चहे भक्ति निष्काम।
निष्कामी ता भक्त के, स्वयं सुधारे काम।। 16 ।।
चाहे सच्चा प्रेम तू, कपट रहित व्यवहार ।
उसका तू खुद दास बन करता बेड़ा पार ।। 17।।
बैठ हजारों कोस जो, टेरे हो आसक्त ।
करत मदद तू झट उसे देखी सच्चा भक्त ।। 18 ।।
।। चौपाया ।।
जो जन सन्मुख हुक्म चलाय।
गाली दे या देय धकाय।। 1।।
करे बुराई मार भगाय।
वह जन तुझे तनक न भाय ।। 2 ।।
सन्मुख जो जन जिसे सताय।
उसका पातक उसे दिलाय।। 3 ।।
जिसका भोजन जो ले खाय।
उसका उसको पाप दिलाय।। 4 ।।
रहे मौन खा गाली मार।
ना मन जरे उसे दे तार ।। 5 ।।
आप अनेकों विधि बताय।
जन के पातक देत नसाय ।। 6 ।।
भण्डारा जितने जन खांय।
लें उतने ता पाप बटाय ।। 7।।
चूड़ी फोड़ी वैधव खोय।
ले टीकी पति चंगा होय ।। 8 ।।
उठत शक्ति के विपुल तरंग।
भले बुरे के वे घुस अंग ।। १ ।।
हो दूषित जब बाहर जाय।
लागत जिसे हानि पहुंचाय।। 10।।
उनसे तू झट देत बचाय।
इधर उधर ता जनहिं हटाय।। 11।।
बुरी घड़ी जब कोई आय।
जनहि बिठा खुद लेत भुगाय।। 12।।
घड़ी देख शुभ देत रजाय।
सिद्ध करत सब काम पठाय।। 13।।
दे रोटी तू जिसे खिलाय।
अन्न कष्ट वह कभी न पाय ।। 14।।
कहे किसे तू किसे सुनाय।
होनहार सब देत बताय।। 15।।
तब निश्चय ना राखे जोय।
उसे दिखे तू औरहि कोय।। 16।।
कपट प्रेम कर छल से आय।
वह जन तुझे तनक ना भाय।। 17।।
उसका जरा करै ना काम।
चाहे तुझे करै बदनाम।। 18।।
पापी चाहे जैसा होय।
शरण लखी तू राखे सोय।। 19।।
उसका साधे तू सब काम ।
जात पन्थ कुल लखे न धाम ।। 20 ।।
करै भक्ति जो जन जिस हेत।
वहीं वस्तु तू ताको देत।। 21 ।।
करनीवत भुगतावे भोग।
भला-बुरा ता सुख-दुख रोग।। 22।।
शरणागत उर दृढ़ता देख।
मारत स्वयं रेख पर मेख।। 23।।
किये पाप ले जन्म अनेक।
दे भुगता तू जन्महि एक ।। 24 ।।
एक जन्म के पाप जितेक।
तू भुगता दे वर्षहि एक ।। 25 ।।
वर्ष मास में, मास दिनेक।
मेटे दिन अघ पल में एक ।। 26।।
दण्ड देत तू बन यमराज ।
पाछे तूर्त सुधारे काज ।। 27 ।।
देख दण्ड जो नर भाग जाय।
बिलकुल कोरा वह रह जाए।। 28 ।।
धैर्य धरी जो खावे मार ।
निश्चय उसको तू दे तार ।। 29 ।।
बिना मार सब धर्मी पाय ।
बिन पढ़ा ज्ञानी हो जाय ।। 30 ।।
ऋद्धि-सिद्धि तू मुक्ति देत ।
दे निज भक्ति दुख हर लेत।। 31।।
तव आज्ञा ना माने जोय।
उसका कारज कभी न होय ।। 32।।
वह खावै फोकट में मार ।
तौभी करते कुछ उपकार ।। 33 ।।
बने जहां तक आज्ञा भंग।
करैं कभी ना तजै अडंग ।। 34।।
जितना सधै करे मन पाग।
निश्चय उसका खोले भाग ।। 35।।
जो जन राखै तब मर्याद।
राखै सदा उसे तू याद ।। 36 ।।
जो करता मर्यादा भंग।
उसको सदा करै तू तंग ।। 37 ।।
सृष्टि नियम वत तव मर्यादा।
सबको करै सदा आबाद।। 38 ।।
जो नर जाकी निन्दा करै।
ताको पातक ता सिर धरै।। 39।।
चोरी जारी जो जस करें।
सो जस ताको फल अनुसरै ।। 40।।
जो जन सन्मुख हुक्म चलाय।
गाली दे या देय धकाय।। 1।।
करे बुराई मार भगाय।
वह जन तुझे तनक न भाय ।। 2 ।।
सन्मुख जो जन जिसे सताय।
उसका पातक उसे दिलाय।। 3 ।।
जिसका भोजन जो ले खाय।
उसका उसको पाप दिलाय।। 4 ।।
रहे मौन खा गाली मार।
ना मन जरे उसे दे तार ।। 5 ।।
आप अनेकों विधि बताय।
जन के पातक देत नसाय ।। 6 ।।
भण्डारा जितने जन खांय।
लें उतने ता पाप बटाय ।। 7।।
चूड़ी फोड़ी वैधव खोय।
ले टीकी पति चंगा होय ।। 8 ।।
उठत शक्ति के विपुल तरंग।
भले बुरे के वे घुस अंग ।। १ ।।
हो दूषित जब बाहर जाय।
लागत जिसे हानि पहुंचाय।। 10।।
उनसे तू झट देत बचाय।
इधर उधर ता जनहिं हटाय।। 11।।
बुरी घड़ी जब कोई आय।
जनहि बिठा खुद लेत भुगाय।। 12।।
घड़ी देख शुभ देत रजाय।
सिद्ध करत सब काम पठाय।। 13।।
दे रोटी तू जिसे खिलाय।
अन्न कष्ट वह कभी न पाय ।। 14।।
कहे किसे तू किसे सुनाय।
होनहार सब देत बताय।। 15।।
तब निश्चय ना राखे जोय।
उसे दिखे तू औरहि कोय।। 16।।
कपट प्रेम कर छल से आय।
वह जन तुझे तनक ना भाय।। 17।।
उसका जरा करै ना काम।
चाहे तुझे करै बदनाम।। 18।।
पापी चाहे जैसा होय।
शरण लखी तू राखे सोय।। 19।।
उसका साधे तू सब काम ।
जात पन्थ कुल लखे न धाम ।। 20 ।।
करै भक्ति जो जन जिस हेत।
वहीं वस्तु तू ताको देत।। 21 ।।
करनीवत भुगतावे भोग।
भला-बुरा ता सुख-दुख रोग।। 22।।
शरणागत उर दृढ़ता देख।
मारत स्वयं रेख पर मेख।। 23।।
किये पाप ले जन्म अनेक।
दे भुगता तू जन्महि एक ।। 24 ।।
एक जन्म के पाप जितेक।
तू भुगता दे वर्षहि एक ।। 25 ।।
वर्ष मास में, मास दिनेक।
मेटे दिन अघ पल में एक ।। 26।।
दण्ड देत तू बन यमराज ।
पाछे तूर्त सुधारे काज ।। 27 ।।
देख दण्ड जो नर भाग जाय।
बिलकुल कोरा वह रह जाए।। 28 ।।
धैर्य धरी जो खावे मार ।
निश्चय उसको तू दे तार ।। 29 ।।
बिना मार सब धर्मी पाय ।
बिन पढ़ा ज्ञानी हो जाय ।। 30 ।।
ऋद्धि-सिद्धि तू मुक्ति देत ।
दे निज भक्ति दुख हर लेत।। 31।।
तव आज्ञा ना माने जोय।
उसका कारज कभी न होय ।। 32।।
वह खावै फोकट में मार ।
तौभी करते कुछ उपकार ।। 33 ।।
बने जहां तक आज्ञा भंग।
करैं कभी ना तजै अडंग ।। 34।।
जितना सधै करे मन पाग।
निश्चय उसका खोले भाग ।। 35।।
जो जन राखै तब मर्याद।
राखै सदा उसे तू याद ।। 36 ।।
जो करता मर्यादा भंग।
उसको सदा करै तू तंग ।। 37 ।।
सृष्टि नियम वत तव मर्यादा।
सबको करै सदा आबाद।। 38 ।।
जो नर जाकी निन्दा करै।
ताको पातक ता सिर धरै।। 39।।
चोरी जारी जो जस करें।
सो जस ताको फल अनुसरै ।। 40।।
।। दोहा ।।
भूखा प्यासा तू रखी, ताय तपाय दबाय।
सांच झूठ की जांच कर, देता ज्ञान बताय ।। 1।।
आने दे तू पास ना, दे गाली दे मार ।
करी निराशा देत तू, भक्तहि को निज तार ।। 2 ।।
औरों की करतूत पर, जो ना धरता ध्यान।
पड़ा रहै दुःख भोग ले, तभी देत तू ज्ञान ।। 3 ।।
हम सब तेरे पुत्र हैं, तू हम सबका बाप ।
तू ही पढ़ाता पालता, तू ही बचाता आप ।। 4 ।।
भूखा प्यासा तू रखी, ताय तपाय दबाय।
सांच झूठ की जांच कर, देता ज्ञान बताय ।। 1।।
आने दे तू पास ना, दे गाली दे मार ।
करी निराशा देत तू, भक्तहि को निज तार ।। 2 ।।
औरों की करतूत पर, जो ना धरता ध्यान।
पड़ा रहै दुःख भोग ले, तभी देत तू ज्ञान ।। 3 ।।
हम सब तेरे पुत्र हैं, तू हम सबका बाप ।
तू ही पढ़ाता पालता, तू ही बचाता आप ।। 4 ।।
।। मन्त्र सन्ध्यागत ।।
आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागर ।
सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ।। 1।।
आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागर ।
सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ।। 1।।
|| इति शुभम् ||
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