।। श्री गणेशाय नमः ।।
श्री दादा दशक
।। भाग 9 वा ।।
केशव विनय
केशव प्रेरित जो लखे, केशव के गुण कर्म।
विनय रूप से सो कहे, शरण हुए हित मर्म ।। 1 ।।
नित्य पढ़े जो ध्यान दे, प्रेम सहित छै मास ।
करै कृपा दादा हरी, हरेँ सभी दुख त्रास ।। 2 ।।
हरि ॐ हर
श्री स्वामी केशवानंद की जय।
श्री स्वयं दत्त अवधूत की जय।
श्री धूनी वाले दादाजी की जय ।
श्री डंडे वाले दादाजी की जय ।
केशव विनय
।। पूर्वाद्ध ।।
त्रिभंग छंद
श्री कृष्णानंदा, आनंदाकंदा, नमो मकुन्दा, अविकारी। सच्चिदानंदा, परमानन्दा, केशवानन्दा, मदनारी ।।
श्री भानूछन्दा, शीर्षहिं चन्दा, स्कन्दहि दण्डा तमहारी ।।
श्री धूनी वाले दादाजी की जय ।
श्री डंडे वाले दादाजी की जय ।
केशव विनय
।। पूर्वाद्ध ।।
त्रिभंग छंद
श्री कृष्णानंदा, आनंदाकंदा, नमो मकुन्दा, अविकारी। सच्चिदानंदा, परमानन्दा, केशवानन्दा, मदनारी ।।
श्री भानूछन्दा, शीर्षहिं चन्दा, स्कन्दहि दण्डा तमहारी ।।
अंगे सुगन्धा, नग्न निबन्धा, काटे कुद्वन्दा, भवपारी ।।
।। अर्थ ।।
हे कृष्णानंद रूप दादाजी आप आनंद के देने वाले, असत्य के नसाने वाले विकार रहित, सच्चिदानन्द रूप, परमानन्द रूप, केशवानन्द रूप कामदेव के नसाने वाले हो। आप सूर्य रूपी घेरे से घिर हुए हो, आपके मस्तक पर चन्द्रमा और कांधे पर दण्डा विराजता है। सिवाय आप अज्ञानके नसाने वाले हो, आपके अंग से सुन्दर सुगन्ध निकला करती है, आप सदा नंगे रहते हो, आप भव बन्धनों से मुक्त हो। आप संसार के विघ्न और दंद-फन्दों को काटने वाले हो तथा आप भवसागर के पार करने वाले हो, ऐसे आप को मेरा प्रणाम है।
(1)
।। भुजंग प्रयात् ।।
नमो स्वामी श्री केशवानन्द दादा,
पुनः भुजंग प्रयात्
तुझे भू न रोकी, सके जी न तोकी।
सके आग धोकी, न पानी डबोकी ।।
न वायू उड़ोकी न आकाश झोकी।
नमो त्राहि दादा स्वयं तू बिशोकी ।। 1 ।।
तुझे ना सके सो, महाशक्ति सोखी।
महातत्व विद्यान, सोवज्रभोकी।।
सभी दास तेरे, तरैं नाम घोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ॥ 2 ॥
सके वायु छाया, प्रभा मेघ रोकी।
जभी तू चहे दे, स्वयं नीर धोकी।
जले तुल्य घी हो, तले माललौकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।। ३ ।।
अहीश्वान बिच्छू, शिवा आदिकों की।
विषैली उड़ाके, रखे देह रोकी ।।
सड़ी हो कटी हो, जिलाता, मरोंकी।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ॥4 ।।
जला नीर से दे, जली आग रोकी।
बुझादेत कोशों, वही लौ घरों की ।।
बिठा आग में, ठंड देवे हिमोंकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।5।।
क्रियाएं अनेकों करे तू रसों की।
तुझे छोड़ भोक्ता, दिखे ना त्रिलोकी ॥
सके जो जराखा, स्वयं तुल्यजौकी ।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ।।6।।
चले शक्ति तेरे, सहारे सबों की।
पचा अन्न पानी, बना रक्त कोखी ।।
सदाकाल रक्षा, करै इन्द्रियों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।7।।
बिना आग यों ही, जलादे बिलोकी।
चहे लौ, न पाके, कणी चावलों की ।।
पकादेत तू वस्तु छू भोजनों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।। 8 ।।
पवी भस्म माटी, विषों बोतलों की।
तथा मूत्र विष्टा, गुली आदिकों की ।।
करै शर्करा, मालखोवा बिलोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।9।।
तुही विश्वकर्मा स्वयं अग्नि चोखी।
करै कर्म सारे, प्रकाशे त्रिलोकी ।।
सदा तू करें, व्यापार रक्षा सबोंकी।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ।।10।।
चहे तू तभी ना, घटे माल थोकी।
सके तू धरा के सभी विघ्न रोकी ।।
लिखावे, दिखावे, पढ़ावे बिलोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तु विशोकी ।।11।।
बचावे जिसे तू, न नाशे त्रिलोकी।
नसावे जिसे तू. सके कौन रोको ।।
सभी ठाम रक्षा, करें तू जनों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तु विशोकी ।। 12।।
॥ अर्थ ॥
1- तुझको पृथ्वी रोक नहीं सकती, कोई जीव तुझको उठा नहीं सकता, आग तुझको जला नहीं सकती, न पानी तुझको डुबो सकता है, न वायु तुझको उड़ा सकती है, न आकाश तुझको धका सकता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
2 तुझे महाशक्ति भी सोख नहीं सकती, न महातत्व, न महाविद्या, न इन्द्र का वज्र भी तुझे छेद सकता है, तेरे सभी दास तेरा नाम लेकर तर जाते हैं। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
3- जब चाहे तब तू वायु, छाया, प्रकाश, बादल या वर्षा को रोक सकता है और जब चाहे तब पानी बरसा सकता है व पानी को भी घी के समान जला सकता तथा पानी में भी मालपुआ आदि तल सकता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
4- सर्प, कुत्ते, बिच्छू, गीदड़ आदि विषैले जानवरों का विष हटा कर देह को तू बचा सकता है। बल्कि सड़ी देह को, कटी देह को तथा नष्ट हुई देह को जिला सकता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
5- तू जल के द्वारा जला सकता है और जली आग को रोक सकता है। बल्कि सैकड़ों कोस की लगी हुई आग को बुझा सकता है। तू आग में बैठाकर बर्फ के समान उण्डा कर देता है। है शोक रहित(आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
6- तू अनेक प्रकार के रसों की क्रियाएं भी करता है। तुझे छोड़ तीन लोक में भी कोई अन्य भोक्ता दिखाई नहीं देता, जो जरा सा जौ के तुल्य भी स्वयं खा सके। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
7- सबकी शक्ति केवल तेरे सहारे चलती है तू ही उदरगत अन्न-पानी को पचा कर रक्त बनाता है और तू ही उस रक्त के द्वारा सदा सर्वदा इन्द्रियों की रक्षा करता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
8- तू देखते ही बिना आग के जला सकता है, चाहे तो लगातार अग्नि की ज्वाला लगाने पर भी चावल के एक कण तक को नहीं पकने दे सकता, और चाहे तो खाने-पीने की सामग्री को छूने मात्र से पका सकता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं
मुझ शरणागत की रक्षा कर, मे तुझे नमस्कार करता हूँ। 9- तू पत्थर, राख, मिट्टी, विष, काँच, मूत्र, विष्टा तथा गुठली आदि को देखने मात्र से शक्कर, खोवा, मिष्ठान्न आदि बना देता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तु स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, में तुझ नमस्कार करता है।
10- तू ही विश्वकर्मा है, तू ही शुद्ध अग्नि है, तू ही सब काम करने वाला और तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला है तथा तू ही सब में व्याप कर सदा सब की रक्षा करता है. इसलिए है शोक रहित(आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
11- जब तू चाहे तब इकट्ठे किये माल को या भंडार को कम नहीं होने देता अर्थात् अटूट कर देता है। तू पृथ्वी पर के सभी विघ्नों को निवृत्त कर सकता है। तू दृष्टि मात्र से लिखाता, दिखाता और पढ़ाता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
12- हे दादा ! जिसे तू बचाता है, उसे कोई तीन लोक में भी तू नहीं नसा सकता, और जिसे तू नसाता है, उसे कोई तीन लोक में भी नहीं बचा सकता। बल्कि तू ही अपने भक्तों की सदा सर्वत्र रक्षा करता है । हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
(1)
।। तोटक छन्द ।।
निज दासहि ज्ञान करावत हो।
खुद दे वर देव बनावत हो ।
जन भक्त सभी अपनावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 1।।
सब योग त्रियोग सधावत हो।
सब ज्ञान विज्ञान करावत हो ।
निज रूप स्वयं दिखलावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 2 ।।
जन जो नित केशव ध्यावत हो।
गुण गावत सीस नवावत हो।
उसको सब आप दिलावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 3 ।।
भटकी दुःख पावत डूबत हो।
जन संकट में पड़ ध्यावत हो ।
उसको झट बचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 4 ।।
जनकी हठ व्यर्थ नसावत हो।
जिनको घर लावन चाहत हो ।
बिन मार्ग चले पहुँचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 5 ।।
धर रूप अनेकन जावत हो।
जनके घर भोजन पावत हो
सब चीज उसे पहुँचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 6 ।।
बहु भाँति यदा डरपावत हो।
मन को परिपक्व बनावत हो।
उरगर्व हरी उर लावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 7।।
जन भाव गहीं जस ध्यावत हो।
उसको तस आप लखावत हो।
फल तद्वत ताहि चखावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 8 ।।
बनि माँ क्षुत प्यास भगावत हो।
बनि बाप सभी दिलवावत हो ।
भय में बनि भ्रात रखावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 9 ।।
हिय मित्र बनी हुलसावत हो।
बन स्वामि सुपंथ चलावत हो।
गुरु हो तम नाशि प्रकाशत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 10।।
यम हो सब पाप भगावत हो।
बनि धर्म सनातन राखत हो।
बन न्यायपति सुलझावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो।। 11 ।।
बन वैद्य सभी रुज नाशत हो।
अवधूत बनी जन तारत हो।
वन दत्त सभी दिलवावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो।। 12 ।।
॥ अर्थ ॥
1-- हे दादा जी आप अपने दास को निज रूप का ज्ञान कराते हो उसे वर देकर दिव्य देव तुल्य बनाते हो। आप अपने सभी भक्तों को अपनाते हो इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता है, कृपा करके सदा रक्षा करो।
2-- हे दादाजी आप सभी प्रकार के योग और योग क्रय साधन को सधाते हो। सब प्रकार का ज्ञान और विज्ञान प्राप्त कराते हो तथा निज रूप को स्वयं दिखलाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
3-- हे केशव जो भक्त आपको नित्य ध्याते हैं, गुण गाते हैं शीश नवाते हैं उन सबको आप कुछ दिलाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
4- • हे दादाजी जो भक्त भटक कर दुख पाता हो, डूब रहा हो एवं संकट में पड़कर आपको ध्याता हो उसको आप झट से बचा लेते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
5- · हे दादाजी आप भक्त की निर्थक हठ को नसाते हो और जिनको मुकाम पर पहुँचाना चाहते हो, उन्हें बिना मार्ग चले ही पहुँचा देते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
6-- हे दादाजी आप अनेक रूप धर लेते हो और भक्तों के घर जाकर भोजन पाते हो और उन्हें सब चीज प्राप्त कराते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
7-- हे दादाजी यद्यपि आप भक्तों को अनेक प्रकार से डराने हो, उसी युक्ति से भक्तों के मन को पक्का कराते हो, उनके हृदय का गर्व हरके उन्हें निज हृदय से लगाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
8-- हे दादाजी जो भक्त जिस भाव से आपको ध्याता हो, उसे आप वैसे ही दिख पड़ते हो और उसे वैसा ही फल प्राप्त कराते हो इसलिए हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
9-- हे दादाजी आप माँ बनकर भक्त की भूख-प्यास भगाते हो, बाप बनकर उसे सभी दिलाते हो तथा भाई बनकर भय से बचाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
10-- हे दादाजी आप हार्दिक मित्र बनकर हृदय को हुलसाते हो, सुस्वामी बनकर सुपंथ से चलाते हो तथा सद्गुरु बनकर अज्ञान अंधकार को भगाकर हृदय में प्रकाश कर देते हो। इसलिये हे दादाजी, मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हू, कृपा करके सदा रक्षा करो।
11- हे दादाजी, आप यमराज होकर दण्ड द्वारा सब पाप भगाते हो, स्वयं धर्मराज बनकर सनातन धर्म की रक्षा करते हो तथा न्यायाधीश बनकर उलझे न्याय को सुलझाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूं , कृपा करके सदा रक्षा करो।
12-- हे दादाजी आप वैद्यराज बनकर सभी रोगों को नसाते हो तथा अवधूत बन निज भक्तों को तारते हो और स्वयं दत्त बनकर सभी वस्तु दिलाते हो इसलिए हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
।। अर्थ ।।
हे कृष्णानंद रूप दादाजी आप आनंद के देने वाले, असत्य के नसाने वाले विकार रहित, सच्चिदानन्द रूप, परमानन्द रूप, केशवानन्द रूप कामदेव के नसाने वाले हो। आप सूर्य रूपी घेरे से घिर हुए हो, आपके मस्तक पर चन्द्रमा और कांधे पर दण्डा विराजता है। सिवाय आप अज्ञानके नसाने वाले हो, आपके अंग से सुन्दर सुगन्ध निकला करती है, आप सदा नंगे रहते हो, आप भव बन्धनों से मुक्त हो। आप संसार के विघ्न और दंद-फन्दों को काटने वाले हो तथा आप भवसागर के पार करने वाले हो, ऐसे आप को मेरा प्रणाम है।
(1)
।। भुजंग प्रयात् ।।
नमो स्वामी श्री केशवानन्द दादा,
नसाते सभी पाप त्रैताप बाधा।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 1 ।।
जनों के अनेकों हरो दोष गाता,
अज्ञानी जनों के स्वयं ज्ञानदाता।
नमो त्राहि दादा पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 2 ।।
सभी ऋद्धियां के सिद्धियां के प्रदाता,
पराभक्ति सामुक्ति के आप दाता ।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।3।।
हरो जन्म मुत्यु अनेकों विधाता,
स्वयं आप संसार में एक त्राता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।4।।
जनों के पिता आप माता सुभ्राता,
स्वयं मित्र स्वामी सुत्राता सुताता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।5।।
महादृष्टि मदान्ध के दृष्टि दाता,
सजन्मान्ध के आप आँखें प्रदाता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।6।।
किये मूक वाचाल पंगूस पादा,
सकुष्टी अकुष्टी कियेदे सुगाता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।7।।
अपस्मार धातु विकारादि घाता,
तनाघात अर्द्धांग रोगादि घ्नाता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 8।।
सुतार्थी धनार्थी सकामी अनाथा,
दयादृष्टि से सो फलाभिष्ट पाता।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।।9।।
महाशान्ति सन्तोष विद्या सुदाता,
हरो शोक संताप आनन्द दाता ।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 10।।
अहोनी सहोनी सभी हाथ दादा,
मरों को जिला भी सको आप दादा।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 11 ।।
अहंकार नाशो करीहुं विनादा,
स्वयं आप हुंकार भानू प्रभादाः।
नमो त्राहि दादा नमो पाहि दादा,
नमो मैं नमो मैं नमो पद्यपादा ।। 12 ।।
।। अर्थ ।।
1- हे स्वामी श्री केशवानन्द दादा, आपको मैं प्रणाम करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, आप सभी पाप, तीन प्रकार के ताप और सभी बाधाओं को नसाने वाले हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
2- आप मनुष्यों के अनेक प्रकार के दोष याने पाप और शरीर के विकारों का हरण करते हो और अज्ञानी मनुष्यों को आप खुद अपने स्वरूप का ज्ञान करा देते हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ। प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ इसलिए आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
3- आप सभी ऋद्धि-सिद्धि के दाता हो, परा भक्ति और सायुज्य मुक्ति के दाता हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
4- आप जन्म, मृत्यु और अनेक प्रकार के घातों को नसाने वाले हो, आप खुद संसार में सबके एक ही बचाने वाले हो। हे दादा ! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
5- आप भक्तों के पिता हैं, आप ही माता आप ही भ्राता हैं, आप ही मित्र हैं, आप ही स्वामी हैं, आप ही पूरे सच्चे रक्षक हैं, और आप ही सब के तात हैं। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
6- जिनकी अत्यन्त मन्द दृष्टि है अर्थात् जिनको दिखाई नहीं देता, उन्हें दृष्टि देने वाले हो, और जो जन्म ही से अन्धे हैं, उनको भी आँखें देने वाले हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
7- आपने गूंगों को भी बुला दिया, पंगुओं को चला दिया कुष्ट रोगियों को कुष्ट रहित करके सुंदर शरीर वाला कर दिया। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ, इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
8- आप मिरगी, धातु के विकार आदिघात तथा लकवा, अर्द्धांग आदि रोगों के नसाने वाले हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
9- पुत्र की कामना वाले धन की कामना वाले सभी कामना वाले, अनाथों को भी आपकी दया दृष्टि से इच्छित फल मिल जाता है। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ। प्रणाम करता है, दण्डवत करता है। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता है, कृपा करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
10- अत्यन्त शान्ति, सन्तोष तथा सभी विद्याओं के आप देने वाले हो। आप सभी शोक, सन्ताप के हरने वाले हो और आनन्द के. देने वाले हो । हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
11- हे दादा! आपके हाथ में सभी होने वाली और न होने वाली बातें हैं, आप मरों तक को जिन्दा कर सकते हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ, इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
12- आप अपने “हूँ" नाद के द्वारा मेरा अहंकार नाश करो, क्योंकि आप स्वयं हुंकार रूप होकर सूर्य के समान प्रकाश करने वाले हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
।। अर्थ ।।
1- हे स्वामी श्री केशवानन्द दादा, आपको मैं प्रणाम करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, आप सभी पाप, तीन प्रकार के ताप और सभी बाधाओं को नसाने वाले हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
2- आप मनुष्यों के अनेक प्रकार के दोष याने पाप और शरीर के विकारों का हरण करते हो और अज्ञानी मनुष्यों को आप खुद अपने स्वरूप का ज्ञान करा देते हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ। प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ इसलिए आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
3- आप सभी ऋद्धि-सिद्धि के दाता हो, परा भक्ति और सायुज्य मुक्ति के दाता हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
4- आप जन्म, मृत्यु और अनेक प्रकार के घातों को नसाने वाले हो, आप खुद संसार में सबके एक ही बचाने वाले हो। हे दादा ! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
5- आप भक्तों के पिता हैं, आप ही माता आप ही भ्राता हैं, आप ही मित्र हैं, आप ही स्वामी हैं, आप ही पूरे सच्चे रक्षक हैं, और आप ही सब के तात हैं। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
6- जिनकी अत्यन्त मन्द दृष्टि है अर्थात् जिनको दिखाई नहीं देता, उन्हें दृष्टि देने वाले हो, और जो जन्म ही से अन्धे हैं, उनको भी आँखें देने वाले हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
7- आपने गूंगों को भी बुला दिया, पंगुओं को चला दिया कुष्ट रोगियों को कुष्ट रहित करके सुंदर शरीर वाला कर दिया। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ, इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
8- आप मिरगी, धातु के विकार आदिघात तथा लकवा, अर्द्धांग आदि रोगों के नसाने वाले हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
9- पुत्र की कामना वाले धन की कामना वाले सभी कामना वाले, अनाथों को भी आपकी दया दृष्टि से इच्छित फल मिल जाता है। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ। प्रणाम करता है, दण्डवत करता है। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता है, कृपा करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
10- अत्यन्त शान्ति, सन्तोष तथा सभी विद्याओं के आप देने वाले हो। आप सभी शोक, सन्ताप के हरने वाले हो और आनन्द के. देने वाले हो । हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
11- हे दादा! आपके हाथ में सभी होने वाली और न होने वाली बातें हैं, आप मरों तक को जिन्दा कर सकते हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ, इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
12- आप अपने “हूँ" नाद के द्वारा मेरा अहंकार नाश करो, क्योंकि आप स्वयं हुंकार रूप होकर सूर्य के समान प्रकाश करने वाले हो। हे दादा! मैं आपके कमल-रूपी चरणों में नमस्कार करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत् करता हूँ। इसलिये आप मुझ शरणागत की रक्षा करो। आपको मैं नमस्कार करता हूँ, कृपा-दृष्टि करके मेरी रक्षा करो, आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
(2)
पुनः भुजंग प्रयात्
तुझे भू न रोकी, सके जी न तोकी।
सके आग धोकी, न पानी डबोकी ।।
न वायू उड़ोकी न आकाश झोकी।
नमो त्राहि दादा स्वयं तू बिशोकी ।। 1 ।।
तुझे ना सके सो, महाशक्ति सोखी।
महातत्व विद्यान, सोवज्रभोकी।।
सभी दास तेरे, तरैं नाम घोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ॥ 2 ॥
सके वायु छाया, प्रभा मेघ रोकी।
जभी तू चहे दे, स्वयं नीर धोकी।
जले तुल्य घी हो, तले माललौकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।। ३ ।।
अहीश्वान बिच्छू, शिवा आदिकों की।
विषैली उड़ाके, रखे देह रोकी ।।
सड़ी हो कटी हो, जिलाता, मरोंकी।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ॥4 ।।
जला नीर से दे, जली आग रोकी।
बुझादेत कोशों, वही लौ घरों की ।।
बिठा आग में, ठंड देवे हिमोंकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।5।।
क्रियाएं अनेकों करे तू रसों की।
तुझे छोड़ भोक्ता, दिखे ना त्रिलोकी ॥
सके जो जराखा, स्वयं तुल्यजौकी ।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ।।6।।
चले शक्ति तेरे, सहारे सबों की।
पचा अन्न पानी, बना रक्त कोखी ।।
सदाकाल रक्षा, करै इन्द्रियों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।7।।
बिना आग यों ही, जलादे बिलोकी।
चहे लौ, न पाके, कणी चावलों की ।।
पकादेत तू वस्तु छू भोजनों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।। 8 ।।
पवी भस्म माटी, विषों बोतलों की।
तथा मूत्र विष्टा, गुली आदिकों की ।।
करै शर्करा, मालखोवा बिलोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तू विशोकी ।।9।।
तुही विश्वकर्मा स्वयं अग्नि चोखी।
करै कर्म सारे, प्रकाशे त्रिलोकी ।।
सदा तू करें, व्यापार रक्षा सबोंकी।
नमो त्राहिदादा, स्वयं तू विशोकी ।।10।।
चहे तू तभी ना, घटे माल थोकी।
सके तू धरा के सभी विघ्न रोकी ।।
लिखावे, दिखावे, पढ़ावे बिलोकी।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तु विशोकी ।।11।।
बचावे जिसे तू, न नाशे त्रिलोकी।
नसावे जिसे तू. सके कौन रोको ।।
सभी ठाम रक्षा, करें तू जनों की।
नमो त्राहि दादा, स्वयं तु विशोकी ।। 12।।
॥ अर्थ ॥
1- तुझको पृथ्वी रोक नहीं सकती, कोई जीव तुझको उठा नहीं सकता, आग तुझको जला नहीं सकती, न पानी तुझको डुबो सकता है, न वायु तुझको उड़ा सकती है, न आकाश तुझको धका सकता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
2 तुझे महाशक्ति भी सोख नहीं सकती, न महातत्व, न महाविद्या, न इन्द्र का वज्र भी तुझे छेद सकता है, तेरे सभी दास तेरा नाम लेकर तर जाते हैं। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
3- जब चाहे तब तू वायु, छाया, प्रकाश, बादल या वर्षा को रोक सकता है और जब चाहे तब पानी बरसा सकता है व पानी को भी घी के समान जला सकता तथा पानी में भी मालपुआ आदि तल सकता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
4- सर्प, कुत्ते, बिच्छू, गीदड़ आदि विषैले जानवरों का विष हटा कर देह को तू बचा सकता है। बल्कि सड़ी देह को, कटी देह को तथा नष्ट हुई देह को जिला सकता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
5- तू जल के द्वारा जला सकता है और जली आग को रोक सकता है। बल्कि सैकड़ों कोस की लगी हुई आग को बुझा सकता है। तू आग में बैठाकर बर्फ के समान उण्डा कर देता है। है शोक रहित(आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
6- तू अनेक प्रकार के रसों की क्रियाएं भी करता है। तुझे छोड़ तीन लोक में भी कोई अन्य भोक्ता दिखाई नहीं देता, जो जरा सा जौ के तुल्य भी स्वयं खा सके। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
7- सबकी शक्ति केवल तेरे सहारे चलती है तू ही उदरगत अन्न-पानी को पचा कर रक्त बनाता है और तू ही उस रक्त के द्वारा सदा सर्वदा इन्द्रियों की रक्षा करता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
8- तू देखते ही बिना आग के जला सकता है, चाहे तो लगातार अग्नि की ज्वाला लगाने पर भी चावल के एक कण तक को नहीं पकने दे सकता, और चाहे तो खाने-पीने की सामग्री को छूने मात्र से पका सकता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं
मुझ शरणागत की रक्षा कर, मे तुझे नमस्कार करता हूँ। 9- तू पत्थर, राख, मिट्टी, विष, काँच, मूत्र, विष्टा तथा गुठली आदि को देखने मात्र से शक्कर, खोवा, मिष्ठान्न आदि बना देता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तु स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, में तुझ नमस्कार करता है।
10- तू ही विश्वकर्मा है, तू ही शुद्ध अग्नि है, तू ही सब काम करने वाला और तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला है तथा तू ही सब में व्याप कर सदा सब की रक्षा करता है. इसलिए है शोक रहित(आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
11- जब तू चाहे तब इकट्ठे किये माल को या भंडार को कम नहीं होने देता अर्थात् अटूट कर देता है। तू पृथ्वी पर के सभी विघ्नों को निवृत्त कर सकता है। तू दृष्टि मात्र से लिखाता, दिखाता और पढ़ाता है। हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
12- हे दादा ! जिसे तू बचाता है, उसे कोई तीन लोक में भी तू नहीं नसा सकता, और जिसे तू नसाता है, उसे कोई तीन लोक में भी नहीं बचा सकता। बल्कि तू ही अपने भक्तों की सदा सर्वत्र रक्षा करता है । हे शोक रहित (आनन्द रूप) दादा, तू स्वयं मुझ शरणागत की रक्षा कर, मैं तुझे नमस्कार करता हूँ।
(1)
।। तोटक छन्द ।।
निज दासहि ज्ञान करावत हो।
खुद दे वर देव बनावत हो ।
जन भक्त सभी अपनावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 1।।
सब योग त्रियोग सधावत हो।
सब ज्ञान विज्ञान करावत हो ।
निज रूप स्वयं दिखलावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 2 ।।
जन जो नित केशव ध्यावत हो।
गुण गावत सीस नवावत हो।
उसको सब आप दिलावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 3 ।।
भटकी दुःख पावत डूबत हो।
जन संकट में पड़ ध्यावत हो ।
उसको झट बचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 4 ।।
जनकी हठ व्यर्थ नसावत हो।
जिनको घर लावन चाहत हो ।
बिन मार्ग चले पहुँचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 5 ।।
धर रूप अनेकन जावत हो।
जनके घर भोजन पावत हो
सब चीज उसे पहुँचावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 6 ।।
बहु भाँति यदा डरपावत हो।
मन को परिपक्व बनावत हो।
उरगर्व हरी उर लावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 7।।
जन भाव गहीं जस ध्यावत हो।
उसको तस आप लखावत हो।
फल तद्वत ताहि चखावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 8 ।।
बनि माँ क्षुत प्यास भगावत हो।
बनि बाप सभी दिलवावत हो ।
भय में बनि भ्रात रखावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 9 ।।
हिय मित्र बनी हुलसावत हो।
बन स्वामि सुपंथ चलावत हो।
गुरु हो तम नाशि प्रकाशत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो ।। 10।।
यम हो सब पाप भगावत हो।
बनि धर्म सनातन राखत हो।
बन न्यायपति सुलझावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो।। 11 ।।
बन वैद्य सभी रुज नाशत हो।
अवधूत बनी जन तारत हो।
वन दत्त सभी दिलवावत हो।
निज पाहि नमो शरणागत हो।। 12 ।।
॥ अर्थ ॥
1-- हे दादा जी आप अपने दास को निज रूप का ज्ञान कराते हो उसे वर देकर दिव्य देव तुल्य बनाते हो। आप अपने सभी भक्तों को अपनाते हो इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता है, कृपा करके सदा रक्षा करो।
2-- हे दादाजी आप सभी प्रकार के योग और योग क्रय साधन को सधाते हो। सब प्रकार का ज्ञान और विज्ञान प्राप्त कराते हो तथा निज रूप को स्वयं दिखलाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
3-- हे केशव जो भक्त आपको नित्य ध्याते हैं, गुण गाते हैं शीश नवाते हैं उन सबको आप कुछ दिलाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
4- • हे दादाजी जो भक्त भटक कर दुख पाता हो, डूब रहा हो एवं संकट में पड़कर आपको ध्याता हो उसको आप झट से बचा लेते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
5- · हे दादाजी आप भक्त की निर्थक हठ को नसाते हो और जिनको मुकाम पर पहुँचाना चाहते हो, उन्हें बिना मार्ग चले ही पहुँचा देते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
6-- हे दादाजी आप अनेक रूप धर लेते हो और भक्तों के घर जाकर भोजन पाते हो और उन्हें सब चीज प्राप्त कराते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
7-- हे दादाजी यद्यपि आप भक्तों को अनेक प्रकार से डराने हो, उसी युक्ति से भक्तों के मन को पक्का कराते हो, उनके हृदय का गर्व हरके उन्हें निज हृदय से लगाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
8-- हे दादाजी जो भक्त जिस भाव से आपको ध्याता हो, उसे आप वैसे ही दिख पड़ते हो और उसे वैसा ही फल प्राप्त कराते हो इसलिए हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
9-- हे दादाजी आप माँ बनकर भक्त की भूख-प्यास भगाते हो, बाप बनकर उसे सभी दिलाते हो तथा भाई बनकर भय से बचाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
10-- हे दादाजी आप हार्दिक मित्र बनकर हृदय को हुलसाते हो, सुस्वामी बनकर सुपंथ से चलाते हो तथा सद्गुरु बनकर अज्ञान अंधकार को भगाकर हृदय में प्रकाश कर देते हो। इसलिये हे दादाजी, मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हू, कृपा करके सदा रक्षा करो।
11- हे दादाजी, आप यमराज होकर दण्ड द्वारा सब पाप भगाते हो, स्वयं धर्मराज बनकर सनातन धर्म की रक्षा करते हो तथा न्यायाधीश बनकर उलझे न्याय को सुलझाते हो। इसलिये हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूं , कृपा करके सदा रक्षा करो।
12-- हे दादाजी आप वैद्यराज बनकर सभी रोगों को नसाते हो तथा अवधूत बन निज भक्तों को तारते हो और स्वयं दत्त बनकर सभी वस्तु दिलाते हो इसलिए हे दादाजी मैं आपकी शरण होकर आपको प्रणाम करता हूँ, कृपा करके सदा रक्षा करो।
(2)
।। पुनः तोटक छन्द ।।
जनके द्रुत केशव केश गही।
फिर वे खुद काट सुकेश लही।
नित यज्ञ करें हवि केश वही।
प्रभु पाहि नमोपद त्राहि कही ।। 1।।
बन काल स्वयं जन केश गहैं।
फिर काटत हो खुद होय महे ।।
तत् होम करी त्रय ताप दहैं।
प्रभु पाहि नमो पद त्राहि महे ।। 2 ।।
शिव, केशव हो शव रुण्ड धरैं।
अघ ताप अधी शव रुप करें ।।
शव को खुद आप सजीव करैं।
प्रभु पाहि नमोपद त्राहि हरे ।। 3 ।।
सब केशव ही कर काम सके।
बल ज्ञान सुधा सब दे वश के ।।
भव उद्धर उद्भव लोप शके।
प्रभु पाहि नमो सब तार शके ।। 4 ।।
वश केशव के भव शक्ति सभी।
सब शीघ्र शके कर काम तभी ।।
कुछ भी न पड़े तब भूल कभी।
प्रभु पाहि नमो पद अर्प सभी ।। 5 ।।
सब केशव के वश शक्ति सभी।
रुचि तुल्य नचावत लोक तभी ।।
जन अन्य न घी सक प्रेरक भी।
प्रभु पाहि नमो पद अर्प सभी ।। 6 ।।
यह केशव ईशत लोक सभी।
वसुधा सबका खुद ईश तभी ।।
विधि विष्णु कहाय महेश्वर भी।
प्रभु पाहि नमो पद अर्प सभी ।। 7 ।।
विधि आप ककार सुकेशव में।
शिव ईश महेश जु केशव में ।।
खुद केशव विष्णु से केशव में ।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 8 ।।
खुद शक्ति इकार जु केशव में।
यम केश गहे बस केशव में।
वसु वासु सुधा वश केशव में।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 9 ।।
सब शक्ति चढ़ी बस केशव में।
व सजीव करें बस केशव में।
रवि चन्द स पावक केशव में।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 10।।
ऋक सूर्य ककार जु केशव में।
यजु अग्नि इकार जु केशव में ।।
शशि साम शकार जु केशव में।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 11 ।।
व अथर्व भचक्र जु केशव में।
बसु अष्ट सभी बस केशव में।
सब तत्व चराचर केशव में।
नम अर्पत धी मन केशव में ।। 12 ।।
।। अर्थ ॥
1-- जो कि केशव शब्द में स्वयं केश शब्द है और आप भी झट अपने भक्तों के केश ही पकड़ते हो और फिर केश ही काटते हो और फिर उन केशों का ही होम करते हो। ऐसे आप केशव प्रभु के चरणों में यह दास प्रणाम करता है। इसलिए कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
2-- हे केशव! आप ही काल रूप से स्वयं जनों के केश पकड़े हुए हो फिर आप ही पकड़े हुए केशों के बन्धनों को शिव रूप से काटते हो तथा उन्हें होम कर तीनों पापों से छुड़ाते हो, ऐसे शिव रूप केशव प्रभु के चरणों में यह दास प्रणाम करता हैं। इसलिए कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
3- - हे केशव! आप ही शिव रूप हो क्योंकि केशव नाम में स्वयं शव शब्द है और शिव रूप से स्वयं आप ही शव-रुण्ड माला पहिने हुए हो तथा पाप, ताप और पापी को भी शव रूप कर देते हो। बल्कि शव को भी आप सजीव कर सकते हो। ऐसे आप त्रिताप हारी केशव प्रभु के चरणों में यह दास प्रणाम करता है। इसलिए कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
4-- हे केशव! आप ही शक्ति रूप हो। इसी से आपके केशव नाम में शके शब्द विद्यमान हैं। इसी से आप सब काम कर सकते हो और व रूप से बल, ज्ञान, अमृत आदि दे सकते हो बल्कि संसार की उत्पत्ति स्थिति तथा लय भी कर सकते हो और अपने सब भक्तों को तार भी सकते हो। ऐसे आप केशव प्रभु चरणों में यह दास प्रणाम करता है, इसलिए कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
5-- हे केशव! आपके वश में सभी शक्तियाँ है तभी केशव नाम में वश शब्द विद्यमान है और शके शब्द भी विद्यमान है तभी आप सब काम शीघ्र कर सकते हो और किसी काम में भूल भी नहीं पड़ती। ऐसे केशव प्रभु के चरणों में सर्वस्व अर्पण करके यह दास प्रणाम करता है, कि कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
6- हे केशव! आप ही के वश में सब शक्तियां हैं तभी आप अपनी रुचिवत सब लोगों को नचाया करते हो आपको छोड़ कर तीन लोक में ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं जो सब की बुद्धियों को प्रेरित कर सकता हो। ऐसे केशव प्रभु के चरणों में सर्वस्व अर्पण करके यह दास प्रणाम करता है इसलिए कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
7-- हे केशव! तू सभी लोकों का ईशण करता है, इसी से तू सब वसुधा का तथा सुधा का ईश कहाता है, इसी से तू ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर रूप है, इसी से तेरा केशव नाम (क+इ + ईश+व) से बना है। ऐसे केशव प्रभु के चरणों में सर्वस्व अर्पण करके यह दास प्रणाम करता है कि कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
8- हे केशव! आपके केशव नाम में ककार रूप से ब्रह्मा विराजते हैं। हे केशव आपके केशव नाम में ईश रूप से महेश विराजते हैं। हे केशव आपके नाम में केशव रूप से स्वयं विष्णु विराजते हैं, क्योंकि केशव नाम विष्णु ही का है। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता है ।
9- हे केशव! आपके केशव नाम में ई कार रूप से स्वयं शक्ति विराजती है। हे केशव आपके केशव नाम में केशों को पकड़ने वाला साक्षात यम विराजता है। हे केशव आपके केशव नाम में वकार रूप से वसु, वासु और अमृत विराजता है। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता है।
10-- हे केशव ! आपके केशव नाम में ई कार रूप से शव पर चढ़ने वाली महाशक्ति भी विराजती हैं। हे केशव आपके केशव नाम में शव को सजीव करने वाला अमृत भी वकार रूप से विराजता है। बल्कि आपके केशव नाम में सूर्य, चन्द्र और अग्नि भी विराजते हैं। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, आपको प्रणाम करता है। बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता हैं।
11- हे केशव! आपके केशव नाम में ककार रूप से सूर्य और ऋग्वेद विराजते हैं। हे केशव आपके केशव नाम में ईकार रूप से अग्नि और यजुर्वेद विराजते हैं। हे केशव आपके केशव नाम में शकार रूप में शशि और सामवेद विराजते हैं। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता है।
12-- हे केशव! आपके केशव नाम में वकार रूप से अथर्ववेद, अष्ट वसु तथा भचक्र विराजते हैं। इस तरह हे केशव आप ही के नाम रूप में सब चराचर विश्व विराजता है। अर्थात् आप ही विराट रूप हो। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता है।
(1)
।। नाराच छंद ।।
नमो नमो नमो पिता, धरी म माथ पाद् तैं ।
म त्राहि त्राहि पाहि भो, रखो मुझे स्वपाद तैं ।।
गुरु पिता म मात तैं, म मित्र स्वामि भ्रात तैं।
तुही म तात त्रात तैं, छुड़ात अहं जात तैं ।। 1।।
1- हे पिता मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर आपको प्रणाम करता हूँ, आपको दण्डवत करता हूँ। हे प्रभु! मुझे अपने चरणों में रखो और कृपा-दृष्टि करके मुझ शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
2-- आप ही मेरे गुरु, पिता और माता हो। आप ही मेरे मित्र, स्वामी और भ्राता हो। आप ही मेरे त्राता और तात हो और आप ही अहंकार से उपजने वाले विकारों से बचाने वाले वाले हो ।
।। प्रभा छन्द ।।
सकेश ग्राहकाय हुं । सकेश कन्तनाय हुं ।।
सकेश याजकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 1।।
यमाय अन्तकाय हुं । सकाल पाशन्धाय हुं ।।
स कालनाशनाय हु। नमामि केशवाय हुं ।। 2 ।।
स विश्व ईषणाय हुं । स पापनाशनाय हुं।
शवं सजीवनाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 3 ।।
स्वयं सुधा कराय हुं । स्वयं प्रभा कराय हुं ।।
स्वयं प्रकाशकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 4 ।।
4-- हे केशव! आप ही शक्ति रूप हो। इसी से आपके केशव नाम में शके शब्द विद्यमान हैं। इसी से आप सब काम कर सकते हो और व रूप से बल, ज्ञान, अमृत आदि दे सकते हो बल्कि संसार की उत्पत्ति स्थिति तथा लय भी कर सकते हो और अपने सब भक्तों को तार भी सकते हो। ऐसे आप केशव प्रभु चरणों में यह दास प्रणाम करता है, इसलिए कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
5-- हे केशव! आपके वश में सभी शक्तियाँ है तभी केशव नाम में वश शब्द विद्यमान है और शके शब्द भी विद्यमान है तभी आप सब काम शीघ्र कर सकते हो और किसी काम में भूल भी नहीं पड़ती। ऐसे केशव प्रभु के चरणों में सर्वस्व अर्पण करके यह दास प्रणाम करता है, कि कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
6- हे केशव! आप ही के वश में सब शक्तियां हैं तभी आप अपनी रुचिवत सब लोगों को नचाया करते हो आपको छोड़ कर तीन लोक में ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं जो सब की बुद्धियों को प्रेरित कर सकता हो। ऐसे केशव प्रभु के चरणों में सर्वस्व अर्पण करके यह दास प्रणाम करता है इसलिए कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
7-- हे केशव! तू सभी लोकों का ईशण करता है, इसी से तू सब वसुधा का तथा सुधा का ईश कहाता है, इसी से तू ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर रूप है, इसी से तेरा केशव नाम (क+इ + ईश+व) से बना है। ऐसे केशव प्रभु के चरणों में सर्वस्व अर्पण करके यह दास प्रणाम करता है कि कृपा-दृष्टि करके इस शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
8- हे केशव! आपके केशव नाम में ककार रूप से ब्रह्मा विराजते हैं। हे केशव आपके केशव नाम में ईश रूप से महेश विराजते हैं। हे केशव आपके नाम में केशव रूप से स्वयं विष्णु विराजते हैं, क्योंकि केशव नाम विष्णु ही का है। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता है ।
9- हे केशव! आपके केशव नाम में ई कार रूप से स्वयं शक्ति विराजती है। हे केशव आपके केशव नाम में केशों को पकड़ने वाला साक्षात यम विराजता है। हे केशव आपके केशव नाम में वकार रूप से वसु, वासु और अमृत विराजता है। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता है।
10-- हे केशव ! आपके केशव नाम में ई कार रूप से शव पर चढ़ने वाली महाशक्ति भी विराजती हैं। हे केशव आपके केशव नाम में शव को सजीव करने वाला अमृत भी वकार रूप से विराजता है। बल्कि आपके केशव नाम में सूर्य, चन्द्र और अग्नि भी विराजते हैं। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, आपको प्रणाम करता है। बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता हैं।
11- हे केशव! आपके केशव नाम में ककार रूप से सूर्य और ऋग्वेद विराजते हैं। हे केशव आपके केशव नाम में ईकार रूप से अग्नि और यजुर्वेद विराजते हैं। हे केशव आपके केशव नाम में शकार रूप में शशि और सामवेद विराजते हैं। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता है।
12-- हे केशव! आपके केशव नाम में वकार रूप से अथर्ववेद, अष्ट वसु तथा भचक्र विराजते हैं। इस तरह हे केशव आप ही के नाम रूप में सब चराचर विश्व विराजता है। अर्थात् आप ही विराट रूप हो। ऐसे आप केशवानन्द भगवान के चरणों में यह दास निज मन, बुद्धि अर्पित करके आपको प्रणाम करता है।
(1)
।। नाराच छंद ।।
नमो नमो नमो पिता, धरी म माथ पाद् तैं ।
म त्राहि त्राहि पाहि भो, रखो मुझे स्वपाद तैं ।।
गुरु पिता म मात तैं, म मित्र स्वामि भ्रात तैं।
तुही म तात त्रात तैं, छुड़ात अहं जात तैं ।। 1।।
1- हे पिता मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर आपको प्रणाम करता हूँ, आपको दण्डवत करता हूँ। हे प्रभु! मुझे अपने चरणों में रखो और कृपा-दृष्टि करके मुझ शरणागत की रक्षा करो, रक्षा करो।
2-- आप ही मेरे गुरु, पिता और माता हो। आप ही मेरे मित्र, स्वामी और भ्राता हो। आप ही मेरे त्राता और तात हो और आप ही अहंकार से उपजने वाले विकारों से बचाने वाले वाले हो ।
।। प्रभा छन्द ।।
सकेश ग्राहकाय हुं । सकेश कन्तनाय हुं ।।
सकेश याजकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 1।।
यमाय अन्तकाय हुं । सकाल पाशन्धाय हुं ।।
स कालनाशनाय हु। नमामि केशवाय हुं ।। 2 ।।
स विश्व ईषणाय हुं । स पापनाशनाय हुं।
शवं सजीवनाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 3 ।।
स्वयं सुधा कराय हुं । स्वयं प्रभा कराय हुं ।।
स्वयं प्रकाशकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 4 ।।
भवाय संभवाय हुं । वराय श्री कराय हुं ।।
शिवाय शंकराय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 5 ।।
सदण्ड धारणाय हुं । स नग्न भव्यकाय हुं ।।
स यज्ञयाजकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 6 ।।
स भक्तवत्सलाय हुं । स दीन रक्षकाय हुं ।।
त्रिताप नाशकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 7।।
स क्षौरकर्मठाय हुं । स विघ्न नाशकाय हुं ।
अनन्त रोगघ्नाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 8 ।।
स भक्त रन्जनाय हुं । स शोक गन्जनाय हुं ।।
स राग भन्जनाय हुं नमामि केशवाय हुं ।। 9 ।।
स सिद्धि ऋद्धि दाय हुं । विज्ञान ज्ञान दाय हुँ।।
स भक्ति मुक्ति दाय हुं नमामि केशवाय हुं । । 10 ।।
(ऊपर की स्तुति में जो बार-बार (हुं) का प्रयोग किया है यह महाशक्ति का मुख्य बीज है यथा ब्रह्म का (ॐ) बीज है।)
॥ अर्थ ॥
1- बालों के पकड़ने वाले को, बालों के काटने वाले को, बालों के यज्ञ करने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। 2- यमराज को, सृष्टि के अन्त करने वाले को, काल की पाश नाश करने वाले को, काल के नाश करने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
3- जगत के निग्रह करने वाले को, पापों के नसाने वाले को मुर्दे को सजीवन करने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
4- स्वयं अमृत बनाने वाले या अमृत रूप को स्वयं प्रकाश करने वाले को या स्वयं प्रकाश रूप केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
5- सब कुछ होने वाले को, सब कुछ करने वाले को, वर के देने वाले को, लक्ष्मी के स्वामी को या लक्ष्मी के देने वाले को, शान्ति करने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
6- डंडा धारण करने वाले को, नंगे रहने वाले को, दिव्य शरीर वाले को, यज्ञ के यजन करने वाले केशव भगवान मैं को नमस्कार करता हूँ।
7- भक्तों पर दया करने वाले को, दीनों की रक्षा करने वाले को, त्रिताप नसाने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
8- सदा बाल बनवाते रहने वाले को, विघ्नों के नसाने वाले को, अनन्त रोगों के नसाने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार, करता हूँ।
9- भक्तों के खुश करने वाले को, दुःखों के नसाने वाले को, और मोह के हटाने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
10- सब सिद्धि, ऋद्धियों के देने वाले को, विज्ञान और ज्ञान के देने वाले को, भक्ति और मुक्ति के देने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
तू ही बुद्धि का प्रेरक स्वामी,
तभी फुरे नित वृत्ति कितेक।
इच्छावत इन्द्रियां नचावत,
नित उपजावत, राग अनेक ।।
उसमें सारा नहीं हमारा,
सबका कारण तू है एक ।
बिना शक्ति हम क्या कर सकते,
पड़े चरण में निज सर टेक ।। 1 ।।
॥ अर्थ ॥
1- हे दादा तू ही हम सबका स्वामी है और हमारी बुद्धि का प्रेरक है। तेरी स्फूर्णा से ही निज वृत्ति अनेक प्रकार से फुरा करती हैं, वही वृत्ति स्वयं इच्छावत इन्द्रियों को नचाया करती हैं उसमें हमारा सारा कुछ भी नहीं है अर्थात हमारे आधीन कुछ भी नहीं है क्योंकि सबका कारण केवल तू ही है और सब शक्तियाँ तेरे आधीन हैं इसी से हम बिना शक्ति के क्या कर सकते हैं हम तो तेरे चरण में सिर रख कर तेरी ही शरण में पड़े हैं।
।। दोहा ।।
राग रहित जब तू करै, तभी सधै वैराग ।
स्वयं करै वैराग तब, तव पद में अनुराग ।। 1।।
बिन तेरे अनुराग के, होय कभी ना ज्ञान ।
ज्ञान बिना ना मुक्ति हो, मुक्ति बिना कल्याण ।। 2 ।।
तव शरणागत हम सभी, तव कर में सब काज ।
पड़े चरण में राखिये, शरण गहे की लाज ।। 3 ।।
शरणागत की लाज सब, हैगी तेरे हाथ ।
शरण चरण में हैं पड़े, त्राहि नमावत माथ ।। 4 ।।
दिया समर्पी चरण में, सभी देह सीस ।
तो आशा किसकी करें, करै कौन कोशीस ।। 5 ।।
लिया शरण में जो मुझे, तव पद में तन सीस।
कौन काम अब रह गया, कौन करै कोशीस ॥ 6 ॥
शिवाय शंकराय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 5 ।।
सदण्ड धारणाय हुं । स नग्न भव्यकाय हुं ।।
स यज्ञयाजकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 6 ।।
स भक्तवत्सलाय हुं । स दीन रक्षकाय हुं ।।
त्रिताप नाशकाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 7।।
स क्षौरकर्मठाय हुं । स विघ्न नाशकाय हुं ।
अनन्त रोगघ्नाय हुं । नमामि केशवाय हुं ।। 8 ।।
स भक्त रन्जनाय हुं । स शोक गन्जनाय हुं ।।
स राग भन्जनाय हुं नमामि केशवाय हुं ।। 9 ।।
स सिद्धि ऋद्धि दाय हुं । विज्ञान ज्ञान दाय हुँ।।
स भक्ति मुक्ति दाय हुं नमामि केशवाय हुं । । 10 ।।
(ऊपर की स्तुति में जो बार-बार (हुं) का प्रयोग किया है यह महाशक्ति का मुख्य बीज है यथा ब्रह्म का (ॐ) बीज है।)
॥ अर्थ ॥
1- बालों के पकड़ने वाले को, बालों के काटने वाले को, बालों के यज्ञ करने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। 2- यमराज को, सृष्टि के अन्त करने वाले को, काल की पाश नाश करने वाले को, काल के नाश करने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
3- जगत के निग्रह करने वाले को, पापों के नसाने वाले को मुर्दे को सजीवन करने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
4- स्वयं अमृत बनाने वाले या अमृत रूप को स्वयं प्रकाश करने वाले को या स्वयं प्रकाश रूप केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
5- सब कुछ होने वाले को, सब कुछ करने वाले को, वर के देने वाले को, लक्ष्मी के स्वामी को या लक्ष्मी के देने वाले को, शान्ति करने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
6- डंडा धारण करने वाले को, नंगे रहने वाले को, दिव्य शरीर वाले को, यज्ञ के यजन करने वाले केशव भगवान मैं को नमस्कार करता हूँ।
7- भक्तों पर दया करने वाले को, दीनों की रक्षा करने वाले को, त्रिताप नसाने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
8- सदा बाल बनवाते रहने वाले को, विघ्नों के नसाने वाले को, अनन्त रोगों के नसाने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार, करता हूँ।
9- भक्तों के खुश करने वाले को, दुःखों के नसाने वाले को, और मोह के हटाने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
10- सब सिद्धि, ऋद्धियों के देने वाले को, विज्ञान और ज्ञान के देने वाले को, भक्ति और मुक्ति के देने वाले केशव भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ।
।। छन्द ।।
तू ही बुद्धि का प्रेरक स्वामी,
तभी फुरे नित वृत्ति कितेक।
इच्छावत इन्द्रियां नचावत,
नित उपजावत, राग अनेक ।।
उसमें सारा नहीं हमारा,
सबका कारण तू है एक ।
बिना शक्ति हम क्या कर सकते,
पड़े चरण में निज सर टेक ।। 1 ।।
॥ अर्थ ॥
1- हे दादा तू ही हम सबका स्वामी है और हमारी बुद्धि का प्रेरक है। तेरी स्फूर्णा से ही निज वृत्ति अनेक प्रकार से फुरा करती हैं, वही वृत्ति स्वयं इच्छावत इन्द्रियों को नचाया करती हैं उसमें हमारा सारा कुछ भी नहीं है अर्थात हमारे आधीन कुछ भी नहीं है क्योंकि सबका कारण केवल तू ही है और सब शक्तियाँ तेरे आधीन हैं इसी से हम बिना शक्ति के क्या कर सकते हैं हम तो तेरे चरण में सिर रख कर तेरी ही शरण में पड़े हैं।
।। दोहा ।।
राग रहित जब तू करै, तभी सधै वैराग ।
स्वयं करै वैराग तब, तव पद में अनुराग ।। 1।।
बिन तेरे अनुराग के, होय कभी ना ज्ञान ।
ज्ञान बिना ना मुक्ति हो, मुक्ति बिना कल्याण ।। 2 ।।
तव शरणागत हम सभी, तव कर में सब काज ।
पड़े चरण में राखिये, शरण गहे की लाज ।। 3 ।।
शरणागत की लाज सब, हैगी तेरे हाथ ।
शरण चरण में हैं पड़े, त्राहि नमावत माथ ।। 4 ।।
दिया समर्पी चरण में, सभी देह सीस ।
तो आशा किसकी करें, करै कौन कोशीस ।। 5 ।।
लिया शरण में जो मुझे, तव पद में तन सीस।
कौन काम अब रह गया, कौन करै कोशीस ॥ 6 ॥
स्तम्भ आप हैं विश्व के स्वयं एक आधार ।
आप तजी पर सार क्या, आप सार संसार ।। 7।।
यों मम आप ही स्तम्भ हो, एक अखिल आधार।
क्यों कर छोडू जान के, छूट बहे भव धार ।। 8 ।।
तेरी मर्जी से सदा, योग वियोग जु होय ।
करी कृपा रख शरण में, कहीं गही पद दोय ।। १।।
गर्जी तो अर्जी करै, पर तव मर्जी साँच।
बरु रज को हीरा करे, चाहे हीरा काँच ।। 10 ।।
आप अग्नि हम काठ हैं, पड़े आपके पाद ।
तो भी क्या हम रह सकै, यही काठ क्या बाद ।। 11 ।।
सूखी लकड़ी झट जलैं, गीली अति धुंदुआय।
तो भी जल के अन्त को, सभी आग हो जाए।। 12 ।।
त्यागी सूखा काठ है, रागी गीला काठ ।
जल्दी धीरे अन्त को, आग होय सब काठ ।। 13 ।।
त्यागी रागी भक्त त्यों, गही शरण भरपूर ।
जल्दी धीरे अन्त को, होवै तेरा नूर ।। 14।।
सचर अचर ना अजड़ जड़, ज्ञानी मूढ न कोय ।
जिसे जभी तू ज्यों करें, तभी तथा सो होय ।। 15।।
चाहे यथा तू त्यौं करै, सभी चराचर जीव ।
नहीं किसी की ताव है, तू ही सभी की नींव ।। 16 ।।
जैसा चाहे तू करै, सब में बैठा व्याप।
तुझे तजी ना अन्य है, कारण कर्ता आप।। 17 ॥
करै करावे ज्यों चहे, व्यापि सब में आप।
तो फिर किस की क्या त्रुटि तेरा सभी प्रताप ।। 18।।
मुझमें व्यापी यों तुही, सब कुछ करै कराय।
तो फिर मेरी क्या त्रुटी, ज्यों तू चहे रखाय ।। 19।।
भले बुरे कपड़े सभी, ज्यों दे धोबी धोय।
त्यों तू दे पावन करी, भला बुरा ना जोय ।। 20 ।।
लोहा शोधी ज्यों करै, शुचि पावन अयकार ।
त्यों तू पावन जन करी, भव से देत उबार ।। 21 ।।
॥ अर्थ ।।
1- हे दादा ! जब तू अपने भक्त को सांसारिक विषय के राग से रहित करता है, तभी उसे वैराग्य उपजता है स्वयं उसी वैराग्य के द्वारा तेरे चरण कमलों में अनुराग उपजता है।
2- बल्कि तेरे अनुराग के बिना किसी तरह तेरे स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता तथा तेरे स्वरूप के ज्ञान बिना कोई मुक्त नहीं हो सकता और स्वयं मुक्ति के बिना कभी किसी का कल्याण नहीं हो सकता।
3- हे दादा! हम सभी तेरी शरण में आये हुए तेरे चरण में पड़े हैं, इसलिए शरण गहे की लाज रखिये क्योंकि सब कुछ करना धरना तेरे ही हाथ में है।
4- हे दादा! शरण में आए हुए की लाज सब तेरे ही हाथ में है इसलिये हम सब तेरे चरणों की शरण में पड़े हुए हैं हम सब शरणागतों की रक्षा करो, तुझे प्रणाम करते हैं।
5- हे दादा! जबकि हम सभी तेरे चरणों में अपना सिर, तन, मन आदि सब कुछ समर्पण कर चुके तो अब आशा किसकी करें और अन्य कौन हमारे लिये कोशिश करेगा।
6- हे दादा ! जो हमें तूने अपने शरण में ले लिया और हमने भी तेरे चरणों में सकल देह सहित अपना शीश धर दिया तो अब हमारे लिये कौन-सा अन्य काम बाकी रह गया और अन्य दूसरा कौन हमारे लिये कोशिश करेगा।
7- हे दादा ! आप स्वयं अखिल विश्व के एकमात्र स्तम्भ और एकमात्र आधार हो । उस दिशा में आपको छोड़ कर संसार भर में अन्य क्या सार वस्तु है अर्थात् आप ही सब संसार के एक ही मात्र सार हैं।
8- इस विचार से हे दादा आप ही मेरे स्तम्भ तथा एकमात्र आधार हो इसलिए तुझे जान बूझ कर क्यों कर छोड़ दूं क्योंकि जो कोई तुझे छोड़ देता है वही भवसागर की प्रबल धारा में पड़कर बहता हुआ भ्रमता रहता है ।
9- हे दादा! तेरी मर्जी से सदा योग-वियोग हुआ करता है, इसलिए तेरे दोनों चरणों को पकड़ कर कहता हूँ कि कृपा करके मुझे सदा अपनी शरण में ही रख ।
10- हे दादा ! प्रत्येक गरजी अपनी जुदी-जुदी अर्जी करता है जिस पर भी तेरी मर्जी मात्र सच्ची है क्योंकि तू चाहे तो रज को हीरा कर दे और चाहे हीरे को काँच कर दे।
11- हे दादा! आप स्वयं अग्नि रूप हैं और हम सब काठ रूप होकर आपके चरणों में पड़े हैं, तिस पर भी क्या हम अन्त को काठ के काठ ही रह सकते हैं?
12- अलबत्ता हे दादा सूखा काठ झट जल जाता है और गीला काठ अत्यंत धुन्दुआता है जिस पर भी अंत को दोनों प्रकार का जल कर आग ही बन जाता है।
आप तजी पर सार क्या, आप सार संसार ।। 7।।
यों मम आप ही स्तम्भ हो, एक अखिल आधार।
क्यों कर छोडू जान के, छूट बहे भव धार ।। 8 ।।
तेरी मर्जी से सदा, योग वियोग जु होय ।
करी कृपा रख शरण में, कहीं गही पद दोय ।। १।।
गर्जी तो अर्जी करै, पर तव मर्जी साँच।
बरु रज को हीरा करे, चाहे हीरा काँच ।। 10 ।।
आप अग्नि हम काठ हैं, पड़े आपके पाद ।
तो भी क्या हम रह सकै, यही काठ क्या बाद ।। 11 ।।
सूखी लकड़ी झट जलैं, गीली अति धुंदुआय।
तो भी जल के अन्त को, सभी आग हो जाए।। 12 ।।
त्यागी सूखा काठ है, रागी गीला काठ ।
जल्दी धीरे अन्त को, आग होय सब काठ ।। 13 ।।
त्यागी रागी भक्त त्यों, गही शरण भरपूर ।
जल्दी धीरे अन्त को, होवै तेरा नूर ।। 14।।
सचर अचर ना अजड़ जड़, ज्ञानी मूढ न कोय ।
जिसे जभी तू ज्यों करें, तभी तथा सो होय ।। 15।।
चाहे यथा तू त्यौं करै, सभी चराचर जीव ।
नहीं किसी की ताव है, तू ही सभी की नींव ।। 16 ।।
जैसा चाहे तू करै, सब में बैठा व्याप।
तुझे तजी ना अन्य है, कारण कर्ता आप।। 17 ॥
करै करावे ज्यों चहे, व्यापि सब में आप।
तो फिर किस की क्या त्रुटि तेरा सभी प्रताप ।। 18।।
मुझमें व्यापी यों तुही, सब कुछ करै कराय।
तो फिर मेरी क्या त्रुटी, ज्यों तू चहे रखाय ।। 19।।
भले बुरे कपड़े सभी, ज्यों दे धोबी धोय।
त्यों तू दे पावन करी, भला बुरा ना जोय ।। 20 ।।
लोहा शोधी ज्यों करै, शुचि पावन अयकार ।
त्यों तू पावन जन करी, भव से देत उबार ।। 21 ।।
॥ अर्थ ।।
1- हे दादा ! जब तू अपने भक्त को सांसारिक विषय के राग से रहित करता है, तभी उसे वैराग्य उपजता है स्वयं उसी वैराग्य के द्वारा तेरे चरण कमलों में अनुराग उपजता है।
2- बल्कि तेरे अनुराग के बिना किसी तरह तेरे स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता तथा तेरे स्वरूप के ज्ञान बिना कोई मुक्त नहीं हो सकता और स्वयं मुक्ति के बिना कभी किसी का कल्याण नहीं हो सकता।
3- हे दादा! हम सभी तेरी शरण में आये हुए तेरे चरण में पड़े हैं, इसलिए शरण गहे की लाज रखिये क्योंकि सब कुछ करना धरना तेरे ही हाथ में है।
4- हे दादा! शरण में आए हुए की लाज सब तेरे ही हाथ में है इसलिये हम सब तेरे चरणों की शरण में पड़े हुए हैं हम सब शरणागतों की रक्षा करो, तुझे प्रणाम करते हैं।
5- हे दादा! जबकि हम सभी तेरे चरणों में अपना सिर, तन, मन आदि सब कुछ समर्पण कर चुके तो अब आशा किसकी करें और अन्य कौन हमारे लिये कोशिश करेगा।
6- हे दादा ! जो हमें तूने अपने शरण में ले लिया और हमने भी तेरे चरणों में सकल देह सहित अपना शीश धर दिया तो अब हमारे लिये कौन-सा अन्य काम बाकी रह गया और अन्य दूसरा कौन हमारे लिये कोशिश करेगा।
7- हे दादा ! आप स्वयं अखिल विश्व के एकमात्र स्तम्भ और एकमात्र आधार हो । उस दिशा में आपको छोड़ कर संसार भर में अन्य क्या सार वस्तु है अर्थात् आप ही सब संसार के एक ही मात्र सार हैं।
8- इस विचार से हे दादा आप ही मेरे स्तम्भ तथा एकमात्र आधार हो इसलिए तुझे जान बूझ कर क्यों कर छोड़ दूं क्योंकि जो कोई तुझे छोड़ देता है वही भवसागर की प्रबल धारा में पड़कर बहता हुआ भ्रमता रहता है ।
9- हे दादा! तेरी मर्जी से सदा योग-वियोग हुआ करता है, इसलिए तेरे दोनों चरणों को पकड़ कर कहता हूँ कि कृपा करके मुझे सदा अपनी शरण में ही रख ।
10- हे दादा ! प्रत्येक गरजी अपनी जुदी-जुदी अर्जी करता है जिस पर भी तेरी मर्जी मात्र सच्ची है क्योंकि तू चाहे तो रज को हीरा कर दे और चाहे हीरे को काँच कर दे।
11- हे दादा! आप स्वयं अग्नि रूप हैं और हम सब काठ रूप होकर आपके चरणों में पड़े हैं, तिस पर भी क्या हम अन्त को काठ के काठ ही रह सकते हैं?
12- अलबत्ता हे दादा सूखा काठ झट जल जाता है और गीला काठ अत्यंत धुन्दुआता है जिस पर भी अंत को दोनों प्रकार का जल कर आग ही बन जाता है।
13- हे दादा ! विषयों का त्यागी पुरुष सूखे काठ समान और विषयों का रागी पुरुष गीले काठ के समान है तो भी जिस तरह सूखा काठ जल्दी और गीला देर सवे जल कर अंत को खुद आग ही हो जाता है।
14- उसी तरह हे दादा जो त्यागी या रागी भक्त दिलोजान तेरी शरण पकड़ चुका है, वह अंत को जल्दी या देर से स्वयं तेरा ही नूर हो जाता है ।
15- हे दादा ! न तो कोई स्थावर है, न कोई जंगम है तथा न कोई जड़ है, न कोई चैतन्य है; एवं न कोई मूर्ख है, किन्तु जब कभी जिसे तू जैसा करता है, तब वह तत्काल वैसा ही हो जाता है।
16- हे दादा ! सभी चराचर जीवों को क्षणभर में तू जैसा चाहे कर सकता है, इस तरह अन्य कोई कर नहीं सकता क्योंकि सबक आधार मात्र तू ही है ।
17- हे दादा! तू सब में व्यापक होकर बैठा है, इससे तू जैसी इच्छा करै, वैसा तू कर सकता है, क्योंकि तुझको छोड़ कर अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इच्छावत सब कुछ कर सके, इससे सिद्ध हुआ कि तू ही सबका कारण है और कर्ता है।
18- हे दादा! तू सब में व्याप करके जैसी तेरी इच्छा हो, वैसा ही करता है, और कराता है तो फिर इसमें दूसरे की क्या भूल है क्योंकि जो कुछ होता है, वह सब तेरे ही प्रभाव से होता है।
19- हे दादा! तू खुद मुझमें व्याप कर सब कुछ करता है और मेरे द्वारा भी करा रहा है, तो फिर इसमें मेरी क्या भूल है, बल्कि जैसा तू चाहता है, उसी तरह मुझे रखता है।
20- हे दादा ! जिस तरह धोबी सब तरह के भले-बुरे कपड़ों को धोकर शुद्ध कर देता है, उसी तरह तू भी भले-बुरे का विचार न करके सभी शरणागतों को पावन कर देता है।
21- हे दादा ! जिस तरह लोहार अशुद्ध लोहे को शोध कर शुद्ध कर देता है, उसी तरह तू भी अपने भक्तों को पावन करके सांसारिक दोषों से उबार देता है।
(1)
भजन
कर सकता तू दादा सब कुछ,
तेरे कर में सब सत्ता।
तेरी इच्छा बिना हुये कुछ,
हिल सकता है ना पत्ता ।। टेक।।
14- उसी तरह हे दादा जो त्यागी या रागी भक्त दिलोजान तेरी शरण पकड़ चुका है, वह अंत को जल्दी या देर से स्वयं तेरा ही नूर हो जाता है ।
15- हे दादा ! न तो कोई स्थावर है, न कोई जंगम है तथा न कोई जड़ है, न कोई चैतन्य है; एवं न कोई मूर्ख है, किन्तु जब कभी जिसे तू जैसा करता है, तब वह तत्काल वैसा ही हो जाता है।
16- हे दादा ! सभी चराचर जीवों को क्षणभर में तू जैसा चाहे कर सकता है, इस तरह अन्य कोई कर नहीं सकता क्योंकि सबक आधार मात्र तू ही है ।
17- हे दादा! तू सब में व्यापक होकर बैठा है, इससे तू जैसी इच्छा करै, वैसा तू कर सकता है, क्योंकि तुझको छोड़ कर अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इच्छावत सब कुछ कर सके, इससे सिद्ध हुआ कि तू ही सबका कारण है और कर्ता है।
18- हे दादा! तू सब में व्याप करके जैसी तेरी इच्छा हो, वैसा ही करता है, और कराता है तो फिर इसमें दूसरे की क्या भूल है क्योंकि जो कुछ होता है, वह सब तेरे ही प्रभाव से होता है।
19- हे दादा! तू खुद मुझमें व्याप कर सब कुछ करता है और मेरे द्वारा भी करा रहा है, तो फिर इसमें मेरी क्या भूल है, बल्कि जैसा तू चाहता है, उसी तरह मुझे रखता है।
20- हे दादा ! जिस तरह धोबी सब तरह के भले-बुरे कपड़ों को धोकर शुद्ध कर देता है, उसी तरह तू भी भले-बुरे का विचार न करके सभी शरणागतों को पावन कर देता है।
21- हे दादा ! जिस तरह लोहार अशुद्ध लोहे को शोध कर शुद्ध कर देता है, उसी तरह तू भी अपने भक्तों को पावन करके सांसारिक दोषों से उबार देता है।
(1)
भजन
कर सकता तू दादा सब कुछ,
तेरे कर में सब सत्ता।
तेरी इच्छा बिना हुये कुछ,
हिल सकता है ना पत्ता ।। टेक।।
सभी ओर सब काल सभी थल,
व्यापा बनी बसा खत्ता।
तुही स्वयं भक्तों का सच्चा,
पूरा रक्षक अलबत्ता।।
शरण लखी जन ताप हटाता,
बन शरणागत का छत्ता ।
तुझे छोड़ यों और न कोई,
सकता कान करी तत्ता ।। 1 ।।
तभी भक्त सब तुझको भजते,
पन्थहि जात बता धत्ता।
खाय मिलै जो धन ना जोरे,
तन पर राखे ना ऽ लत्ता ।।
मश्त बनी अवधूत बनि वे,
लखेँ तुझे नित तव सत्ता ।
तो भी कोई ना कह सकता,
ठीक कहाँ लो तव यत्ता ।। 2 ।।
।। अर्थ ।।
हे दादा ! तू सब कुछ कर सकता है क्योंकि तेरे हाथ में सब प्रकार की सत्ता है, तेरी इच्छा के बिना एक पत्ता नहीं हिल सकता अर्थात् सब कुछ तेरी ही इच्छा से होता है। (टेक)
1- हे दादा स्वयं महा शून्य रूपी खत्ता हो कर उसी में, सदा सर्वत्र सब ओर व्याप कर रहता है यथार्थ में भक्तों का सच्चा और पूरा रक्षक तू ही है । हे दादा तू अपने शरणागत का छत्ता होकर शरण में आये हुए भक्तों का त्रिताप हटाता है। हे दादा तुझे छोड़ कर संसार में ऐसा कोई अन्य नहीं जो तेरे भक्तों का कान तक गरम कर सके।
2- तभी तेरे सब भक्त, जात पंथ आदि को धत्ता बता कर तुझी को भजते हैं, उन तेरे भक्तों को जो कुछ अनायास मिल जाता है उसी में निर्वाह कर लेते हैं लेकिन धन आदि नहीं जोड़ते बल्कि शरीर पर लत्ता तक नहीं रखते। हे दादा इस तरह से मस्त अवधूत बनकर तुझे और तेरी सत्ता को सदा देखा करते हैं तो भी कोई यह बात नहीं कह सकता कि तेरी ठीक इयत्ता याने हद्द कहाँ तक है।
(2)
भजन
[ ] दादा रक्षा करो हमारी,
[ ] शरणागत मैं कहत पुकारी।। टेक।।
[ ] ॐ रूप से ज्ञान रखाओ,
[ ] शक्ति रखाओ हुँ परिचारी।
[ ] नादहि द्वारा मनहि रखाओ,
[ ] तुर्या बिन्दुहि में लयकारी।।
[ ] ब्रह्मानन्द वृत्ति के हेतु,
[ ] कर देह मन की रखवारी।
[ ]
[ ] जीवहि अपना अंश समझ के,
[ ] लीजे पुत्रहि निज उर धारी।। 1।।
[ ]
[ ] राखो भू पै भूमि तत्व से,
[ ] नीर तत्व से नीर मझारी ।।
[ ] अग्नि तत्व से राखो अग्नि में,
[ ] वायु तत्व से मध्य बयारी।।
[ ] रखो गगन में गगन तत्व से,
[ ] विद्या द्वारा ज्ञान प्रचारी।
[ ] शक्ति सहारे रख माया से,
[ ] दीजे आवागमन मिटारी ।। 2 ।।
[ ]
[ ] स्थूल देह को राखो विराटहि,
[ ] सूक्ष्म देह को नूर मझारी ।।
[ ] कारण तन को रखो शून्य हो,
[ ] अपना आपहि लो स्वीकारी।।
[ ] रखो शक्ति को स्वयं शक्ति में,
[ ] रखो ज्ञान निज ज्ञान मझारी ।
[ ] निजानन्द आनन्दहि अपने,
[ ] राखो अपना आप विचारी ।। 3 ।।
[ ]
[ ] चित की रक्षा मन से कीजे,
[ ] मन की रक्षा बुद्धि प्रचारी।
[ ] सभी इन्द्रियाँ राखो आपहि,
[ ] खुद की वृत्ति में अविकारी ।।
[ ] प्रभु अंशी का अंश मुझे लख,
[ ] स्वयं सिन्धु का बिन्दु विचारी।
[ ] अपना आपहि लो अपनाई,
[ ] रखो सदा निज चरण मझारी ।। 4 ।।
॥ अर्थ ॥
हे दादा! यह शरण में आया हुआ आपको पुकार कर कहता है। कि तत्काल मेरी रक्षा करो।। टेक।।
1- हे दादा! आप ॐ कार रूप से हमारे ज्ञान की रक्षा करो, (हुं) कार रूप से हमारी शक्ति की रक्षा करो, नाद द्वारा हमारे मन की रक्षा करो, मन के बिन्दु में लय करके तुरिया अवस्था की रक्षा करो। हे दादा केवल ब्रह्मानन्द की वृत्ति के लिये ही सदा हमारे देह और मन की रक्षा करो, बल्कि हमारे जीव को अपना अंश समझ तथा हमें अपना पुत्र समझ अपने हृदय से लगा लो और रक्षा करो, रक्षा करो।
2- हे दादा ! पृथ्वी पर हमारी पृथ्वी तत्व से रक्षा करो, जल में हमारी जल तत्व से रक्षा करो, अग्नि में हमारी अग्नि तत्व से रक्षा करो, वायु में हमारी वायु तत्व से रक्षा करो, आकाश में हमारी आकाश तत्व से रक्षा करो तथा सहतत्व रूपी विद्या के द्वारा हमारे ज्ञान की वृद्धि और विद्या की रक्षा करो, बल्कि अपनी शक्ति के सहारे माया से बचाकर हमारा आवागमन मिटा दो एवं हमारी माया से रक्षा करो।
3- हे दादा! आप हमारे स्थूल देह को अपने विराट स्वरूप में रखकर रक्षा करो, हमारे सूक्ष्म देह को अपने स्वयं प्रकाश रूप में रखकर रक्षा करो, हमारे कारण शरीर को अपने शून्य रूप में रखकर रक्षा करो क्योंकि मैं आप ही के नूर का अंश हूँ, इसलिये आप मुझे स्वीकार कर लो। हे दादा आप हमारी शक्ति को स्वयं अपनी शक्ति में रखकर रक्षा करो, हमारे ज्ञान को अपने ज्ञान में रखकर रक्षा करो तथा हमारे आनन्द को अपने आनन्द रूप में रखकर रक्षा करो बल्कि हमें अपना ही अंश समझ कर रक्षा करो, रक्षा करो।
4- हे दादा! आप हमारे चित की रक्षा अपने मन के द्वारा करो तथा हमारे मन की रक्षा आप अपनी बुद्धि के द्वारा करो और हमारी सब इन्द्रियों को आप अपनी विकार रहित वृत्ति में रखकर रक्षा करो, क्योंकि आप स्वयं अविकारी हो। हे दादा आप हमारे प्रभु रूप अंशी हो, इसलिये हमें अपना अंश समझ कर रक्षा करो अथवा हमें स्वयंसिन्धु का बिन्दु समझ कर हमारी रक्षा करो। हे दादा आप अपने इस अंश को अपना समझ कर आप ही अपना लो और सदा निज चरणों में रखकर रक्षा करो, रक्षा कर।
दादा रक्षा करो हमारी, दादा धूनी वाले जी ।। टेक।।
व्यापा बनी बसा खत्ता।
तुही स्वयं भक्तों का सच्चा,
पूरा रक्षक अलबत्ता।।
शरण लखी जन ताप हटाता,
बन शरणागत का छत्ता ।
तुझे छोड़ यों और न कोई,
सकता कान करी तत्ता ।। 1 ।।
तभी भक्त सब तुझको भजते,
पन्थहि जात बता धत्ता।
खाय मिलै जो धन ना जोरे,
तन पर राखे ना ऽ लत्ता ।।
मश्त बनी अवधूत बनि वे,
लखेँ तुझे नित तव सत्ता ।
तो भी कोई ना कह सकता,
ठीक कहाँ लो तव यत्ता ।। 2 ।।
।। अर्थ ।।
हे दादा ! तू सब कुछ कर सकता है क्योंकि तेरे हाथ में सब प्रकार की सत्ता है, तेरी इच्छा के बिना एक पत्ता नहीं हिल सकता अर्थात् सब कुछ तेरी ही इच्छा से होता है। (टेक)
1- हे दादा स्वयं महा शून्य रूपी खत्ता हो कर उसी में, सदा सर्वत्र सब ओर व्याप कर रहता है यथार्थ में भक्तों का सच्चा और पूरा रक्षक तू ही है । हे दादा तू अपने शरणागत का छत्ता होकर शरण में आये हुए भक्तों का त्रिताप हटाता है। हे दादा तुझे छोड़ कर संसार में ऐसा कोई अन्य नहीं जो तेरे भक्तों का कान तक गरम कर सके।
2- तभी तेरे सब भक्त, जात पंथ आदि को धत्ता बता कर तुझी को भजते हैं, उन तेरे भक्तों को जो कुछ अनायास मिल जाता है उसी में निर्वाह कर लेते हैं लेकिन धन आदि नहीं जोड़ते बल्कि शरीर पर लत्ता तक नहीं रखते। हे दादा इस तरह से मस्त अवधूत बनकर तुझे और तेरी सत्ता को सदा देखा करते हैं तो भी कोई यह बात नहीं कह सकता कि तेरी ठीक इयत्ता याने हद्द कहाँ तक है।
(2)
भजन
[ ] दादा रक्षा करो हमारी,
[ ] शरणागत मैं कहत पुकारी।। टेक।।
[ ] ॐ रूप से ज्ञान रखाओ,
[ ] शक्ति रखाओ हुँ परिचारी।
[ ] नादहि द्वारा मनहि रखाओ,
[ ] तुर्या बिन्दुहि में लयकारी।।
[ ] ब्रह्मानन्द वृत्ति के हेतु,
[ ] कर देह मन की रखवारी।
[ ]
[ ] जीवहि अपना अंश समझ के,
[ ] लीजे पुत्रहि निज उर धारी।। 1।।
[ ]
[ ] राखो भू पै भूमि तत्व से,
[ ] नीर तत्व से नीर मझारी ।।
[ ] अग्नि तत्व से राखो अग्नि में,
[ ] वायु तत्व से मध्य बयारी।।
[ ] रखो गगन में गगन तत्व से,
[ ] विद्या द्वारा ज्ञान प्रचारी।
[ ] शक्ति सहारे रख माया से,
[ ] दीजे आवागमन मिटारी ।। 2 ।।
[ ]
[ ] स्थूल देह को राखो विराटहि,
[ ] सूक्ष्म देह को नूर मझारी ।।
[ ] कारण तन को रखो शून्य हो,
[ ] अपना आपहि लो स्वीकारी।।
[ ] रखो शक्ति को स्वयं शक्ति में,
[ ] रखो ज्ञान निज ज्ञान मझारी ।
[ ] निजानन्द आनन्दहि अपने,
[ ] राखो अपना आप विचारी ।। 3 ।।
[ ]
[ ] चित की रक्षा मन से कीजे,
[ ] मन की रक्षा बुद्धि प्रचारी।
[ ] सभी इन्द्रियाँ राखो आपहि,
[ ] खुद की वृत्ति में अविकारी ।।
[ ] प्रभु अंशी का अंश मुझे लख,
[ ] स्वयं सिन्धु का बिन्दु विचारी।
[ ] अपना आपहि लो अपनाई,
[ ] रखो सदा निज चरण मझारी ।। 4 ।।
॥ अर्थ ॥
हे दादा! यह शरण में आया हुआ आपको पुकार कर कहता है। कि तत्काल मेरी रक्षा करो।। टेक।।
1- हे दादा! आप ॐ कार रूप से हमारे ज्ञान की रक्षा करो, (हुं) कार रूप से हमारी शक्ति की रक्षा करो, नाद द्वारा हमारे मन की रक्षा करो, मन के बिन्दु में लय करके तुरिया अवस्था की रक्षा करो। हे दादा केवल ब्रह्मानन्द की वृत्ति के लिये ही सदा हमारे देह और मन की रक्षा करो, बल्कि हमारे जीव को अपना अंश समझ तथा हमें अपना पुत्र समझ अपने हृदय से लगा लो और रक्षा करो, रक्षा करो।
2- हे दादा ! पृथ्वी पर हमारी पृथ्वी तत्व से रक्षा करो, जल में हमारी जल तत्व से रक्षा करो, अग्नि में हमारी अग्नि तत्व से रक्षा करो, वायु में हमारी वायु तत्व से रक्षा करो, आकाश में हमारी आकाश तत्व से रक्षा करो तथा सहतत्व रूपी विद्या के द्वारा हमारे ज्ञान की वृद्धि और विद्या की रक्षा करो, बल्कि अपनी शक्ति के सहारे माया से बचाकर हमारा आवागमन मिटा दो एवं हमारी माया से रक्षा करो।
3- हे दादा! आप हमारे स्थूल देह को अपने विराट स्वरूप में रखकर रक्षा करो, हमारे सूक्ष्म देह को अपने स्वयं प्रकाश रूप में रखकर रक्षा करो, हमारे कारण शरीर को अपने शून्य रूप में रखकर रक्षा करो क्योंकि मैं आप ही के नूर का अंश हूँ, इसलिये आप मुझे स्वीकार कर लो। हे दादा आप हमारी शक्ति को स्वयं अपनी शक्ति में रखकर रक्षा करो, हमारे ज्ञान को अपने ज्ञान में रखकर रक्षा करो तथा हमारे आनन्द को अपने आनन्द रूप में रखकर रक्षा करो बल्कि हमें अपना ही अंश समझ कर रक्षा करो, रक्षा करो।
4- हे दादा! आप हमारे चित की रक्षा अपने मन के द्वारा करो तथा हमारे मन की रक्षा आप अपनी बुद्धि के द्वारा करो और हमारी सब इन्द्रियों को आप अपनी विकार रहित वृत्ति में रखकर रक्षा करो, क्योंकि आप स्वयं अविकारी हो। हे दादा आप हमारे प्रभु रूप अंशी हो, इसलिये हमें अपना अंश समझ कर रक्षा करो अथवा हमें स्वयंसिन्धु का बिन्दु समझ कर हमारी रक्षा करो। हे दादा आप अपने इस अंश को अपना समझ कर आप ही अपना लो और सदा निज चरणों में रखकर रक्षा करो, रक्षा कर।
(3)
।। भजन ।।
दादा रक्षा करो हमारी, दादा धूनी वाले जी ।। टेक।।
शून्य रूप से अतन अचल अज, नाम न रंग न वाले जी। निर्विकार तुम निर्विकल्प तुम, केवल रहने वाले जी ।
स्वयं प्रकाशक नूर रूप से, शक्ति ज्ञान सुख वाले जी ।।
स्वयं(सच्चिदानन्द) सदा हो, कारण करने वाले जी ।।1।।
स्वयं(सच्चिदानन्द) सदा हो, कारण करने वाले जी ।।1।।
सदा मग्न (आनन्द) रूप से, सभी दिशा थल वाले जी ।
(चित्) से चेत कराने वाले, गति के देने वाले जी ।।
(सत्) से सब हो सत्ता वाले, करने धरने वाले जी ।
गति पा सत्ता शक्ति कहाती, सोई माया वाले जी ।। 2 ।।
त्रिगुणी माया महत प्रकाशे, ज्योती सात निकाले जी ।
(सत्) से सब हो सत्ता वाले, करने धरने वाले जी ।
गति पा सत्ता शक्ति कहाती, सोई माया वाले जी ।। 2 ।।
त्रिगुणी माया महत प्रकाशे, ज्योती सात निकाले जी ।
प्रकृति पुरुष तब तुम कहलाते, खुद विराट तनवाले जी ।
ब्रह्मा बनी रचै जग सारा, विष्णु बनी जग पाले जी ।
शंकर हो जग तम संहारे, दादा घैले वाले जी ।। 3 ।।
खुद दुर्गा हो दुर्गति नाशै, निज जन को प्रति पाले जी।
खुद दुर्गा हो दुर्गति नाशै, निज जन को प्रति पाले जी।
काली बन के काल हटावै, दुष्टों का जी सालेजी।
बनी गजानन विघ्न हरैं सब, चारों वाणी वाले जी ।
इन्द्र शुक्र बन मुन्डी खुद तुम,मरा जिलाने वाले जी॥ 4 ॥
स्वामी बनी सुपंथ चलाते, यम हो पाप निकाले जी ।
गुरु बनी देते शुभ शिक्षा, दादा डंडे वाले जी ।
पिता बनी खुद हमें रखाते, माता बन खुद पाले जी।
बनी गजानन विघ्न हरैं सब, चारों वाणी वाले जी ।
इन्द्र शुक्र बन मुन्डी खुद तुम,मरा जिलाने वाले जी॥ 4 ॥
स्वामी बनी सुपंथ चलाते, यम हो पाप निकाले जी ।
गुरु बनी देते शुभ शिक्षा, दादा डंडे वाले जी ।
पिता बनी खुद हमें रखाते, माता बन खुद पाले जी।
भ्राता बन खुद भय हर लेते, दादा कंबल वाले जी ।। 5 ।।
धन्वन्तर खुद वैद्य बनी सब, रोग नसाने वाले जी।
धन्वन्तर खुद वैद्य बनी सब, रोग नसाने वाले जी।
दत्तात्रेय बन सभी दिलाते, नियम कुदर्ती वाले जी।।
मस्त मुक्त अवधूत बनी खुद, ज्ञान कराने वाले जी।
मस्त मुक्त अवधूत बनी खुद, ज्ञान कराने वाले जी।
शरण चरण के शरणागत हम,आप रखाने वाले जी।।6।।
रक्ष रक्ष झट रक्ष पुरारी, विघ्न नसाने वाले जी ।
त्राहि-त्राहि जन शरण निहारी, रक्षो कंबल वाले जी।
नमे नमे हम भो मदनारी, रक्षो डंडे वाले जी।
रक्षो रक्षो कहत पुकारी, रक्षो धूनी वाले जी ।। 7।।
धावो धावो धावो दादा, भक्त बचाने वाले जी ।
आवो आवो आवो दादा, लाज रखाने वाले जी ।
रक्षो रक्षो रक्षो दादा, जन अपनाने वाले जी ।
दीजे दर्शन, दीजे दर्शन, ज्ञान कराने वाले जी ।। 8 ।।
॥ अर्थ ॥
1- हे दादा ! केवल आप ही शून्य रूप से निराकार निर्विकार, अचल, अतन, न जन्मने वाले, बिना नाम और बिना रंग वाले तथा निर्विकल्प होकर रहने वाले हो। हे दादा केवल आप ही स्वयं प्रकाशक रूप से शक्ति, ज्ञान और आनन्द वाले हो, बल्कि केवल आप ही सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ तथा आनन्दरूप होने के कारण स्वयं सच्चिदानन्द कहाते हो तथा केवल आप ही सब के कारण और करने वाले हो । ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो।
2- हे दादा ! केवल आप ही आनन्द रूप से, सभी स्थल, सभी दिशा, तथा सभी काल वाले हो। हे दादा केवल आप ही चित् रूप से सबको चेत कराने वाले तथा गति के देने वाले हो। हे दादा केवलआप ही रूप से सभी सत्ता वाले तथा सब कुछ करने वाले हो। हे दादा केवल आप ही सत्ता ही गति पाकर शक्ति कहाती है। वही सबको आवागमन करा रही है इसी से वह माया और आप माया वाले हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
3- हे दादा! केवल आपकी माया ही आकर्षण, निराकरण तथा स्तम्भन रूप होकर क्रम से रज, तम और सतगुण वाली हो गई और यही तीन शक्तियाँ परस्पर मिल कर महत्व को प्रकाशती हुई बल्कि इन तीन गुणों के सप्त प्रकार के कारण ही वह महत्ज्योति सात प्रकार की हो गई अर्थात् (1) पहली ज्योति केवल रजोगुण वाली (2) दूसरी ज्योति केवल तमोगुण वाली (3) तीसरी ज्योति केवल सतोगुण वाली (4) चौथी ज्योति केवल रज और तम गुण वाली (5) पांचवी ज्योति केवल रज और सतगुण वाली (6) छठवीं ज्योति केवल तम और सतगुण वाली तथा (7) सातवीं ज्योती केवल रज, तम और सत गुण वाली है, इसी तरह एक शक्ति के तीन गुणों के सात प्रस्तारों के द्वारा ही सात रंग वाली सात रंग की ज्योतियां हो गई, इसी कारण शुक्ल ज्योति में त्री पार्शव-द्वारा सात रंग की ज्योतियां दिखाई देती हैं। हे दादा तब आप ही इस माया के कारण प्रकृति पुरुष कहलाते हो। हे दादा पुरुष रूप आप ही प्रकृति से मिल कर विराट शरीर वाले हो। हे दादा! आप ही रजोगुणी आकर्षण शक्ति से मिल कर ब्रह्मा बनते तथा सब जग रचते हो। हे दादा! आप ही तमोगुणी निराकरण शक्ति से मिलकर रुद्र बनते तथा सब जग को संहारते और अन्धकार को हटाते हो। हे दादा। आप ही सतोगुणी स्तम्भन शक्ति से मिल कर विष्णु बनते तथा सब जग का पालन-पोषण करते हो। हे दादा ! जिस तरह सरोवर के मध्य में घड़ा तैरता है। उसी तरह यह अखिल विश्व आप में स्थित है इसी से आप घैले वाले हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
4- हे दादा! आप ही दुर्गा होकर दुर्गति से बचाते तथा अपने भक्तों को प्रतिपाल करते हो। हे दादा! आप ही काली होकर काल को हटाते तथा दुष्टों को नाश करते हो। हे दादा! आप ही गजानन होकर सब विघ्नों के हरने वाले तथा चारों वाणी के देने वाले हो। हे दादा! आप ही इन्द्र, शुक्र तथा मुन्डी बनकर स्वयं मरे को जिलाने वाले हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
5- हे दादा! आप ही स्वामी होकर अपने सेवकों को सुपंथ से चलाते हो। हे दादा! आप ही यमराज होकर पापियों के पाप भगाते हो। हे दादा! आप ही गुरु बन कर शिष्यों हो, बल्कि इसी काम के लिए डंडे को ग्रहण किया है इसी से आप डंडे वाले दादा कहाते हो। हे दादा! आप ही पिता होकर हम सब पुत्रों को रखाते हो तथा माता होकर हम सब को पालते हो और आप ही भाई बनकर भय से बचाते हो। जिस तरह सर्दी, गर्मी और हवा के उपद्रव से कम्बल बचाता है उसी तरह आप हम सबको बचाते हो इसी से कम्बल वाले दादा कहाते हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
6- हे दादा ! स्वयं आप ही धन्वन्तरि वैद्य होकर सब प्रकार के रोगों को नसाते हो। हे दादा- आप ही दत्तात्रेय होकर सब कुछ दिलाते हो तथा कुदरती नियम बताते हो। हे दादा! स्वयं आप हो मस्त मुक्त अवधूत होकर निज रूप का ज्ञान कराते हो। हे दादा ! हम सब शरणागत आपके चरण की शरण हैं इसी से आप ही हमारी रक्षा करने वाले हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
7- हे दादा! आप ही तीनों आवरणों के विघ्नों के नसाने वाले पुरारी हो इन विघ्नों से तत्काल हमारी रक्षा करो, रक्षा करो हे दादा! आप हमें शरण में आया हुआ जान कर रक्षा करो, कृपा दृष्टि करके रक्षा करो। हे कम्बल वाले दादा कम्बल के समान हमारी त्रिताप से रक्षा करो। हे कामदेव के नासने वाले तथा डंडे वाले दादा हमारी षटविकारों से रक्षा करो इसीलिये हम आपको नमस्कार करते हैं प्रणाम करते हैं। हे धूनी वाले दादा जिस तरह धूनी सब कुछ जला कर विघ्नों से बचाती तथा प्रकाश करती है। उसी तरह आप हमारे षटविकारों को जलाकर और ज्ञान का प्रकाश देकर हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
8- हे! भक्तों के बचाने वाले दादा हमें विघ्नों से बचाने के लिये दौड़ो, दौड़ो। हे! लाज के रखने वाले दादा जल्दी आओ, जल्दी आओ। हे! भक्तों के अपनाने वाले दादा झट हमारी रक्षा करो, रक्षा करो। हे! ज्ञान के कराने वाले दादा तत्काल हमें दर्शन दो, दर्शन दो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
(1)
।। आरती ।।
करत आरती दादा जी की,
जय शिव केशव दादा जी की ।। टेक।।
जिसके द्वारा भय सब भगता।
रोग देह का झट सब नसता।
मिथ्या गर्व हृदय से खसता।
मिटै सभी खुद दुविधा जी की ।। 1 ।।
जिसके द्वारा संकट हटता।
तुर्त सभी का विघ्न निबरता।
नित आनन्द सुमंगल करता।
मिटै सभी खल बाधा जी की ।। 2 ।।
शरण शरण हम शरण तुम्हारी।
दादा रक्षा करो हमारी।
राखो राखो कहत पुकारी।
काटो सभी दादा तन जी की ।। 3 ।।
तुम स्वाती हम पिहु समाना।
तुम पानी हम मीन समाना।
तुम अंशी सब अंशहि प्राणा।
हाथ तुम्हारे गति सब ही की ॥ 4 ॥
प्राण सभी के अन्तर्यामी।
तीनों लोकों के तुम स्वामी ।
प्रेरत हेरत सब की थामी।
वश्य रखत कर रज्जू धीकी ।।5।।
हाथ तुम्हारे लाज हमारी।
जैसा चाहो रखो विचारी।
शरणागत ब्रिद रक्षा कारी।
रखत सदा मर्यादा लीकी ।। 6 ।।
तुम्ही भक्त-वत्सल हो प्यारे ।
भक्त हेत तुम नर तन धारे।
उनके कारज सारत सारे।
पूर्ण करत सब इच्छा जी की ।। 7 ।।
नमत गही पद बारम्बारा।
लखी तुम्है जन का रखवारा।
संकट सभी हरो इस बारा।
अर्ज सुनी झट जन के जी की ।। 8 ।।
जो कि (आरति) शब्द (आ+रति) के योग से बना है जिसमें (आ) का अर्थ सब तरह से उत्तम प्रकार से और (रति) का अर्थ प्रीति है। इस विचार से प्रभु के चरणों में सब तरह उत्तम प्रकार से रति याने प्रीति होना ही आरती कहाती है।
।। अर्थ ।।
कल्याण करने वाले केशव रूप दादा जी आपकी जय हो, हम सब आपकी आरती करते हैं ।। टेक।।
1-- जिस आरती के द्वारा सब प्रकार का भय दूर हो जाता है। और सब प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं, मिथ्या गर्व हृदय से हट जाता है और जी का सब द्वैत भाव मिट जाता है, वह आरती हम आपकी करते हैं।
2-- जिस आरती के द्वारा सब प्रकार का संकट हट जाता है तथा सब प्रकार का विघ्न दूर हो जाता है और दिव्य आनन्द मंगल की प्राप्ति होती है सिवाय जी की सब बाधाएँ दूर हो जाती हैं वही आरती हम सब आपकी करते हैं।
3-- हे दादा! हम सब आपकी शरण हैं, शरण हैं, हमारी रक्षा करो, रक्षा करो। हम पुकार कर कहते हैं कि हमको शरण में रखो, शरण में रखो और सब प्रकार की शारीरिक व्यथाओं को दूर करो। इसलिए हे दादा जी हम सब आपकी आरती करते हैं।
4- · हे दादा जी! आप स्वाती के समान और हम चातक पक्षी के समान हैं। आप पानी के समान और हम मीन के समान हैं, आप हमारे अंशी हैं और हम सब जीव आपके अंश हैं बल्कि हम सब की गति आप ही के हाथ है। इसलिए हे दादा जी हम सब आपकी आरती करते हैं।
5-- हे दादा जी ! आप ही हम सब के प्राण हो और अन्यमी हो तथा आप ही तीन लोक के स्वामी हो सिवाय आप ही सब के प्रेरक, निरक्षक और धारक हो, बल्कि हम सब की बुद्धि रूप बागडोर को अपने हाथ में रखते हो। इसलिए हे दादा हम सब आपकी आरती करते हैं।
6-- हे दादा! हम सब की लज्जा आपके हाथ में है जैसे चाहो वैसे रखो, आप तो शरणागत की पूर्ण रक्षा करने वाले हो और स्वाभाविक यम नियम रूप मर्यादा की सदा रक्षा करने वाले हो इसलिये हे दादा जी! हम सब आपकी आरती करते हैं।
7-- हे प्यारे दादा! आप स्वयं भक्त वत्सल हो तथा भक्तों के लिए ही आपने मनुष्य शरीर धारण किया है और उनके सभी कार्य सुसिद्ध करते हो एवं उनके मन के सभी मनोरथ पूर्ण करते हो। इसलिए दादा जी हम सब आप की आरती करते हैं।
8- हे दादा आपको निज जन का रखवारा समझ कर मैं आप के चरणों में बारम्बार प्रणाम करता हूँ। हे दादा अपने भक्त की हार्दिक प्रार्थना सुनकर तत्काल सभी संकट हर लो। इसलिए हे दादा जी हम सब आपकी आरती करते हैं।
आप सभी के प्रेरक स्वामी,
जो कुछ आप करावत हो।
सभी आपकी सेवा समझी,
सो सब आपहि अर्पित हो।। टेक।।
कान सुनै दिन रात सभी जो,
आपहि शब्द सुनावत हो ।।
समझी कीर्तन श्रवण आपका,
सो सब आपहि अर्पित हो ।
आँखें जो कुछ लखै वस्तु जग,
आपहि रूप दिखावत हो।।
समझी दर्शन ध्यान आपका,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 1 ।।
सूंघे नाक रात दिन जो कुछ ,
आपहि गंध सुंघावत हो।
समझी सोई धूप सुगंधी,
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
खावै चाखै पीवे जो मुख,
जो कुछ आप दिलावत हो ।
स्वयं अग्नि हो आप पचावत,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 2 ।।
तन से जो कुछ आप सहाते,
कर से सभी करावत हो ।
स्नान दान सो अर्चन सेवा,
समझी आपहि अर्पित हो ।।
चलें फिरावे पैर सभी थल,
आपहि उन्हें चलावत हो ।
समझी सो परिक्रमा आपकी,
सो सब आपहि अर्पित ।।3।।
रक्ष रक्ष झट रक्ष पुरारी, विघ्न नसाने वाले जी ।
त्राहि-त्राहि जन शरण निहारी, रक्षो कंबल वाले जी।
नमे नमे हम भो मदनारी, रक्षो डंडे वाले जी।
रक्षो रक्षो कहत पुकारी, रक्षो धूनी वाले जी ।। 7।।
धावो धावो धावो दादा, भक्त बचाने वाले जी ।
आवो आवो आवो दादा, लाज रखाने वाले जी ।
रक्षो रक्षो रक्षो दादा, जन अपनाने वाले जी ।
दीजे दर्शन, दीजे दर्शन, ज्ञान कराने वाले जी ।। 8 ।।
॥ अर्थ ॥
1- हे दादा ! केवल आप ही शून्य रूप से निराकार निर्विकार, अचल, अतन, न जन्मने वाले, बिना नाम और बिना रंग वाले तथा निर्विकल्प होकर रहने वाले हो। हे दादा केवल आप ही स्वयं प्रकाशक रूप से शक्ति, ज्ञान और आनन्द वाले हो, बल्कि केवल आप ही सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ तथा आनन्दरूप होने के कारण स्वयं सच्चिदानन्द कहाते हो तथा केवल आप ही सब के कारण और करने वाले हो । ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो।
2- हे दादा ! केवल आप ही आनन्द रूप से, सभी स्थल, सभी दिशा, तथा सभी काल वाले हो। हे दादा केवल आप ही चित् रूप से सबको चेत कराने वाले तथा गति के देने वाले हो। हे दादा केवलआप ही रूप से सभी सत्ता वाले तथा सब कुछ करने वाले हो। हे दादा केवल आप ही सत्ता ही गति पाकर शक्ति कहाती है। वही सबको आवागमन करा रही है इसी से वह माया और आप माया वाले हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
3- हे दादा! केवल आपकी माया ही आकर्षण, निराकरण तथा स्तम्भन रूप होकर क्रम से रज, तम और सतगुण वाली हो गई और यही तीन शक्तियाँ परस्पर मिल कर महत्व को प्रकाशती हुई बल्कि इन तीन गुणों के सप्त प्रकार के कारण ही वह महत्ज्योति सात प्रकार की हो गई अर्थात् (1) पहली ज्योति केवल रजोगुण वाली (2) दूसरी ज्योति केवल तमोगुण वाली (3) तीसरी ज्योति केवल सतोगुण वाली (4) चौथी ज्योति केवल रज और तम गुण वाली (5) पांचवी ज्योति केवल रज और सतगुण वाली (6) छठवीं ज्योति केवल तम और सतगुण वाली तथा (7) सातवीं ज्योती केवल रज, तम और सत गुण वाली है, इसी तरह एक शक्ति के तीन गुणों के सात प्रस्तारों के द्वारा ही सात रंग वाली सात रंग की ज्योतियां हो गई, इसी कारण शुक्ल ज्योति में त्री पार्शव-द्वारा सात रंग की ज्योतियां दिखाई देती हैं। हे दादा तब आप ही इस माया के कारण प्रकृति पुरुष कहलाते हो। हे दादा पुरुष रूप आप ही प्रकृति से मिल कर विराट शरीर वाले हो। हे दादा! आप ही रजोगुणी आकर्षण शक्ति से मिल कर ब्रह्मा बनते तथा सब जग रचते हो। हे दादा! आप ही तमोगुणी निराकरण शक्ति से मिलकर रुद्र बनते तथा सब जग को संहारते और अन्धकार को हटाते हो। हे दादा। आप ही सतोगुणी स्तम्भन शक्ति से मिल कर विष्णु बनते तथा सब जग का पालन-पोषण करते हो। हे दादा ! जिस तरह सरोवर के मध्य में घड़ा तैरता है। उसी तरह यह अखिल विश्व आप में स्थित है इसी से आप घैले वाले हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
4- हे दादा! आप ही दुर्गा होकर दुर्गति से बचाते तथा अपने भक्तों को प्रतिपाल करते हो। हे दादा! आप ही काली होकर काल को हटाते तथा दुष्टों को नाश करते हो। हे दादा! आप ही गजानन होकर सब विघ्नों के हरने वाले तथा चारों वाणी के देने वाले हो। हे दादा! आप ही इन्द्र, शुक्र तथा मुन्डी बनकर स्वयं मरे को जिलाने वाले हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
5- हे दादा! आप ही स्वामी होकर अपने सेवकों को सुपंथ से चलाते हो। हे दादा! आप ही यमराज होकर पापियों के पाप भगाते हो। हे दादा! आप ही गुरु बन कर शिष्यों हो, बल्कि इसी काम के लिए डंडे को ग्रहण किया है इसी से आप डंडे वाले दादा कहाते हो। हे दादा! आप ही पिता होकर हम सब पुत्रों को रखाते हो तथा माता होकर हम सब को पालते हो और आप ही भाई बनकर भय से बचाते हो। जिस तरह सर्दी, गर्मी और हवा के उपद्रव से कम्बल बचाता है उसी तरह आप हम सबको बचाते हो इसी से कम्बल वाले दादा कहाते हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
6- हे दादा ! स्वयं आप ही धन्वन्तरि वैद्य होकर सब प्रकार के रोगों को नसाते हो। हे दादा- आप ही दत्तात्रेय होकर सब कुछ दिलाते हो तथा कुदरती नियम बताते हो। हे दादा! स्वयं आप हो मस्त मुक्त अवधूत होकर निज रूप का ज्ञान कराते हो। हे दादा ! हम सब शरणागत आपके चरण की शरण हैं इसी से आप ही हमारी रक्षा करने वाले हो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
7- हे दादा! आप ही तीनों आवरणों के विघ्नों के नसाने वाले पुरारी हो इन विघ्नों से तत्काल हमारी रक्षा करो, रक्षा करो हे दादा! आप हमें शरण में आया हुआ जान कर रक्षा करो, कृपा दृष्टि करके रक्षा करो। हे कम्बल वाले दादा कम्बल के समान हमारी त्रिताप से रक्षा करो। हे कामदेव के नासने वाले तथा डंडे वाले दादा हमारी षटविकारों से रक्षा करो इसीलिये हम आपको नमस्कार करते हैं प्रणाम करते हैं। हे धूनी वाले दादा जिस तरह धूनी सब कुछ जला कर विघ्नों से बचाती तथा प्रकाश करती है। उसी तरह आप हमारे षटविकारों को जलाकर और ज्ञान का प्रकाश देकर हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
8- हे! भक्तों के बचाने वाले दादा हमें विघ्नों से बचाने के लिये दौड़ो, दौड़ो। हे! लाज के रखने वाले दादा जल्दी आओ, जल्दी आओ। हे! भक्तों के अपनाने वाले दादा झट हमारी रक्षा करो, रक्षा करो। हे! ज्ञान के कराने वाले दादा तत्काल हमें दर्शन दो, दर्शन दो। ऐसे आप धूनी वाले दादा सदा हमारी रक्षा करो, रक्षा करो।
(1)
।। आरती ।।
करत आरती दादा जी की,
जय शिव केशव दादा जी की ।। टेक।।
जिसके द्वारा भय सब भगता।
रोग देह का झट सब नसता।
मिथ्या गर्व हृदय से खसता।
मिटै सभी खुद दुविधा जी की ।। 1 ।।
जिसके द्वारा संकट हटता।
तुर्त सभी का विघ्न निबरता।
नित आनन्द सुमंगल करता।
मिटै सभी खल बाधा जी की ।। 2 ।।
शरण शरण हम शरण तुम्हारी।
दादा रक्षा करो हमारी।
राखो राखो कहत पुकारी।
काटो सभी दादा तन जी की ।। 3 ।।
तुम स्वाती हम पिहु समाना।
तुम पानी हम मीन समाना।
तुम अंशी सब अंशहि प्राणा।
हाथ तुम्हारे गति सब ही की ॥ 4 ॥
प्राण सभी के अन्तर्यामी।
तीनों लोकों के तुम स्वामी ।
प्रेरत हेरत सब की थामी।
वश्य रखत कर रज्जू धीकी ।।5।।
हाथ तुम्हारे लाज हमारी।
जैसा चाहो रखो विचारी।
शरणागत ब्रिद रक्षा कारी।
रखत सदा मर्यादा लीकी ।। 6 ।।
तुम्ही भक्त-वत्सल हो प्यारे ।
भक्त हेत तुम नर तन धारे।
उनके कारज सारत सारे।
पूर्ण करत सब इच्छा जी की ।। 7 ।।
नमत गही पद बारम्बारा।
लखी तुम्है जन का रखवारा।
संकट सभी हरो इस बारा।
अर्ज सुनी झट जन के जी की ।। 8 ।।
जो कि (आरति) शब्द (आ+रति) के योग से बना है जिसमें (आ) का अर्थ सब तरह से उत्तम प्रकार से और (रति) का अर्थ प्रीति है। इस विचार से प्रभु के चरणों में सब तरह उत्तम प्रकार से रति याने प्रीति होना ही आरती कहाती है।
।। अर्थ ।।
कल्याण करने वाले केशव रूप दादा जी आपकी जय हो, हम सब आपकी आरती करते हैं ।। टेक।।
1-- जिस आरती के द्वारा सब प्रकार का भय दूर हो जाता है। और सब प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं, मिथ्या गर्व हृदय से हट जाता है और जी का सब द्वैत भाव मिट जाता है, वह आरती हम आपकी करते हैं।
2-- जिस आरती के द्वारा सब प्रकार का संकट हट जाता है तथा सब प्रकार का विघ्न दूर हो जाता है और दिव्य आनन्द मंगल की प्राप्ति होती है सिवाय जी की सब बाधाएँ दूर हो जाती हैं वही आरती हम सब आपकी करते हैं।
3-- हे दादा! हम सब आपकी शरण हैं, शरण हैं, हमारी रक्षा करो, रक्षा करो। हम पुकार कर कहते हैं कि हमको शरण में रखो, शरण में रखो और सब प्रकार की शारीरिक व्यथाओं को दूर करो। इसलिए हे दादा जी हम सब आपकी आरती करते हैं।
4- · हे दादा जी! आप स्वाती के समान और हम चातक पक्षी के समान हैं। आप पानी के समान और हम मीन के समान हैं, आप हमारे अंशी हैं और हम सब जीव आपके अंश हैं बल्कि हम सब की गति आप ही के हाथ है। इसलिए हे दादा जी हम सब आपकी आरती करते हैं।
5-- हे दादा जी ! आप ही हम सब के प्राण हो और अन्यमी हो तथा आप ही तीन लोक के स्वामी हो सिवाय आप ही सब के प्रेरक, निरक्षक और धारक हो, बल्कि हम सब की बुद्धि रूप बागडोर को अपने हाथ में रखते हो। इसलिए हे दादा हम सब आपकी आरती करते हैं।
6-- हे दादा! हम सब की लज्जा आपके हाथ में है जैसे चाहो वैसे रखो, आप तो शरणागत की पूर्ण रक्षा करने वाले हो और स्वाभाविक यम नियम रूप मर्यादा की सदा रक्षा करने वाले हो इसलिये हे दादा जी! हम सब आपकी आरती करते हैं।
7-- हे प्यारे दादा! आप स्वयं भक्त वत्सल हो तथा भक्तों के लिए ही आपने मनुष्य शरीर धारण किया है और उनके सभी कार्य सुसिद्ध करते हो एवं उनके मन के सभी मनोरथ पूर्ण करते हो। इसलिए दादा जी हम सब आप की आरती करते हैं।
8- हे दादा आपको निज जन का रखवारा समझ कर मैं आप के चरणों में बारम्बार प्रणाम करता हूँ। हे दादा अपने भक्त की हार्दिक प्रार्थना सुनकर तत्काल सभी संकट हर लो। इसलिए हे दादा जी हम सब आपकी आरती करते हैं।
( 4 )
भजन
आप सभी के प्रेरक स्वामी,
जो कुछ आप करावत हो।
सभी आपकी सेवा समझी,
सो सब आपहि अर्पित हो।। टेक।।
कान सुनै दिन रात सभी जो,
आपहि शब्द सुनावत हो ।।
समझी कीर्तन श्रवण आपका,
सो सब आपहि अर्पित हो ।
आँखें जो कुछ लखै वस्तु जग,
आपहि रूप दिखावत हो।।
समझी दर्शन ध्यान आपका,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 1 ।।
सूंघे नाक रात दिन जो कुछ ,
आपहि गंध सुंघावत हो।
समझी सोई धूप सुगंधी,
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
खावै चाखै पीवे जो मुख,
जो कुछ आप दिलावत हो ।
स्वयं अग्नि हो आप पचावत,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 2 ।।
तन से जो कुछ आप सहाते,
कर से सभी करावत हो ।
स्नान दान सो अर्चन सेवा,
समझी आपहि अर्पित हो ।।
चलें फिरावे पैर सभी थल,
आपहि उन्हें चलावत हो ।
समझी सो परिक्रमा आपकी,
सो सब आपहि अर्पित ।।3।।
ॐ जपावत विद्या द्वारा,
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
हुँ हुँ होता भ्रमर नाद खुद,
जरिये शक्ति जपावत हो।
कुण्डलनी मुख बैठ जपे जी,
सोहं आपही अर्पित हो ।। 4 ।।
स्वयं आरती करता अनहद,
आपहि नाद करावत हो ।
यश गाते सो वाद्य बजाते,
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
चित चीते मन मनन करे जो,
आप बुद्धि जो प्रेरत हो,
ध्यान धारणा वही आप की,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 5 ।।
स्वप्न स्वयं सविकल्प समाधि,
कारण स्वयं सुलावत हो।
बेहोशी निर्विकल्प समाधि,
समझी आपहि अर्पित हो ।।
होय चुका जो आगे होगा,
जो कुछ निश दिन होवत हो।
सभी आप की सेवा समझी,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 6 ।।
।। अर्थ ।।
1-- हे दादा! आप सभी के प्रेरक और स्वामी हो इससे आप इस दास के द्वारा जो कुछ कराते हो, वह सब आपकी सेवा समझकर आप ही को अर्पण किये देता हूँ। टेक।
हे दादा ! ये कान जो कुछ रात दिन सुनते हैं बल्कि आप ही इन कानों के द्वारा शब्द का ज्ञान कराते हो इसलिये उन सब शब्दों को आपका कीर्तन और श्रवण समझ कर वह सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा! ये आँखें जो कुछ दुनिया की चीजें देखती हैं बल्कि आप ही इन नेत्रों के द्वारा सब रूपों का ज्ञान कराते हो इसलिये उन सब रूपों का आप ही का दर्शन और ध्यान समझ कर सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
2-- हे दादा ! यह नाक रात दिन जो कुछ सूंघती है बल्कि आप ही इस नाक के द्वारा गन्ध का ज्ञान कराते हो इसीलिए उन सब गन्धों को आपकी धूप और सुगन्धी समझकर वह सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा! यह मुख जो कुछ खाता पीता या चखता है बल्कि जो कुछ स्वयं आप ही दिलाते हो और आप ही स्वयं अग्नि होकर उसे पचाते हो इसलिये यह सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
3- हे दादा! आप जो कुछ इस तन से सहाते हो तथा हाथ द्वारा जो कुछ कराते हो वह सब स्नान दान तथा आपकी पूजा सेवा समझ कर आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा। ये पैर सभी जगह चलाते फिराते हैं बल्कि आप ही उन्हें शक्ति दे चलाते हैं। इसलिये वह सब चलाना आप ही की परिक्रमा समझ कर वह सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
4- हे दादा! आप पिता व मैं पुत्र हूँ इसीलिए आप मुझसे सोहं जपाते हो और महाविद्या को द्वारा मुझसे ॐ जपाते हो। वह सब जप आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा! लगातार हुँ हुँ भ्रमर के समान शब्द स्वयं भवर गुफा में हुआ करता है बल्कि आप ही वह भ्रमर नाद स्वयं शक्ति के द्वारा जपाते हो इसी से कुण्डलनी के मुख में बैठा हुआ जीव स्वयं (हुँ) को जपा करता है। वह सब (हूँ) का जप आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
5-- हे दादा ! यह अनहद मानो सदा आपकी आरती किया करता है बल्कि गति के द्वारा आप ही नाद कराते हो, मानो वे नाद स्वयं बजाते तथा आप ही का यश गाते हैं। इसलिए वे सब नाद आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा! यह चित्त जो कुछ चीतता है तथा यह मन जो कुछ मनन करता है और यह बुद्धि जो कुछ उचित बोध कराती है, वह सब आप ही की प्रेरणा से होता है इसलिये उस चीते हुए, मनन किये हुए तथा विचारे हुए विषय को आप ही का ध्यान तथा आप ही की धारणा समझ कर आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
6-- हे दादा! स्वयं आप ही मुझे अपनी योग माया के द्वारा सुलाते हो इसलिए मैं स्वप्न की दशा को सविकल्प समाधी और सुषुप्ति की दशा को निर्विकल्प समाधी समझ कर आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा। आज तक जो कुछ हो चुका और आगे को जो कुछ होगा तथा जो कुछ रात दिन हो रहा है, वह सब आप ही को सेवा समझ कर आप ही को अर्पण किये देता हूँ क्योंकि आप ही सबके प्रेरक और स्वामी हो, इसी से जो कुछ आप कराते हो, वह सब आप ही की सेवा समझ कर, आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
।। मदिरा छन्द सवैया ।।
प्राण समर्पत जीव समर्पत धी मन अर्पत चित्त तुझे।
अर्प अहं दश इन्द्रि समर्पत देह समर्पत तीन तुझे ।।
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
हुँ हुँ होता भ्रमर नाद खुद,
जरिये शक्ति जपावत हो।
कुण्डलनी मुख बैठ जपे जी,
सोहं आपही अर्पित हो ।। 4 ।।
स्वयं आरती करता अनहद,
आपहि नाद करावत हो ।
यश गाते सो वाद्य बजाते,
सो सब आपहि अर्पित हो ।।
चित चीते मन मनन करे जो,
आप बुद्धि जो प्रेरत हो,
ध्यान धारणा वही आप की,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 5 ।।
स्वप्न स्वयं सविकल्प समाधि,
कारण स्वयं सुलावत हो।
बेहोशी निर्विकल्प समाधि,
समझी आपहि अर्पित हो ।।
होय चुका जो आगे होगा,
जो कुछ निश दिन होवत हो।
सभी आप की सेवा समझी,
सो सब आपहि अर्पित हो ।। 6 ।।
।। अर्थ ।।
1-- हे दादा! आप सभी के प्रेरक और स्वामी हो इससे आप इस दास के द्वारा जो कुछ कराते हो, वह सब आपकी सेवा समझकर आप ही को अर्पण किये देता हूँ। टेक।
हे दादा ! ये कान जो कुछ रात दिन सुनते हैं बल्कि आप ही इन कानों के द्वारा शब्द का ज्ञान कराते हो इसलिये उन सब शब्दों को आपका कीर्तन और श्रवण समझ कर वह सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा! ये आँखें जो कुछ दुनिया की चीजें देखती हैं बल्कि आप ही इन नेत्रों के द्वारा सब रूपों का ज्ञान कराते हो इसलिये उन सब रूपों का आप ही का दर्शन और ध्यान समझ कर सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
2-- हे दादा ! यह नाक रात दिन जो कुछ सूंघती है बल्कि आप ही इस नाक के द्वारा गन्ध का ज्ञान कराते हो इसीलिए उन सब गन्धों को आपकी धूप और सुगन्धी समझकर वह सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा! यह मुख जो कुछ खाता पीता या चखता है बल्कि जो कुछ स्वयं आप ही दिलाते हो और आप ही स्वयं अग्नि होकर उसे पचाते हो इसलिये यह सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
3- हे दादा! आप जो कुछ इस तन से सहाते हो तथा हाथ द्वारा जो कुछ कराते हो वह सब स्नान दान तथा आपकी पूजा सेवा समझ कर आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा। ये पैर सभी जगह चलाते फिराते हैं बल्कि आप ही उन्हें शक्ति दे चलाते हैं। इसलिये वह सब चलाना आप ही की परिक्रमा समझ कर वह सब आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
4- हे दादा! आप पिता व मैं पुत्र हूँ इसीलिए आप मुझसे सोहं जपाते हो और महाविद्या को द्वारा मुझसे ॐ जपाते हो। वह सब जप आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा! लगातार हुँ हुँ भ्रमर के समान शब्द स्वयं भवर गुफा में हुआ करता है बल्कि आप ही वह भ्रमर नाद स्वयं शक्ति के द्वारा जपाते हो इसी से कुण्डलनी के मुख में बैठा हुआ जीव स्वयं (हुँ) को जपा करता है। वह सब (हूँ) का जप आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
5-- हे दादा ! यह अनहद मानो सदा आपकी आरती किया करता है बल्कि गति के द्वारा आप ही नाद कराते हो, मानो वे नाद स्वयं बजाते तथा आप ही का यश गाते हैं। इसलिए वे सब नाद आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा! यह चित्त जो कुछ चीतता है तथा यह मन जो कुछ मनन करता है और यह बुद्धि जो कुछ उचित बोध कराती है, वह सब आप ही की प्रेरणा से होता है इसलिये उस चीते हुए, मनन किये हुए तथा विचारे हुए विषय को आप ही का ध्यान तथा आप ही की धारणा समझ कर आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
6-- हे दादा! स्वयं आप ही मुझे अपनी योग माया के द्वारा सुलाते हो इसलिए मैं स्वप्न की दशा को सविकल्प समाधी और सुषुप्ति की दशा को निर्विकल्प समाधी समझ कर आप ही को अर्पण किये देता हूँ। हे दादा। आज तक जो कुछ हो चुका और आगे को जो कुछ होगा तथा जो कुछ रात दिन हो रहा है, वह सब आप ही को सेवा समझ कर आप ही को अर्पण किये देता हूँ क्योंकि आप ही सबके प्रेरक और स्वामी हो, इसी से जो कुछ आप कराते हो, वह सब आप ही की सेवा समझ कर, आप ही को अर्पण किये देता हूँ।
।। मदिरा छन्द सवैया ।।
प्राण समर्पत जीव समर्पत धी मन अर्पत चित्त तुझे।
अर्प अहं दश इन्द्रि समर्पत देह समर्पत तीन तुझे ।।
त्रैगुण अर्पत अक्स हुए सब होवत होवन हार तुझे।
सर्वदशा त्रयताप समर्पत ज्ञानरुचि सब शक्ति तुझे ।।1।।
आप तुही सबका खुद कारण आप फुरै तब सर्व फुरे।
आप तुही सबका खुद कारण आप फुरै तब सर्व फुरे।
एक तुही जग प्रेरत हेरत भक्षत रक्षत सर्व करे ।।
ये तुझ में तब अर्पि तुझे नमि ते कहि पाहि सुत्राहि हरे । दासलखि सुतशिष्यलखी तव अंशलखी अपनाव हरे।।2।।
॥ अर्थ ।।
1-- हे दादा जी! मैं आपको अपना प्राण तथा जीव समर्पित करता हूँ, चित्त, मन और बुद्धि समर्पित करता हूँ, अहंकार भी समर्पित करता हूँ, तीनों देह सहित दशों इन्द्रियाँ समर्पित करता हूँ, तीनों गुण तथा तीनों संस्कार समर्पित करता हूँ, जो सब हो चुके, जो हो रहे हैं और जो होयेगें वे सब आपको समर्पित करता हूँ, तीनों दशा तथा तीनों ताप समर्पित करता हूँ, सब ज्ञान शक्ति और इच्छा भी आपको समर्पित करता हूँ।
2- • क्योंकि खुद आप ही सबका कारण हो, बल्कि जब आप फुरते हो तभी सब कुछ होता है, एक आप ही सब जगत के प्रेरक, रक्षक, निरक्षक, भक्षक तथा सब कुछ करने धरने वाले हो इसलिए ये सब आपके उपजाये हुए आप ही को समर्पित करता हूँ और आप ही को प्रणाम करता हूँ कि सब विघ्नों के हरने वाले दादा झट मुझ शरणागत को रक्षा कीजिए तथा कृपा दृष्टि करके मेरी रक्षा कीजिए बल्कि हे दादा मुझे अपना दास, पुत्र या शिष्य समझ कर अथवा अपना अंश समझकर अपनाइये।
(2)
।। नाराच छन्द ।।
स चीमटा उठाए ईट दंड से डरावते ।
स गोबरी स आग भस्म फैंक के भगावते ।।
विनोच खींच दाब फेंक, मार भी लगावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 1।।
प्रसन्न होय क्षौर आप नित्य ही बनावते ।
रहें सदा विनग्न रूप धूनि भी रमावते ।।
नहाय ना कदा कभी सुनीर सीस प्लावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 2 ।।
सुगन्ध पुष्प बिल्व पत्र भक्त आ चढ़ावते ।
अनेक दिव्य माल टाल भोग भी लगावते ।।
उसे उठाय लेत देत खात या बहावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 3 ।।
सही सभी जु उष्ण शीत दर्श हेत आवते ।
खड़े रहें म कीच धूप भक्त नीर प्लावते ।।
पड़े पगों तभी जु आप वस्त्र फाड़ जारते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 4 ।।
ये तुझ में तब अर्पि तुझे नमि ते कहि पाहि सुत्राहि हरे । दासलखि सुतशिष्यलखी तव अंशलखी अपनाव हरे।।2।।
॥ अर्थ ।।
1-- हे दादा जी! मैं आपको अपना प्राण तथा जीव समर्पित करता हूँ, चित्त, मन और बुद्धि समर्पित करता हूँ, अहंकार भी समर्पित करता हूँ, तीनों देह सहित दशों इन्द्रियाँ समर्पित करता हूँ, तीनों गुण तथा तीनों संस्कार समर्पित करता हूँ, जो सब हो चुके, जो हो रहे हैं और जो होयेगें वे सब आपको समर्पित करता हूँ, तीनों दशा तथा तीनों ताप समर्पित करता हूँ, सब ज्ञान शक्ति और इच्छा भी आपको समर्पित करता हूँ।
2- • क्योंकि खुद आप ही सबका कारण हो, बल्कि जब आप फुरते हो तभी सब कुछ होता है, एक आप ही सब जगत के प्रेरक, रक्षक, निरक्षक, भक्षक तथा सब कुछ करने धरने वाले हो इसलिए ये सब आपके उपजाये हुए आप ही को समर्पित करता हूँ और आप ही को प्रणाम करता हूँ कि सब विघ्नों के हरने वाले दादा झट मुझ शरणागत को रक्षा कीजिए तथा कृपा दृष्टि करके मेरी रक्षा कीजिए बल्कि हे दादा मुझे अपना दास, पुत्र या शिष्य समझ कर अथवा अपना अंश समझकर अपनाइये।
(2)
।। नाराच छन्द ।।
स चीमटा उठाए ईट दंड से डरावते ।
स गोबरी स आग भस्म फैंक के भगावते ।।
विनोच खींच दाब फेंक, मार भी लगावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 1।।
प्रसन्न होय क्षौर आप नित्य ही बनावते ।
रहें सदा विनग्न रूप धूनि भी रमावते ।।
नहाय ना कदा कभी सुनीर सीस प्लावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 2 ।।
सुगन्ध पुष्प बिल्व पत्र भक्त आ चढ़ावते ।
अनेक दिव्य माल टाल भोग भी लगावते ।।
उसे उठाय लेत देत खात या बहावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 3 ।।
सही सभी जु उष्ण शीत दर्श हेत आवते ।
खड़े रहें म कीच धूप भक्त नीर प्लावते ।।
पड़े पगों तभी जु आप वस्त्र फाड़ जारते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 4 ।।
अनेक भक्त माल टाल संत को जिमावते ।
स डूण्ड काष्ट गोबरी जु धूनी में लगावते ।।
उन्हें जु आप देत गारि लिंग हूँ दिखावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 5 ।।
अनेक भक्त तेल घी सुजोत में जलावते ।
तुम्हारे दाब हाथ पैर अंग भी मलावते ।।
उन्हें कभी हटाय देत तेल घी दुरावते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 6 ।।
अनेक भक्त नीर लाय धूनि पै रखावते ।
अनेक लाय कामरी तुझे भली उढ़ावते ।।
घड़े तू फोड़ तोड़ देत कामरी जलावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 7 ||
अनेक पाक शाक रोट हुक्म पा बनावते ।
परन्तु आप मार कूट खून ये बहावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 8 ।।
जु क्योंकि आप रोग शोक हानियाँ भगावते ।
अपंग पाद बांझ पुत्र, कंग द्रव्य प्लावते ।।
सुतासु लग्न, जाल भग्न, पातकी बचावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 9।।
अकाल मृत्यु दूर सार कै मरे जिलावते ।
जिसे चहे वही उसे सदा सभी दिलावते ।।
विज्ञान, ज्ञान, ऋद्धि-सिद्धि, भक्ति मुक्ति प्लावते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 10।।
॥ अर्थ ॥
1-- तू चीमटा, ईट या डंडा उठाकर भक्तों को डराता है तथा कंडे, आग, राख फेंक कर भक्तों को भगाता है अथवा भक्तों को नोचता, खींचता, दाबता, धकाता या मारता भी है, तिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़ कर तुझे शीश नवाते हैं।
2-- तू प्रसन्न होकर नित्य ही बाल बनवाया करता है, सदा नग्न रूप रहता है और धूनी भी रमाता है, तू कभी नहीं नहाता कदाचित सिर पर पानी डाल लेता है, तिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़ कर तुझे शीश नवाते हैं।
3- भक्त लोग आकर गन्ध, पुष्प, बिल्व-पत्र आदि तुझे चढ़ाते हैं और अनेक प्रकार के सुंदर माल का भोग लगाते हैं, उस भोग को उठाकर तू लेता, देता, खाता या फेंक देता है, जिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
4-- सब भक्त लोग गर्मी, सर्दी आदि सह कर भी तेरे दर्शन को आते हैं और वे कीचड़ धूप या पानी में भीगते हुए भी खड़े रहते हैं किन्तु ज्यों ही वे तेरे पैर पड़ते हैं त्यों ही तू उनके वस्त्र फाड़ देता या जला देता है, तिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़ कर तुझे शीश नवाते हैं।
5-- अनेक भक्त अनेक प्रकार के माल टाल साधुओं को जिमाते हैं और वे धूनी में लकड़ी-कंडे तथा डण्डे आदि लगाते हैं, इतने पर भी तू उन्हें गालियां देकर लिंग तक दिखाता है, तिस पर भी वे सब भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
6- अनेक भक्त खुशी से तेल और घी की ज्योतियां जलाते हैं तथा हाथ-पैर दाब कर तेरे शरीर में भी तेल मलते हैं, किन्तु तू उन्हें हटा देता तथा कभी घी तेल को गिरा देता है, तिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
7- अनेक भक्त पानी के घड़े लाकर धूनी पर रखते हैं और अनेक भक्त सुंदर कम्बल लाकर तुझे ओढ़ाते हैं, किन्तु तू घड़ों को फोड़-तोड़ देता और कम्बल को जला देता है, तिस पर भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
8- अनेक भक्त तेरी आज्ञा पाकर अनेक प्रकार के पकवान या टिक्कड़ शाकें बनाते हैं और अनेक भक्त तेरे स्थान को लीपते-पोतते, झाड़ते तथा धूनी को भी सुधारते हैं परन्तु तू उन्हें मार-कूट कर खून बहाता है, तिस पर भी वे सब भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
9-- क्योंकि तू अनेक प्रकार के रोग शोक तथा हानियाँ भगाता है पंगुओं को चला देता, बाँझ को पुत्र देता तथा कंगालों को धन देता है बल्कि लड़कियों का ब्याह करा देता है, झंझटों को हटा देता तथा पापों से बचा देता है। इसी से सब भक्त लोग हाथ जोड़ कर तुझे शीश नवाते हैं।
10-- तू अकाल मृत्यु को हटाता, मरों को जिलाता तथा जो चाहे उसे वही दिलाता है बल्कि विज्ञान ऋद्धि-सिद्धि, भक्ति-मुक्ति भी देता है। इसी से सब भक्त हाथ जोड़ कर शीश नवाते हैं।
(5)
।। भजन ।।
केशव विनय
जो जन सन्मुख हुक्म चलाय।
गाली दे या देय धकाय।। 1।।
करे बुराई मार भगाय।
वह जन तुझे तनक न भाय ।। 2 ।।
सन्मुख जो जन जिसे सताय।
उसका पातक उसे दिलाय।। 3 ।।
जिसका भोजन जो ले खाय।
उसका उसको पाप दिलाय।। 4 ।।
रहे मौन खा गाली मार।
ना मन जरे उसे दे तार ।। 5 ।।
आप अनेकों विधि बताय।
जन के पातक देत नसाय ।। 6 ।।
भण्डारा जितने जन खांय।
लें उतने ता पाप बटाय ।। 7।।
चूड़ी फोड़ी वैधव खोय।
ले टीकी पति चंगा होय ।। 8 ।।
उठत शक्ति के विपुल तरंग।
भले बुरे के वे घुस अंग ।। १ ।।
हो दूषित जब बाहर जाय।
लागत जिसे हानि पहुंचाय।। 10।।
उनसे तू झट देत बचाय।
इधर उधर ता जनहिं हटाय।। 11।।
बुरी घड़ी जब कोई आय।
जनहि बिठा खुद लेत भुगाय।। 12।।
घड़ी देख शुभ देत रजाय।
सिद्ध करत सब काम पठाय।। 13।।
दे रोटी तू जिसे खिलाय।
अन्न कष्ट वह कभी न पाय ।। 14।।
कहे किसे तू किसे सुनाय।
होनहार सब देत बताय।। 15।।
तब निश्चय ना राखे जोय।
उसे दिखे तू औरहि कोय।। 16।।
कपट प्रेम कर छल से आय।
वह जन तुझे तनक ना भाय।। 17।।
उसका जरा करै ना काम।
चाहे तुझे करै बदनाम।। 18।।
पापी चाहे जैसा होय।
शरण लखी तू राखे सोय।। 19।।
उसका साधे तू सब काम ।
जात पन्थ कुल लखे न धाम ।। 20 ।।
करै भक्ति जो जन जिस हेत।
वहीं वस्तु तू ताको देत।। 21 ।।
करनीवत भुगतावे भोग।
भला-बुरा ता सुख-दुख रोग।। 22।।
शरणागत उर दृढ़ता देख।
मारत स्वयं रेख पर मेख।। 23।।
किये पाप ले जन्म अनेक।
दे भुगता तू जन्महि एक ।। 24 ।।
एक जन्म के पाप जितेक।
तू भुगता दे वर्षहि एक ।। 25 ।।
वर्ष मास में, मास दिनेक।
मेटे दिन अघ पल में एक ।। 26।।
दण्ड देत तू बन यमराज ।
पाछे तूर्त सुधारे काज ।। 27 ।।
देख दण्ड जो नर भाग जाय।
बिलकुल कोरा वह रह जाए।। 28 ।।
धैर्य धरी जो खावे मार ।
निश्चय उसको तू दे तार ।। 29 ।।
बिना मार सब धर्मी पाय ।
बिन पढ़ा ज्ञानी हो जाय ।। 30 ।।
ऋद्धि-सिद्धि तू मुक्ति देत ।
दे निज भक्ति दुख हर लेत।। 31।।
तव आज्ञा ना माने जोय।
उसका कारज कभी न होय ।। 32।।
वह खावै फोकट में मार ।
तौभी करते कुछ उपकार ।। 33 ।।
बने जहां तक आज्ञा भंग।
करैं कभी ना तजै अडंग ।। 34।।
जितना सधै करे मन पाग।
निश्चय उसका खोले भाग ।। 35।।
जो जन राखै तब मर्याद।
राखै सदा उसे तू याद ।। 36 ।।
जो करता मर्यादा भंग।
उसको सदा करै तू तंग ।। 37 ।।
सृष्टि नियम वत तव मर्यादा।
सबको करै सदा आबाद।। 38 ।।
जो नर जाकी निन्दा करै।
ताको पातक ता सिर धरै।। 39।।
चोरी जारी जो जस करें।
सो जस ताको फल अनुसरै ।। 40।।
।। अर्थ ।।
1- हे दादा ! जो मनुष्य तेरे सन्मुख औरों पर हुक्म चलाता है, गाली देता है, या क्का देता है।
2- जो बुराई करता है, मारता है या भगा देता है वह मनुष्य तुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। 3- हे दादा ! जो जन तेरे सन्मुख जिसे सताता है तू उसका पाप सताने वाले को देता है।
4- हे दादा ! जो जन जिसका भोजन लेकर खा जाता है, तू खाने वाले को उसका पाप दिलाता है।
5- हे दादा ! जो जन औरों की गाली तथा औरों की मार खा कर चुप रहता है और मन में उस पर नहीं जलता, उस मनुष्य तार देता है। तू
6- हे दादा ! तू अनेकों विधि बता कर भक्तों के पाप नसा देता है।
7- हे दादा ! जितने मनुष्य भंडारा खाते हैं वे सब भंडारा करने वाले का पाप बांट लेते हैं।
8- हे दादा ! तू स्त्रियों की चूड़ी फोड़ कर उनका होने वाला विधवापन खो देता है और उनके सिर की टीकी लेकर उनके पति को चंगा कर देता है।
9 • हे दादा ! जो अदृश्य शक्ति के अनेक तरंग उठा करते हैं बल्कि वे ही परस्पर भले-बुरे के शरीरों में घुसा करते हैं।
10- वे ही बुरे अंगों से दूषित होकर बाहर निकलते हैं तब वे दूषित तरंग जिसे लगते हैं या जिसमें घुसते हैं उसे हानि पहुंचाते हैं।
11- हे दादा ! तब तू अपने भक्तों को इधर-उधर हटा कर उन्हें बुरे तरंगों से बचा देता है।
12- हे दादा ! जब किसी भक्त की बुरी घड़ी आती है तब तू उसे अपने पास बिठा कर तथा भगा कर बचा लेता है।
13- जब शुभ घड़ी आती हुई देखता है तब उसे बिदा कर उसके सब काम सिद्ध करता है ।
14- हे दादा ! तू जिसे रोटी देता या खिला देता है उसे अन्न कष्ट कभी होने नहीं होने पाता।
15- हे दादा! तू किस की बात किसी और ही को सुना कर कहता है बल्कि इस तरह होनहार कह देता है।
16- हे दादा ! जो जन तुझ पर विश्वास नहीं रखता उसे तू
कुछ और ही दीखता है।
17- हे दादा ! जो कपटी मन में छल रख कर तेरे पास आता है और ऊपर से प्रेम दिखाता है वह मनुष्य तुझे बिल्कुल नहीं सुहाता ।
18- उसका तू जरा सा भी काम नहीं करता चाहे वह तुझे
कितना ही बदनाम क्यों न करे।
19- हे दादा ! चाहे कैसा ही पापी क्यों न हो तो भी तू उसे शरण में रख लेता है।
20- और उसका सब कुछ काम सिद्ध करता है लेकिन उसके काम, जात, मत या कुल पर लक्ष नहीं देता।
21- हे दादा ! जो जन जिस काम के लिये तेरी भक्ति करता है तू उस भक्त को वही वस्तु प्रदान करता है।
22- हे दादा ! तू स्वयं भक्त का उसकी करनी के अनुसार भला-बुरा, सुख-दुःख, रोग-शोक भगा देता है।
23- हे दादा ! तू जब अपने शरण में आये हुए भक्त का पूर्ण दृढ़ विश्वास देख लेता है तब उसके भाग्य की बुरी रेखा पर भी मेख मार देता है अर्थात् उसकी बुरी रेखा मिटा देता है।
24- हे दादा ! तू भक्तों के अनेक जन्मों के किये हुए पापों को,एक ही जन्म में भगा देता है।
25- एक जन्म भर के किये हुए पापों को तू एक ही वर्ष में भगा देता है।
26- वर्ष भर के किये पापों को एक मास में भगा देता है और एक मास के किये पापों को एक दिन में भगा देता है बल्कि एक दिन के किये पापों को एक क्षण में भगा देता है।
27- हे दादा ! तू यमराज बन कर दण्ड देता है, किन्तु पीछे उस भक्त का शीघ्र ही काम सुधार देता है।
28- हे दादा ! जो मनुष्य तेरा डंडा देख कर भाग जाता है वह बिल्कुल ही कोरा रह जाता है अर्थात् उसका कोई काम सिद्ध नहीं होता।
29- लेकिन जो मन में धैर्य रखकर मार भी खा लेता है तू निश्चय उस भक्त को तार देता है।
30 - परन्तु धर्मी मनुष्य बिना मार के ही सब कुछ पा जाता है। बल्कि तेरी कृपा दृष्टि से बिना पढ़ा हुआ भी ज्ञानी हो जाता है।
31- हे दादा तू भक्त को ऋद्धि-सिद्धि, भक्ति तथा मुक्ति भी देता है बल्कि अपनी भक्ति देकर उसका सब दुःख हर लेता है।
32- हे दादा ! जो जान-बूझ कर तेरी आज्ञा नहीं मानता
उसका कार्य कभी सिद्ध नहीं होता।
33- वह फोकट ही में मार खाता है तो भी आप उस पर कुछ कृपा करते ही हो ।
34- इसलिये जहां तक बन सके वहां तक आज्ञा भंग कभी न करे और सब प्रकार की हठ भी छोड़ दें।
35- हे दादा ! जितना जिससे सध सके उतना ही जो जन दिलोजान से भक्तिपूर्वक कार्य करता है तू उसका निश्चयपूर्वक भाग्य उदय कर देता है।
36- हे दादा! जो मनुष्य तेरी मर्यादा रखता है उसे तू भी सदा याद रखता है।
37- किन्तु जो तेरी मर्यादा भंग करता है उसे तू भी सदा तंग करता है।
38- हे दादा! तेरी मर्यादा ठीक सृष्टि नियम का पालन है जो सबको सदा आबाद रखती है अर्थात् सदा हरा भरा बनाये रखती है।
39- हे दादा ! जो जन जिसकी निन्दा करता है उसका पातक तु निन्दक के सिर पर रखता है।
40- जो कोई जिस तरह चोरी आदि कुकर्म करता है तू उसको उसका उसी तरह फल देता है।
।। दोहा ।।
भूखा प्यासा तू रखी, ताय तपाय दबाय।
सांच झूठ की जांच कर, देता ज्ञान बताय ।। 1।।
आने दे तू पास ना, दे गाली दे मार ।
करी निराशा देत तू, भक्तहि को निज तार ।। 2 ।।
औरों की करतूत पर, जो ना धरता ध्यान।
पड़ा रहै दुःख भोग ले, तभी देत तू ज्ञान ।। 3 ।।
हम सब तेरे पुत्र हैं, तू हम सबका बाप ।
तू ही पढ़ाता पालता, तू ही बचाता आप ।। 4 ।।
।। अर्थ ॥
1- हे दादा! तू अपने भक्त को भूखा-प्यासा रखकर उसे अच्छी तरह तपाता, दबाता तथा कष्ट देता है। इस तरह उसके सत्य-झूठ की जांच करके उसे निज ज्ञान देता है।
2- हे दादा! तू निज भक्त को गाली देता, मार लगाता तथा अपने पास तक नहीं आने देता। इस तरह उसको निराश करता, अर्थात् उसे वैराग्य उपजा कर तार देता है।
3- हे दादा ! जो भक्त औरों की करतूत पर ध्यान नहीं देता, बल्कि दुःख भोगता हुआ भी तेरी शरण में पड़ा रहता है उसी भक्त को तू निज रूप का ज्ञान कराता है।
4- हे दादा ! हम सब तेरे पुत्र हैं और तू ही हम सबका बाप है, इसी से तू स्वयं हमें पढ़ाता है, पालता तथा बचाता है।
।। मन्त्र सन्ध्यागत ।।
आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागर ।
सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ।। 1।।
जहां तहां आकाश से गिरा हुआ पानी जिस तरह समुद्र में पहुँच जाता है ठीक उसी तरह हे केशव रूप दादा जी प्रत्येक देव या व्यक्ति को नमन करने से वह नमस्कार केवल आप ही के प्रति पहुँचता है इसलिये आप ही को प्रणाम है।
|| इति शुभम् ||
दोस्तों यदि आपको यह जानकारी अच्छी लगी हैं और आप हमारे काम से खुश है तो आप हमें online Donate (दान) कर सकते है। Plese Click Here For Donate
स डूण्ड काष्ट गोबरी जु धूनी में लगावते ।।
उन्हें जु आप देत गारि लिंग हूँ दिखावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 5 ।।
अनेक भक्त तेल घी सुजोत में जलावते ।
तुम्हारे दाब हाथ पैर अंग भी मलावते ।।
उन्हें कभी हटाय देत तेल घी दुरावते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 6 ।।
अनेक भक्त नीर लाय धूनि पै रखावते ।
अनेक लाय कामरी तुझे भली उढ़ावते ।।
घड़े तू फोड़ तोड़ देत कामरी जलावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 7 ||
अनेक पाक शाक रोट हुक्म पा बनावते ।
परन्तु आप मार कूट खून ये बहावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 8 ।।
जु क्योंकि आप रोग शोक हानियाँ भगावते ।
अपंग पाद बांझ पुत्र, कंग द्रव्य प्लावते ।।
सुतासु लग्न, जाल भग्न, पातकी बचावते ।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 9।।
अकाल मृत्यु दूर सार कै मरे जिलावते ।
जिसे चहे वही उसे सदा सभी दिलावते ।।
विज्ञान, ज्ञान, ऋद्धि-सिद्धि, भक्ति मुक्ति प्लावते।
तऊ तुझे सभी जु हाथ जोड़ सीस नावते ।। 10।।
॥ अर्थ ॥
1-- तू चीमटा, ईट या डंडा उठाकर भक्तों को डराता है तथा कंडे, आग, राख फेंक कर भक्तों को भगाता है अथवा भक्तों को नोचता, खींचता, दाबता, धकाता या मारता भी है, तिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़ कर तुझे शीश नवाते हैं।
2-- तू प्रसन्न होकर नित्य ही बाल बनवाया करता है, सदा नग्न रूप रहता है और धूनी भी रमाता है, तू कभी नहीं नहाता कदाचित सिर पर पानी डाल लेता है, तिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़ कर तुझे शीश नवाते हैं।
3- भक्त लोग आकर गन्ध, पुष्प, बिल्व-पत्र आदि तुझे चढ़ाते हैं और अनेक प्रकार के सुंदर माल का भोग लगाते हैं, उस भोग को उठाकर तू लेता, देता, खाता या फेंक देता है, जिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
4-- सब भक्त लोग गर्मी, सर्दी आदि सह कर भी तेरे दर्शन को आते हैं और वे कीचड़ धूप या पानी में भीगते हुए भी खड़े रहते हैं किन्तु ज्यों ही वे तेरे पैर पड़ते हैं त्यों ही तू उनके वस्त्र फाड़ देता या जला देता है, तिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़ कर तुझे शीश नवाते हैं।
5-- अनेक भक्त अनेक प्रकार के माल टाल साधुओं को जिमाते हैं और वे धूनी में लकड़ी-कंडे तथा डण्डे आदि लगाते हैं, इतने पर भी तू उन्हें गालियां देकर लिंग तक दिखाता है, तिस पर भी वे सब भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
6- अनेक भक्त खुशी से तेल और घी की ज्योतियां जलाते हैं तथा हाथ-पैर दाब कर तेरे शरीर में भी तेल मलते हैं, किन्तु तू उन्हें हटा देता तथा कभी घी तेल को गिरा देता है, तिस पर भी सब भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
7- अनेक भक्त पानी के घड़े लाकर धूनी पर रखते हैं और अनेक भक्त सुंदर कम्बल लाकर तुझे ओढ़ाते हैं, किन्तु तू घड़ों को फोड़-तोड़ देता और कम्बल को जला देता है, तिस पर भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
8- अनेक भक्त तेरी आज्ञा पाकर अनेक प्रकार के पकवान या टिक्कड़ शाकें बनाते हैं और अनेक भक्त तेरे स्थान को लीपते-पोतते, झाड़ते तथा धूनी को भी सुधारते हैं परन्तु तू उन्हें मार-कूट कर खून बहाता है, तिस पर भी वे सब भक्त लोग हाथ जोड़कर तुझे शीश नवाते हैं।
9-- क्योंकि तू अनेक प्रकार के रोग शोक तथा हानियाँ भगाता है पंगुओं को चला देता, बाँझ को पुत्र देता तथा कंगालों को धन देता है बल्कि लड़कियों का ब्याह करा देता है, झंझटों को हटा देता तथा पापों से बचा देता है। इसी से सब भक्त लोग हाथ जोड़ कर तुझे शीश नवाते हैं।
10-- तू अकाल मृत्यु को हटाता, मरों को जिलाता तथा जो चाहे उसे वही दिलाता है बल्कि विज्ञान ऋद्धि-सिद्धि, भक्ति-मुक्ति भी देता है। इसी से सब भक्त हाथ जोड़ कर शीश नवाते हैं।
(5)
।। भजन ।।
दादा नाम तभी तब होय।
दादा नाम तभी तब होय ।। टेक।।
दादा नाम तभी तब होय ।। टेक।।
सभी काल थल सभी ओर तू, दे सकता सब कोय ।
जन दे, धन दे, अन्न भूमि दे, क्षीर चीर दे तोय ।।
पुष्टि तुष्टि दे, क्रान्ति शान्ति दे, आयु अभय दे लोय।
यश दे, सुख दे, प्राण मान दे, भव के रुज दे खोय।। 1।।
कर काँचहि दे ककड़ी मिश्री, पत्थर देत विलोय।
तेल सघृत शर्करा बना दे, आग बना दे जोय ।।
कर अटूट भंडार हि देवे, सभी जहर दे खोय।
गड़े उठा दे, मरे जिला दे, दरे उगादे टोय ।। 2 ।।
देत असम्भव को कर सम्भव, संस्कार दें धोय।
सम दे संयम योग युक्ति दे, धी विद्या दे दोय।।
अन्तर्यामी शिष्य बना दे, ज्ञान करा दे गोय ।
ऋद्धि-सिद्धि दे,सभी शक्ति दे,भक्ति-मुक्ति दे सोय।। 3।।
दादा दादू दद्दा दाजी, तू पर दादा जोय।
सब दादों का दादा तू दा, तुही दाय जी होय ।।
दाता का भी दाता है तू, सभी ददा दे खोय।
गही चरण बिच शरण हो, निजरति दे चिरसोय ।। 4 ।।
॥ अर्थ ।।
1- हे दादा! तू अपने भक्तों को सदा सर्वत्र सब कुछ दे सकता है अर्थात् उन्हें जन देता है, धन देता है, अन्न और भूमि देता है, क्षीर, चीर और नीर देता है, पुष्टि और तुष्टि देता है, क्रान्ति और शान्ति देता है, आयु और शक्ति देता है, ज्ञान का प्रकाश करके अभय दान देता है, यश और सुख देता है, प्राण और मान देता है, बल्कि संसार के सभी रोग खो देता है, इसलिये तुझे दादा कहते हैं क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला है या सब कुछ देने वाला है।
2-- हे दादा ! तू कांच को भी ककड़ी और मिश्री कर देता है, पत्थर को भी मक्खन के समान मुलायम कर देता है, पानी से भी घी या तेल बना देता है, धूल को शक्कर कर देता है, देखने मात्र से आग जला देता है, इच्छा मात्र से भण्डार को अटूट कर देता है, तत्काल सभी जहर खो देता है, गड़ों को उठा देता है मरों को जिला देता है, बल्कि दरे नाज को छूने मात्र से उगा देता है, इसलिये तुझे दादा कहते हैं क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला है या सब कुछ देने वाला है।
3-- हे दादा ! तू असम्भव को भी सम्भव कर देता है, दुष्ट संस्कारों को भी धो देता है, तू ही शान्ति देकर संयम नियम सधा देता है, योग की युक्ति बता देता है, परा व अपरा विद्या बताकर बुद्धिमान बना देता है, अपने शिष्यों को क्षण भर में अन्तर्यामी बना देता है तथा क्षण भर में गुप्त ज्ञान करा देता है, तू ऋद्धि-सिद्धि देता है, भक्ति-मुक्ति देता है तथा सभी प्रकार की शक्ति देता है, इसलिए तुझे दादा कहते हैं क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाल या सब कुछ देने वाला है।
4- • हे दादा ! तू ही दादा याने भाई, बाप तथा बाप का बाप बल्कि सबका बाप है, इसीलिये हम सबका तू ही दादा है, दादू है, तू दद्दा है, दाजी है, दाय जी है तथा परदादा है बल्कि सब दादाओं का भी तू दादा है, जो कि दा का अर्थ देना है इसी विचार से तू दाता है, बल्कि दाताओं का भी दाता है तथा क्षण भर ही में सभी दादा को खो देता है यह दास और कुछ नहीं मांगता केवल चरणों में शरण होकर तेरे चरण पकड़ कर तेरे ही चरणों में पड़ा रहना चाहता है और केवल चरणों की भक्ति चाहता है इसलिये तू अपने चरणों की चिर भक्ति दे, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है इसलिये तुझे दादा कहते हैं।
(6)
।। भजन ।।
दादा कहें तुझे या हेत। दादा कहें तुझे या हेत।। टेक।।
माँ बन तू क्षुत प्यास भगादे, बा बन निज पद देत ।
भ्रात बनी तू देत भगा भय, मित्र बनी सुख देत ।।
स्वामी बनी शुभ पन्थ चलावे, दत्त बनी सब देत। न्यायाधीश बनी तू त्योंही, न्याय सत्य कर देत ।। 1।।
दंड देत यमराज बनी तू, पाप भगा सब देत ।
वैद्य बनी तू रोग भयंकर, सभी दूर कर देत।।
धर्मराज बन धर्म सनातन, जंचा कुदरती देत ।
मस्त मुक्त अवधूत बनी तू, तार भक्त को देत ।। 2 ।।
विश्वामित्र विधि जग कर्मा, बनी रची सब देत।
बनी विष्णु तू राखे सबको, बचा भक्त को देत ।।
हरशंकर बन, हरतम उर का, नसा बला सब देत ।
शक्ति बनी तू सभी शक्ति दे,ऋद्धि-सिद्धि सब देत।। 3 ।।
गणपति हो तू विघ्न हरै सब, चारों वाणी देत ।
भैरव बन के भय हर लेता, दुष्टों को भय देत ।।
वरयोगी बन, तुरन्त शिष्य को, लगा समाधि देत ।
इन्द्र शुक्र बन के धनवंतर, मरा जिला तू देत ।। 4।।
चित्रगुप्त हो, चित्र जु रेखा, दृश्य दिखा उर देत ।
बनी जनक तू सुख दुःख दोनों, लखा तुल्य खुद देत ।। ऋषभ देव जड़ भरत बनी शुक, मस्त बना जन देत । पापी हू को शरण लखी खुद, बचा शीघ्र तू देत ।। 5 ।।
गौतम बुद्ध बनी जिन श्रावक, दयावान कर देत ।
ईशा बन तू जग हित चाहत, प्रेम बढ़ा उर देत ।।
मूसा बन, सब मत के जन को, लखा नाम गुण देत ।
तू खुद मोहम्मद दत्तात्रेय बन, सीख कुदरती देत ।। 6 ।।
जन की सेवा बड़ी भक्ति से, इब्राहिम कह देत ।
स्वयं वीर्य का गुण दर्शाई, ब्रह्मचर्य रख देत ।।
राम बनी मर्याद रखावे, सीख न्याय की देत ।
कृष्ण बनी सब योग सधाई, प्रेम बढ़ा तू देत ॥ 7 ॥
बनी कबीरा, हिन्दू मुस्लिम, एक करी तू देत ।
सुन्दर का गुरु दादू बन तू, खरी नसीहत देत ।।
तुलसी का गुरु, नरहरि बन तू, बता रुप निज देत ।
बाबा आदम तू ही जगत का, खरा ज्ञान तू देत ।। 8 ।।
तू ही बना पंजाबी नानक, सच्ची शिक्षा देत ।
तु ही बना चैतन्य बंग का, चखा प्रेम रस देत ।।
तू दादल दादार फारसी, भाजर थोस्त उदेत ।
नडियानंद अपार नाथ तू, ज्ञान देव सुख देत ।। 9 ।।
॥ अर्थ ।।
1--- हे दादा ! तू माँ बनकर भक्तों की भूख और प्यास भगा देता है, बाप बनकर स्वयं निज पद देता है, भाई बनकर भय से बचाता है, दिली मित्र बनकर दिल को खुश कर देता है। शुभ स्वामी बनकर शुभ पंथ से चला देता है, गुरु दत्तात्रेय बनबर सब कुछ देता है। तू ही न्यायाधीश बनकर तत्काल सत्य न्याय कर देता है।
इसलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
2- हे दादा ! तू यमराज बनकर दण्ड देता है जिसके द्वारा भक्तों के सभी पाप भगा देता है, तू ही वैद्य बनकर भक्तों के भयंकर रोग दूर कर देता है। तू ही धर्मराज बनकर कुदरती सनातन धर्म को स्वयं सिद्ध कर देता है। तू ही जीवन-मुक्त है तथा मस्त अवधूत बनकर अपने भक्तों को तार देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
3-- हे दादा! तू ही विश्वामित्र, विश्वकर्मा तथा ब्रह्मा बन कर सब कुछ रचता है। तू ही विष्णु बनकर सबकी रक्षा करके अपने भक्तों को बचाता है। तू ही हरशंकर बनकर अपने भक्तों के हृदय का अज्ञान हरकर सभी बलाओं को नसा कर बचा देता है। तू ही शक्ति बनकर सब प्रकार की शक्ति देता है तथा ऋद्धि-सिद्धियाँ देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
4-- हे दादा ! तू ही गणपति होकर सब विघ्नों को हरता है। तथा चारों वाणी देता है। हे दादा! तू ही भैरव बनकर सब भय हर लेता है तथा दुष्टों को भय देता है । हे दादा तू ही श्रेष्ठ योगी बनकर अपने शिष्यों की तत्काल समाधी लगा देता है। हे दादा! तू ही इन्द्र, शुक्र तथा धन्वन्तरी बनकर मरों तक को जिला देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
5-- हे दादा ! तू ही चित्रगुप्त तथा चित्ररेखा बनकर गुप्त दृश्यों तथा रहस्यों को भी दिखा देता है । हे दादा ! तू ही जनक विदेही बनकर सुख-दुःख दोनों को समतुल्य दिखा देता है। हे दादा! तू ही ऋषभदेव जी, सुखदेव जी तथा जड़ बनकर अपने भक्तों को भी मस्त अवधूत बना देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
6- हे दादा! तू ही श्रावक गौतम मुनि तथा गौतम बुद्ध बनकर अपने भक्तों को दयावान बना देता है। हे दादा! तू ही ईसा बनकर सारे संसार का हित चाहता है तथा अपने भक्तों विश्व प्रेम बढ़ा देता है। हे दादा! तू ही मूसा बनकर सब मत के भक्तों को नूर हृदय में दिखाकर अपने नाम का गुण दिखा देता है। हे दादा! तू ही मोहम्मद तथा दत्तात्रेय बनकर कुदरती नियमों की शिक्षा देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
7-- हे दादा! तू ही यहूदियों का इब्राहीम होकर भक्ति से भी बड़ा दर्जा जन सेवा का दिखा देता है। हे दादा! स्वयं तू ही वीर्य का गुण दिखाकर भक्तों का ब्रह्मचर्य रख देता है। हे दादा! तू ही राम होकर मर्यादा की रक्षा करता है तथा सत्य न्याय की शिक्षा देता है, हे दादा! तू ही कृष्ण होकर भक्तों को सब प्रकार का योग सधा देता है तथा उनके हृदय में अटल प्रेम बढ़ा देता है इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
8- • हे दादा ! तू ही कबीर बनकर हिन्दू-मुस्लिम आदि को एक कर देता है हे दादा! तू ही सुन्दर का गुरु दादू बनकर खरी नसीहत देता है । हे दादा! तू ही तुलसी का गुरु नरहरि बनकर अपना निज रूप दिखा देता है। हे दादा! तू ही संसार भर का दादा अर्थात् बाबा आदम है उसी से सबको सच्ची शिक्षा देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
9- दादा! तू ही पंजाब का गुरु नानक होकर सब को सच्ची शिक्षा देता है। हे दादा! तू ही बंगाल का चैतन्य देव होकर सबको प्रेम का रस चखा देता है। हे दादा! तू ही गुजरात का दादल और फारस का दादर है, तू ही जरथुस्त्र होकर खुद नूर का दिखाने वाला है। हे दादा! तू ही नडियानन्द, अपारनाथ और ज्ञानदेव होकर सब भक्तों को सुख देने वाला है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
(7)
।। भजन ।।
केशव नाम इसी से सार्थक,
यथा नाम गुण तथा करै ।। टेक।।
जन दे, धन दे, अन्न भूमि दे, क्षीर चीर दे तोय ।।
पुष्टि तुष्टि दे, क्रान्ति शान्ति दे, आयु अभय दे लोय।
यश दे, सुख दे, प्राण मान दे, भव के रुज दे खोय।। 1।।
कर काँचहि दे ककड़ी मिश्री, पत्थर देत विलोय।
तेल सघृत शर्करा बना दे, आग बना दे जोय ।।
कर अटूट भंडार हि देवे, सभी जहर दे खोय।
गड़े उठा दे, मरे जिला दे, दरे उगादे टोय ।। 2 ।।
देत असम्भव को कर सम्भव, संस्कार दें धोय।
सम दे संयम योग युक्ति दे, धी विद्या दे दोय।।
अन्तर्यामी शिष्य बना दे, ज्ञान करा दे गोय ।
ऋद्धि-सिद्धि दे,सभी शक्ति दे,भक्ति-मुक्ति दे सोय।। 3।।
दादा दादू दद्दा दाजी, तू पर दादा जोय।
सब दादों का दादा तू दा, तुही दाय जी होय ।।
दाता का भी दाता है तू, सभी ददा दे खोय।
गही चरण बिच शरण हो, निजरति दे चिरसोय ।। 4 ।।
॥ अर्थ ।।
1- हे दादा! तू अपने भक्तों को सदा सर्वत्र सब कुछ दे सकता है अर्थात् उन्हें जन देता है, धन देता है, अन्न और भूमि देता है, क्षीर, चीर और नीर देता है, पुष्टि और तुष्टि देता है, क्रान्ति और शान्ति देता है, आयु और शक्ति देता है, ज्ञान का प्रकाश करके अभय दान देता है, यश और सुख देता है, प्राण और मान देता है, बल्कि संसार के सभी रोग खो देता है, इसलिये तुझे दादा कहते हैं क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला है या सब कुछ देने वाला है।
2-- हे दादा ! तू कांच को भी ककड़ी और मिश्री कर देता है, पत्थर को भी मक्खन के समान मुलायम कर देता है, पानी से भी घी या तेल बना देता है, धूल को शक्कर कर देता है, देखने मात्र से आग जला देता है, इच्छा मात्र से भण्डार को अटूट कर देता है, तत्काल सभी जहर खो देता है, गड़ों को उठा देता है मरों को जिला देता है, बल्कि दरे नाज को छूने मात्र से उगा देता है, इसलिये तुझे दादा कहते हैं क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला है या सब कुछ देने वाला है।
3-- हे दादा ! तू असम्भव को भी सम्भव कर देता है, दुष्ट संस्कारों को भी धो देता है, तू ही शान्ति देकर संयम नियम सधा देता है, योग की युक्ति बता देता है, परा व अपरा विद्या बताकर बुद्धिमान बना देता है, अपने शिष्यों को क्षण भर में अन्तर्यामी बना देता है तथा क्षण भर में गुप्त ज्ञान करा देता है, तू ऋद्धि-सिद्धि देता है, भक्ति-मुक्ति देता है तथा सभी प्रकार की शक्ति देता है, इसलिए तुझे दादा कहते हैं क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाल या सब कुछ देने वाला है।
4- • हे दादा ! तू ही दादा याने भाई, बाप तथा बाप का बाप बल्कि सबका बाप है, इसीलिये हम सबका तू ही दादा है, दादू है, तू दद्दा है, दाजी है, दाय जी है तथा परदादा है बल्कि सब दादाओं का भी तू दादा है, जो कि दा का अर्थ देना है इसी विचार से तू दाता है, बल्कि दाताओं का भी दाता है तथा क्षण भर ही में सभी दादा को खो देता है यह दास और कुछ नहीं मांगता केवल चरणों में शरण होकर तेरे चरण पकड़ कर तेरे ही चरणों में पड़ा रहना चाहता है और केवल चरणों की भक्ति चाहता है इसलिये तू अपने चरणों की चिर भक्ति दे, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है इसलिये तुझे दादा कहते हैं।
(6)
।। भजन ।।
दादा कहें तुझे या हेत। दादा कहें तुझे या हेत।। टेक।।
माँ बन तू क्षुत प्यास भगादे, बा बन निज पद देत ।
भ्रात बनी तू देत भगा भय, मित्र बनी सुख देत ।।
स्वामी बनी शुभ पन्थ चलावे, दत्त बनी सब देत। न्यायाधीश बनी तू त्योंही, न्याय सत्य कर देत ।। 1।।
दंड देत यमराज बनी तू, पाप भगा सब देत ।
वैद्य बनी तू रोग भयंकर, सभी दूर कर देत।।
धर्मराज बन धर्म सनातन, जंचा कुदरती देत ।
मस्त मुक्त अवधूत बनी तू, तार भक्त को देत ।। 2 ।।
विश्वामित्र विधि जग कर्मा, बनी रची सब देत।
बनी विष्णु तू राखे सबको, बचा भक्त को देत ।।
हरशंकर बन, हरतम उर का, नसा बला सब देत ।
शक्ति बनी तू सभी शक्ति दे,ऋद्धि-सिद्धि सब देत।। 3 ।।
गणपति हो तू विघ्न हरै सब, चारों वाणी देत ।
भैरव बन के भय हर लेता, दुष्टों को भय देत ।।
वरयोगी बन, तुरन्त शिष्य को, लगा समाधि देत ।
इन्द्र शुक्र बन के धनवंतर, मरा जिला तू देत ।। 4।।
चित्रगुप्त हो, चित्र जु रेखा, दृश्य दिखा उर देत ।
बनी जनक तू सुख दुःख दोनों, लखा तुल्य खुद देत ।। ऋषभ देव जड़ भरत बनी शुक, मस्त बना जन देत । पापी हू को शरण लखी खुद, बचा शीघ्र तू देत ।। 5 ।।
गौतम बुद्ध बनी जिन श्रावक, दयावान कर देत ।
ईशा बन तू जग हित चाहत, प्रेम बढ़ा उर देत ।।
मूसा बन, सब मत के जन को, लखा नाम गुण देत ।
तू खुद मोहम्मद दत्तात्रेय बन, सीख कुदरती देत ।। 6 ।।
जन की सेवा बड़ी भक्ति से, इब्राहिम कह देत ।
स्वयं वीर्य का गुण दर्शाई, ब्रह्मचर्य रख देत ।।
राम बनी मर्याद रखावे, सीख न्याय की देत ।
कृष्ण बनी सब योग सधाई, प्रेम बढ़ा तू देत ॥ 7 ॥
बनी कबीरा, हिन्दू मुस्लिम, एक करी तू देत ।
सुन्दर का गुरु दादू बन तू, खरी नसीहत देत ।।
तुलसी का गुरु, नरहरि बन तू, बता रुप निज देत ।
बाबा आदम तू ही जगत का, खरा ज्ञान तू देत ।। 8 ।।
तू ही बना पंजाबी नानक, सच्ची शिक्षा देत ।
तु ही बना चैतन्य बंग का, चखा प्रेम रस देत ।।
तू दादल दादार फारसी, भाजर थोस्त उदेत ।
नडियानंद अपार नाथ तू, ज्ञान देव सुख देत ।। 9 ।।
॥ अर्थ ।।
1--- हे दादा ! तू माँ बनकर भक्तों की भूख और प्यास भगा देता है, बाप बनकर स्वयं निज पद देता है, भाई बनकर भय से बचाता है, दिली मित्र बनकर दिल को खुश कर देता है। शुभ स्वामी बनकर शुभ पंथ से चला देता है, गुरु दत्तात्रेय बनबर सब कुछ देता है। तू ही न्यायाधीश बनकर तत्काल सत्य न्याय कर देता है।
इसलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
2- हे दादा ! तू यमराज बनकर दण्ड देता है जिसके द्वारा भक्तों के सभी पाप भगा देता है, तू ही वैद्य बनकर भक्तों के भयंकर रोग दूर कर देता है। तू ही धर्मराज बनकर कुदरती सनातन धर्म को स्वयं सिद्ध कर देता है। तू ही जीवन-मुक्त है तथा मस्त अवधूत बनकर अपने भक्तों को तार देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
3-- हे दादा! तू ही विश्वामित्र, विश्वकर्मा तथा ब्रह्मा बन कर सब कुछ रचता है। तू ही विष्णु बनकर सबकी रक्षा करके अपने भक्तों को बचाता है। तू ही हरशंकर बनकर अपने भक्तों के हृदय का अज्ञान हरकर सभी बलाओं को नसा कर बचा देता है। तू ही शक्ति बनकर सब प्रकार की शक्ति देता है तथा ऋद्धि-सिद्धियाँ देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
4-- हे दादा ! तू ही गणपति होकर सब विघ्नों को हरता है। तथा चारों वाणी देता है। हे दादा! तू ही भैरव बनकर सब भय हर लेता है तथा दुष्टों को भय देता है । हे दादा तू ही श्रेष्ठ योगी बनकर अपने शिष्यों की तत्काल समाधी लगा देता है। हे दादा! तू ही इन्द्र, शुक्र तथा धन्वन्तरी बनकर मरों तक को जिला देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
5-- हे दादा ! तू ही चित्रगुप्त तथा चित्ररेखा बनकर गुप्त दृश्यों तथा रहस्यों को भी दिखा देता है । हे दादा ! तू ही जनक विदेही बनकर सुख-दुःख दोनों को समतुल्य दिखा देता है। हे दादा! तू ही ऋषभदेव जी, सुखदेव जी तथा जड़ बनकर अपने भक्तों को भी मस्त अवधूत बना देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
6- हे दादा! तू ही श्रावक गौतम मुनि तथा गौतम बुद्ध बनकर अपने भक्तों को दयावान बना देता है। हे दादा! तू ही ईसा बनकर सारे संसार का हित चाहता है तथा अपने भक्तों विश्व प्रेम बढ़ा देता है। हे दादा! तू ही मूसा बनकर सब मत के भक्तों को नूर हृदय में दिखाकर अपने नाम का गुण दिखा देता है। हे दादा! तू ही मोहम्मद तथा दत्तात्रेय बनकर कुदरती नियमों की शिक्षा देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
7-- हे दादा! तू ही यहूदियों का इब्राहीम होकर भक्ति से भी बड़ा दर्जा जन सेवा का दिखा देता है। हे दादा! स्वयं तू ही वीर्य का गुण दिखाकर भक्तों का ब्रह्मचर्य रख देता है। हे दादा! तू ही राम होकर मर्यादा की रक्षा करता है तथा सत्य न्याय की शिक्षा देता है, हे दादा! तू ही कृष्ण होकर भक्तों को सब प्रकार का योग सधा देता है तथा उनके हृदय में अटल प्रेम बढ़ा देता है इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
8- • हे दादा ! तू ही कबीर बनकर हिन्दू-मुस्लिम आदि को एक कर देता है हे दादा! तू ही सुन्दर का गुरु दादू बनकर खरी नसीहत देता है । हे दादा! तू ही तुलसी का गुरु नरहरि बनकर अपना निज रूप दिखा देता है। हे दादा! तू ही संसार भर का दादा अर्थात् बाबा आदम है उसी से सबको सच्ची शिक्षा देता है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
9- दादा! तू ही पंजाब का गुरु नानक होकर सब को सच्ची शिक्षा देता है। हे दादा! तू ही बंगाल का चैतन्य देव होकर सबको प्रेम का रस चखा देता है। हे दादा! तू ही गुजरात का दादल और फारस का दादर है, तू ही जरथुस्त्र होकर खुद नूर का दिखाने वाला है। हे दादा! तू ही नडियानन्द, अपारनाथ और ज्ञानदेव होकर सब भक्तों को सुख देने वाला है। इसीलिये तुझे दादा कहते हैं, क्योंकि दादा का अर्थ सतत् देने वाला या सब कुछ देने वाला है।
(7)
।। भजन ।।
केशव नाम इसी से सार्थक,
यथा नाम गुण तथा करै ।। टेक।।
केश नोच लें केश बांध दें, केश खिला रुज कष्ट हरै।
केश गहै खुद का केशहि, केशों का खुद यज्ञ करैं ।।
काल रूप से केश गहत हैं, शम्भु रूप से केश हरै ।
केश गहै खुद का केशहि, केशों का खुद यज्ञ करैं ।।
काल रूप से केश गहत हैं, शम्भु रूप से केश हरै ।
याजक बनके केशहि होमी,निजभक्तों के विघ्न हरै।।1।।
केशों का नित ओढे कम्बल, आसन उसका स्वयं करै।
केशों का नित ओढे कम्बल, आसन उसका स्वयं करै।
फाड़ें उसको जारें उसको, फैकें उसको दान करें ।।
क्षौर करावै केशों का नित्त, ना रहने दें केश शिरे ।
भक्तोंके भी केश मुड़ा दें, हुक्म करी कर केश धरै ।। 2 ।।
उग्र रूप धर स्वयं शम्भु ये, केशव ही शव रुण्ड धरै ।
क्षौर करावै केशों का नित्त, ना रहने दें केश शिरे ।
भक्तोंके भी केश मुड़ा दें, हुक्म करी कर केश धरै ।। 2 ।।
उग्र रूप धर स्वयं शम्भु ये, केशव ही शव रुण्ड धरै ।
शक्ति रुप हो शव पै चढ़ता, काली का खुद रुप धरै।।
पाप ताप को तू शव करता, शव को तू ही सजीव करें।
सड़ा गड़ा शव कटा उठादे, खुद धन्वन्तर रुप धेरै ।। 3 ।।
करी (शके) सब (वश) तेरे सब, तू ही अनेकों रुप धेरै।
करी (शके) सब (वश) तेरे सब, तू ही अनेकों रुप धेरै।
विराट (केशव) स्वयं विष्णु तू. (क) से ब्रह्मा तू ही करै ।।
रुद्र (ईश) से शक्ति (ई) से, (व) से वसु तू अष्ट करें।
तेरा अंग चराचर है सब, जीव अंश तव पाद परै।। 4 ।।
॥ अर्थ ।।
दादा आपका केशव नाम इसी से सार्थक समझा जाता है। क्योंकि जैसा आपका नाम है वैसा ही आप में गुण है तथा वैसा ही आप करते हो । टेक।।
1- हे केशवानन्द दादा! आप भक्तों के केश नोंच लेते हो, केश बाँध देते हो तथा केशों को खिलाकर उनके कष्ट और रोगों को दूर करते हो । आप भक्तों के केश पकड़ लेते हो, केश काट देते हो तथा उन केशों का हवन कर देते हो। आप काल रुप से केश पकड़ते हो । शिव रुप से केशों को काटते हो तथा यज्ञ पुरुष होकर केशों को होमते हो। इसके द्वारा अपने भक्तों के सभी विघ्न हर लेते हो। इसी से आपका केशव नाम सार्थक है।
2- हे केशवानन्द दादा ! आप केशों का कम्बल ओढ़ते हो तथा केशों का कम्बल ही बिछाते हो। आप केशों के कम्बल को फाड़ते हो, केशों के कम्बल को जलाते हो, केशों के कम्बल को फेंकते हो बल्कि केशों के कम्बल का ही दान करते हो। आप नित्य ही केशों का क्षौर कराते हो बल्कि सिर पर केश बिल्कुल नहीं रहने देते। आप अपने भक्तों के भी केश मुड़ा देते हो या आपकी आज्ञा से वे केश रखते हैं। इसी से आपका केशव नाम सार्थक है।
3- हे केशवानन्द दादा! स्वयं आप महादेव जी का रूप धर कर खुद शव रुन्डमाला धारण करते हो। हे केशव स्वयं आप ही शक्ति रुप होकर खुद शव की सवारी करते हो। हे केशव आप ही काली का रूप धर कर खुद पाप और ताप को शव करते हो। हे केशव आप ही धन्वन्तरि जी का रुप धर कर खुद शव को सजीव कर देते हो बल्कि सड़े, गड़े, टूटे मुर्दे को भी जिला कर उठा देते हो इसी से आपका यह केशव नाम सार्थक है क्योंकि जैसा यह आपका नाम है। वैसा ही आप में गुण है और वैसा आप सब कुछ कर सकते हो।
4- हे केशवानन्द दादा ! आप सब कुछ कर सकते हो और सब कुछ आपके वश में है। बल्कि आप ही अनेक रुप धर लेते हो। केशवानन्द दादा! आप ही (केशव) रूप से स्वयं महाविष्णु तथा विराट स्वरूप हो। आप ही अपने (ककार) से ब्रह्मा को, ईशत्व से रुद्र को, इकार से शक्ति को और वकार से आठों वसुओं को उत्पन्न करते हो अर्थात् जो कुछ चराचर विश्व है वह सब आप ही का अंग है। और सब जीव आप ही के अंश हैं, एवं मैं आपका अंश हूँ और आपके ही चरणों में पड़ा हूँ क्योंकि जैसा यह आपका नाम है वैसा ही आपका गुण है और वैसा ही आप सब कुछ करते हैं इसी से यह आपका केशव नाम सार्थक है।
तेरा अंग चराचर है सब, जीव अंश तव पाद परै।। 4 ।।
॥ अर्थ ।।
दादा आपका केशव नाम इसी से सार्थक समझा जाता है। क्योंकि जैसा आपका नाम है वैसा ही आप में गुण है तथा वैसा ही आप करते हो । टेक।।
1- हे केशवानन्द दादा! आप भक्तों के केश नोंच लेते हो, केश बाँध देते हो तथा केशों को खिलाकर उनके कष्ट और रोगों को दूर करते हो । आप भक्तों के केश पकड़ लेते हो, केश काट देते हो तथा उन केशों का हवन कर देते हो। आप काल रुप से केश पकड़ते हो । शिव रुप से केशों को काटते हो तथा यज्ञ पुरुष होकर केशों को होमते हो। इसके द्वारा अपने भक्तों के सभी विघ्न हर लेते हो। इसी से आपका केशव नाम सार्थक है।
2- हे केशवानन्द दादा ! आप केशों का कम्बल ओढ़ते हो तथा केशों का कम्बल ही बिछाते हो। आप केशों के कम्बल को फाड़ते हो, केशों के कम्बल को जलाते हो, केशों के कम्बल को फेंकते हो बल्कि केशों के कम्बल का ही दान करते हो। आप नित्य ही केशों का क्षौर कराते हो बल्कि सिर पर केश बिल्कुल नहीं रहने देते। आप अपने भक्तों के भी केश मुड़ा देते हो या आपकी आज्ञा से वे केश रखते हैं। इसी से आपका केशव नाम सार्थक है।
3- हे केशवानन्द दादा! स्वयं आप महादेव जी का रूप धर कर खुद शव रुन्डमाला धारण करते हो। हे केशव स्वयं आप ही शक्ति रुप होकर खुद शव की सवारी करते हो। हे केशव आप ही काली का रूप धर कर खुद पाप और ताप को शव करते हो। हे केशव आप ही धन्वन्तरि जी का रुप धर कर खुद शव को सजीव कर देते हो बल्कि सड़े, गड़े, टूटे मुर्दे को भी जिला कर उठा देते हो इसी से आपका यह केशव नाम सार्थक है क्योंकि जैसा यह आपका नाम है। वैसा ही आप में गुण है और वैसा आप सब कुछ कर सकते हो।
4- हे केशवानन्द दादा ! आप सब कुछ कर सकते हो और सब कुछ आपके वश में है। बल्कि आप ही अनेक रुप धर लेते हो। केशवानन्द दादा! आप ही (केशव) रूप से स्वयं महाविष्णु तथा विराट स्वरूप हो। आप ही अपने (ककार) से ब्रह्मा को, ईशत्व से रुद्र को, इकार से शक्ति को और वकार से आठों वसुओं को उत्पन्न करते हो अर्थात् जो कुछ चराचर विश्व है वह सब आप ही का अंग है। और सब जीव आप ही के अंश हैं, एवं मैं आपका अंश हूँ और आपके ही चरणों में पड़ा हूँ क्योंकि जैसा यह आपका नाम है वैसा ही आपका गुण है और वैसा ही आप सब कुछ करते हैं इसी से यह आपका केशव नाम सार्थक है।
(8)
।। भजन ।।
झट रक्ष दादा रक्ष तू,
यदि दीन पै कुछ प्यार है,
अवधूत दादा स्वामी मम,
शिवशम्भू का अवतार है ।। टेक।।
तव नाम नौका सिंधु जग, जन भक्त को दे तार है ।।
लख प्रेम सच्चा भक्त का, कर देत बेड़ा पार है ।
तू एक ही खं मात्र में संसार का वर सार है ।। 1।।
दिल भक्त का तू शुद्ध कर, खुद खार देता गार है ।
सब ढोंग झूठा ढंग सब, अध ताप देता जार है।
सब झार कचरा चित्त का, धो मैल देता टार है।
तू ठार मारे फूट को, छल अग्नि देता डार है ।। 2 ।।
निज भक्त की तू ढार खुद, हर विघ्न देता तार है।
जो थार बे मर्याद की, तू शीघ्र देत विदार है ।।
भवधार में आधार तू ना छूत जो पर नार है।
वैराट तेरे नूर का, ना आर है ना पार है ।। 3 ।।
लख विघ्न आगम भक्त का, तू वस्त्र देता फार है।
उपकार करता सर्व पर, ना देखता रिपु यार है ।।
यह देख सब मत जात का, पद चूमता हर बार है।
जन भक्त परता पाद में धर, सीस बारंबार है ।। 4 ।।
भू भार लेगा शीघ्र हर, वर उच्च ये आभार है।
दुर्भाव देगा टार सब, जिसकी जु अति भरमार है ।।
खुद यार तू संसार का, दे मेट सब जो रार है।
यह एक वर मैं मांगता: यह एक सिर्फ करार है ।। 5 ।।
तब देखते संसार में क्यों होत झगड़ा वार है।
दुर्भाव क्यों पर खून हित, टपकांय मुख से लार है ।।
।। भजन ।।
झट रक्ष दादा रक्ष तू,
यदि दीन पै कुछ प्यार है,
अवधूत दादा स्वामी मम,
शिवशम्भू का अवतार है ।। टेक।।
तव नाम नौका सिंधु जग, जन भक्त को दे तार है ।।
लख प्रेम सच्चा भक्त का, कर देत बेड़ा पार है ।
तू एक ही खं मात्र में संसार का वर सार है ।। 1।।
दिल भक्त का तू शुद्ध कर, खुद खार देता गार है ।
सब ढोंग झूठा ढंग सब, अध ताप देता जार है।
सब झार कचरा चित्त का, धो मैल देता टार है।
तू ठार मारे फूट को, छल अग्नि देता डार है ।। 2 ।।
निज भक्त की तू ढार खुद, हर विघ्न देता तार है।
जो थार बे मर्याद की, तू शीघ्र देत विदार है ।।
भवधार में आधार तू ना छूत जो पर नार है।
वैराट तेरे नूर का, ना आर है ना पार है ।। 3 ।।
लख विघ्न आगम भक्त का, तू वस्त्र देता फार है।
उपकार करता सर्व पर, ना देखता रिपु यार है ।।
यह देख सब मत जात का, पद चूमता हर बार है।
जन भक्त परता पाद में धर, सीस बारंबार है ।। 4 ।।
भू भार लेगा शीघ्र हर, वर उच्च ये आभार है।
दुर्भाव देगा टार सब, जिसकी जु अति भरमार है ।।
खुद यार तू संसार का, दे मेट सब जो रार है।
यह एक वर मैं मांगता: यह एक सिर्फ करार है ।। 5 ।।
तब देखते संसार में क्यों होत झगड़ा वार है।
दुर्भाव क्यों पर खून हित, टपकांय मुख से लार है ।।
अपराध बिन लख दीन पर, खटकांय क्यों तलवार हैं।
अब अन्तकर इस बातका,यदि लोकका सचयार हैं।।6 ।।
तब दृष्टि से दुर्भाव की, द्रुत होयगी सब हार है।
देगा करी दुर्भाव की मिट्टी जु पूरी ख्वार है ।।
आनन्द होगा भूमि पर बढ़ जायेगा जन प्यार है।
युग सत्य सा बर्ताव जग, तब होयगा एक बार है || 7 ||
॥ अर्थ ।।
1- हे अवधूत दादा तू मेरा स्वामी और शंकर का अवतार है इस संसार सागर में तेरा नाम ही भक्त जनों के तारने के लिये नौका के समान है। तू भक्त का सच्चा प्रेम देखकर बेड़ा पार कर देता है। तू इस संसार का श्रेष्ठ सार और इस महाशून्य में एक मात्र तू ही है। इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो, तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर ।
2- हे दादा ! तू अपने भक्त का दिल शुद्ध करके खुद ईर्ष्या, द्वेष उसके हृदय से हटा देता है, बल्कि उसका सब प्रकार का ढोंग और झूठा आडम्बर तथा पाप और ताप को भी जला देता है। सिवाय उसके चित का सब विकार दूर करके समस्त मैल धोकर साफ कर देता है बल्कि तू फूट को समूल नष्ट करके उसे जला देता है अर्थात् लापता कर देता है। इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
3- हे दादा ! तू रक्षा के विचार से अपने भक्तों की खुद ढाल है तथा उनके सभी विघ्न हर कर उन्हें तार देता है और उनकी अमर्यादा रुपी थार को शीघ्र नसा देता है। तेरे विराट रूप का तथा तेरे नूर का पारावार नहीं है किन्तु जो पर स्त्री की छूत से बचा रहता है। उसके लिए इस संसार सागर की प्रबल धारा में तू ही आधार रूप है अर्थात् भवसागर से पार करने वाला है। इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो, तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
4- हे दादा ! जब तू किसी विघ्न का आगम देखता है तब अपने भक्त का वस्त्र फाड़कर उसे बचा लेता है। हे दादा! तू सभी जनों का भला करता है, मित्र तथा शत्रु नहीं देखता। यही देख सब मत पंथ जात के लोग सदा तेरे पैर चूमते हैं और भक्त लोग बारम्बार सीस नवाकर चरणों में गिरते हैं। इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो, तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
5- हे दादा! तू इस पृथ्वी का भार शीघ्र ही हर लेगा यह तेरा बड़ा आभार है। हे दादा! तू परस्पर के सब दुर्भाव को शीघ्र ही दूर कर देगा जो कि संसार भर में व्यापा हुआ है। हे दादा ! तू सारे संसार भर का मित्र है इसलिये झट सब परस्पर की तकरार मेट दे सिर्फ यही एक वरदान मैं मांगता हूँ और तूने भी इस बात का प्रण किया है इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो, तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर ।
6- हे दादा ! तिस पर भी तेरे समक्ष इस संसार में लड़ाई झगड़े क्यों हो रहे हैं? परस्पर का दुर्भाव, औरों के खून के लिये क्यों कर मुख से लार टपका रहा है? तथा बिना अपराध के ही दीन जनों पर क्यों तलवार खटका रहा है? यदि तू जगत का सच्चा मित्र हो तो अब इस बात का झट अन्त कर दे और यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
7- हे दादा! मुझे पूर्ण निश्चय है कि तेरी दया दृष्टि से दुर्भाव की शीघ्र ही हार होगी और तू शीघ्र ही दुर्भाव की मिट्टी पलीत कर देगा। तब जन मात्र का परस्पर प्रेम बढ़ जायेगा और सारे संसार में सुख आनन्द छा जायेगा बल्कि तब एक बार फिर से सारे संसार में सतयुग के समान बर्ताव हो जायेगा। इसलिये यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
(9)
।। भजन ।।
झट रक्ष दादा रक्ष तू, हों शरण में मैं मांगो दुआ ।। टेक।।
तब दृष्टि से दुर्भाव की, द्रुत होयगी सब हार है।
देगा करी दुर्भाव की मिट्टी जु पूरी ख्वार है ।।
आनन्द होगा भूमि पर बढ़ जायेगा जन प्यार है।
युग सत्य सा बर्ताव जग, तब होयगा एक बार है || 7 ||
॥ अर्थ ।।
1- हे अवधूत दादा तू मेरा स्वामी और शंकर का अवतार है इस संसार सागर में तेरा नाम ही भक्त जनों के तारने के लिये नौका के समान है। तू भक्त का सच्चा प्रेम देखकर बेड़ा पार कर देता है। तू इस संसार का श्रेष्ठ सार और इस महाशून्य में एक मात्र तू ही है। इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो, तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर ।
2- हे दादा ! तू अपने भक्त का दिल शुद्ध करके खुद ईर्ष्या, द्वेष उसके हृदय से हटा देता है, बल्कि उसका सब प्रकार का ढोंग और झूठा आडम्बर तथा पाप और ताप को भी जला देता है। सिवाय उसके चित का सब विकार दूर करके समस्त मैल धोकर साफ कर देता है बल्कि तू फूट को समूल नष्ट करके उसे जला देता है अर्थात् लापता कर देता है। इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
3- हे दादा ! तू रक्षा के विचार से अपने भक्तों की खुद ढाल है तथा उनके सभी विघ्न हर कर उन्हें तार देता है और उनकी अमर्यादा रुपी थार को शीघ्र नसा देता है। तेरे विराट रूप का तथा तेरे नूर का पारावार नहीं है किन्तु जो पर स्त्री की छूत से बचा रहता है। उसके लिए इस संसार सागर की प्रबल धारा में तू ही आधार रूप है अर्थात् भवसागर से पार करने वाला है। इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो, तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
4- हे दादा ! जब तू किसी विघ्न का आगम देखता है तब अपने भक्त का वस्त्र फाड़कर उसे बचा लेता है। हे दादा! तू सभी जनों का भला करता है, मित्र तथा शत्रु नहीं देखता। यही देख सब मत पंथ जात के लोग सदा तेरे पैर चूमते हैं और भक्त लोग बारम्बार सीस नवाकर चरणों में गिरते हैं। इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो, तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
5- हे दादा! तू इस पृथ्वी का भार शीघ्र ही हर लेगा यह तेरा बड़ा आभार है। हे दादा! तू परस्पर के सब दुर्भाव को शीघ्र ही दूर कर देगा जो कि संसार भर में व्यापा हुआ है। हे दादा ! तू सारे संसार भर का मित्र है इसलिये झट सब परस्पर की तकरार मेट दे सिर्फ यही एक वरदान मैं मांगता हूँ और तूने भी इस बात का प्रण किया है इसलिये हे दादा यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो, तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर ।
6- हे दादा ! तिस पर भी तेरे समक्ष इस संसार में लड़ाई झगड़े क्यों हो रहे हैं? परस्पर का दुर्भाव, औरों के खून के लिये क्यों कर मुख से लार टपका रहा है? तथा बिना अपराध के ही दीन जनों पर क्यों तलवार खटका रहा है? यदि तू जगत का सच्चा मित्र हो तो अब इस बात का झट अन्त कर दे और यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
7- हे दादा! मुझे पूर्ण निश्चय है कि तेरी दया दृष्टि से दुर्भाव की शीघ्र ही हार होगी और तू शीघ्र ही दुर्भाव की मिट्टी पलीत कर देगा। तब जन मात्र का परस्पर प्रेम बढ़ जायेगा और सारे संसार में सुख आनन्द छा जायेगा बल्कि तब एक बार फिर से सारे संसार में सतयुग के समान बर्ताव हो जायेगा। इसलिये यदि इस दीन पर कुछ भी प्रेम हो तो तत्काल रक्षा कर, रक्षा कर।
(9)
।। भजन ।।
झट रक्ष दादा रक्ष तू, हों शरण में मैं मांगो दुआ ।। टेक।।
ऐ फिक्र कर दे दूर सब, दिल जन से मांगो दुआ ।
ऐ नेक दादा टेक ये, रख भेख की मांगो दुआ ।
हमदर्द तू इस दर्द को, दे गर्द कर मांगो दुआ ।
निष्काम पूरण काम तू, कर काम दे मांगो दुआ ।। 1 ।।
जंजाल जी का जाल ये, सब टाल दे मांगो दुआ ।
ऐ नेक दादा टेक ये, रख भेख की मांगो दुआ ।
हमदर्द तू इस दर्द को, दे गर्द कर मांगो दुआ ।
निष्काम पूरण काम तू, कर काम दे मांगो दुआ ।। 1 ।।
जंजाल जी का जाल ये, सब टाल दे मांगो दुआ ।
आमाल जी का काल ये, तू बाल दे मांगो दुआ ।।
ये भूल खट के शूल सी, निर्मूल कर मांगो दुआ ।
गलफांस आय निकास दे,विश्वास रख मांगो दुआ।। 2 ।।
अभिलाष पूरी आश कर, तब दास मैं मांगो दुआ ।
इस त्रास का कर नाश तू, भव पाश हर मांगो दुआ ।।
ये भूल खट के शूल सी, निर्मूल कर मांगो दुआ ।
गलफांस आय निकास दे,विश्वास रख मांगो दुआ।। 2 ।।
अभिलाष पूरी आश कर, तब दास मैं मांगो दुआ ।
इस त्रास का कर नाश तू, भव पाश हर मांगो दुआ ।।
ऋण भार तुरंत उतार दे, संस्कार हर मांगो दुआ।
संताप हर ताप हर, भव ताप हर मांगो दुआ ।। 3 ।।
सब आश की तू पाश हर, नैराश्य कर मांगो दुआ।
जग राग हर वैराग्य कर, अनुराग तब मांगों दुआ।।
संताप हर ताप हर, भव ताप हर मांगो दुआ ।। 3 ।।
सब आश की तू पाश हर, नैराश्य कर मांगो दुआ।
जग राग हर वैराग्य कर, अनुराग तब मांगों दुआ।।
अज्ञान हर उर ज्ञान कर, धर ध्यान तब मांगो दुआ।
तवभक्ति की दृढ शक्ति दे कर मुक्ति दे मांगो दुआ ।। 4 ।।
॥ अर्थ ।।
1- हे दादा! मैं दिलों जान से दुआ मांगता हूँ, मेरी सब फिक्र दूर कर दे। हे दादा ! तू हमदर्द है इसलिये मेरे इस दर्द को गर्द में मिला दे। यही दुआ मांगता हूँ। हे दादा! तू निष्काम है और पूर्ण काम है इसलिये मेरा काम कर दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे उपकारी दादा अपने भेष की टेक रख ले, मैं दुआ मांगता हूँ। इसी से हे दादा! मैं शरण होकर दुआ मांगता हूँ कि इस दास को तत्काल बचा ले तथा इसी वक्त बचा ले।
2- हे दादा ! यह सांसारिक जंजाल जी का जाल है इसे टाल दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा! यह बुरा आमाल जी का काल है इसे जला दे, मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा ! यह भूल शूल के समान खटकती है इसे निर्मूल कर दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा ! इस दास के गले की फांस आकर निकाल दे मैं विश्वासपूर्वक दुआ मांगता हूँ। इसी से हे दादा! मैं शरण होकर दुआ मांगता हूँ कि इस दास को तत्काल बचा ले तथा इसी वक्त बचा ले।
3- हे दादा ! इस दास की सब आशा और अभिलाषा पूरी कर दे, मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा तू इस त्रास को नसाकर भवपाश को हर ले मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा मेरे ऋण का भार तत्काल उतार दे और सब बुरे संस्कार हर ले मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा भव ताप त्रिताप और संताप हर ले मैं दुआ मांगता हूँ। इसी से हे दादा मैं शरण होकर दुआ मांगता हूँ कि इस दास को तत्काल बचा ले, इसी वक्त बचा ले।
4- हे दादा ! तू मेरी सब आशा की पाश हरकर विषयों से निराश कर दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा! तू मेरा जग राग हरकर मुझे वैराग्य करके अपने पद का अनुराग दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा ! मेरा हार्दिक अज्ञान हरकर मेरे हृदय में ज्ञान का उदय कर दे मैं तेरा ध्यान धर के दुआ मांगता हूँ। हे दादा तू मुझे अपनी भक्ति की दृढ़ शक्ति देकर मेरी मुक्ति कर दे मैं दुआ मांगता हूँ। इसी से हे दादा मैं शरण होकर दुआ मांगता हूँ कि इस दास को तत्काल बचा ले तथा इसी वक्त बचा ले ।
(10)
।। भजन ।।
हे दादा ! शरणागत वत्सल, रक्ष रक्ष तू रक्ष सदा ।। टेक।।
माया पति मायावी तू,
माया तेरी चेरी सदा ।
भूल भुलैया खिला सकै ला,
तेरी मर्जी बिना कदा ।। 1।।
नहीं चराचर नहीं जड़ाजड़,
मूढ न कोई प्रज्ञ कदा।
यदा यथा तू जिसको करता,
तथा वही हो जाए सदा ।।2।।
जो कुछ करता तू ही करता,
मैं कुछ करता नहीं कदा
अगर कहे तू मुझको करता,
क्या तू मुझमें नही सदा ।।3।।
जिम्मेवार सदा तू मेरा,
मैं ना जिम्मेवार कदा ।
क्योंकि पिता तू मम गुरु अंशी,
रक्ष अंश सुत शिष्य सदा ।।4।।
नमो नमो मैं नमो तुझे नित,
कभी न कीजै मुझे जुदा।
स्वयं समझ तब शरण सनातन,
युगल चरण बिच राख सदा ॥ 5 ॥
।। अर्थ ।।
हे दादा! तू शरणागत में आये हुए की स्वयं अपने बच्चेकी तरह रक्षा करता है,इसलिये तू मेरी रक्षा कर,रक्षाकर,सदा रक्षा तू कर।।टेक।।
1- हे दादा ! तू मायापति है और तू खुद मायावी भी है यों वह माया स्वयं तेरी चेली है, इसलिये बिना तेरी मर्जी के कभी भी वह माया मुझे भूलभुलैया का खेल नहीं खिला सकती।
2- हे दादा ! न तो कोई चर है और न अचर है और न कोई जड़ है न चैतन्य है एवं ना कोई मूर्ख है और न कोई ज्ञानी है परन्तु जिस समय तू जिसको जैसा कर देता है उस वक्त वह तत्काल वैसा ही हो जाता है।
3- हे दादा ! जो कुछ करता है वह सब तू ही करता है, मैं कुछ भी नहीं करता, अगर तू मुझ से कहे कि मैं करता हूँ, तो क्या तू मुझ में सदा विश्वास नहीं करता।
4- इसलिये हे दादा ! तू ही मेरा सदा जिम्मेवार है, मैं कदापि जिम्मेवार नहीं हूँ, क्योंकि तू मेरा बाप, गुरु अंशी है, इसलिये तू अपने पुत्र, शिष्य तथा अंश की सदा रक्षा कर ।
5- हे दादा! मैं तुझे निरन्तर नमन करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत करता हूँ कि मुझे कभी भूल करके भी जुदा मत कर, बल्कि तू मुझे अनादि काल से शरण में आया हुआ समझ कर सदा अपने दोनों चरणों में रख।
तवभक्ति की दृढ शक्ति दे कर मुक्ति दे मांगो दुआ ।। 4 ।।
॥ अर्थ ।।
1- हे दादा! मैं दिलों जान से दुआ मांगता हूँ, मेरी सब फिक्र दूर कर दे। हे दादा ! तू हमदर्द है इसलिये मेरे इस दर्द को गर्द में मिला दे। यही दुआ मांगता हूँ। हे दादा! तू निष्काम है और पूर्ण काम है इसलिये मेरा काम कर दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे उपकारी दादा अपने भेष की टेक रख ले, मैं दुआ मांगता हूँ। इसी से हे दादा! मैं शरण होकर दुआ मांगता हूँ कि इस दास को तत्काल बचा ले तथा इसी वक्त बचा ले।
2- हे दादा ! यह सांसारिक जंजाल जी का जाल है इसे टाल दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा! यह बुरा आमाल जी का काल है इसे जला दे, मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा ! यह भूल शूल के समान खटकती है इसे निर्मूल कर दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा ! इस दास के गले की फांस आकर निकाल दे मैं विश्वासपूर्वक दुआ मांगता हूँ। इसी से हे दादा! मैं शरण होकर दुआ मांगता हूँ कि इस दास को तत्काल बचा ले तथा इसी वक्त बचा ले।
3- हे दादा ! इस दास की सब आशा और अभिलाषा पूरी कर दे, मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा तू इस त्रास को नसाकर भवपाश को हर ले मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा मेरे ऋण का भार तत्काल उतार दे और सब बुरे संस्कार हर ले मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा भव ताप त्रिताप और संताप हर ले मैं दुआ मांगता हूँ। इसी से हे दादा मैं शरण होकर दुआ मांगता हूँ कि इस दास को तत्काल बचा ले, इसी वक्त बचा ले।
4- हे दादा ! तू मेरी सब आशा की पाश हरकर विषयों से निराश कर दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा! तू मेरा जग राग हरकर मुझे वैराग्य करके अपने पद का अनुराग दे मैं दुआ मांगता हूँ। हे दादा ! मेरा हार्दिक अज्ञान हरकर मेरे हृदय में ज्ञान का उदय कर दे मैं तेरा ध्यान धर के दुआ मांगता हूँ। हे दादा तू मुझे अपनी भक्ति की दृढ़ शक्ति देकर मेरी मुक्ति कर दे मैं दुआ मांगता हूँ। इसी से हे दादा मैं शरण होकर दुआ मांगता हूँ कि इस दास को तत्काल बचा ले तथा इसी वक्त बचा ले ।
(10)
।। भजन ।।
हे दादा ! शरणागत वत्सल, रक्ष रक्ष तू रक्ष सदा ।। टेक।।
माया पति मायावी तू,
माया तेरी चेरी सदा ।
भूल भुलैया खिला सकै ला,
तेरी मर्जी बिना कदा ।। 1।।
नहीं चराचर नहीं जड़ाजड़,
मूढ न कोई प्रज्ञ कदा।
यदा यथा तू जिसको करता,
तथा वही हो जाए सदा ।।2।।
जो कुछ करता तू ही करता,
मैं कुछ करता नहीं कदा
अगर कहे तू मुझको करता,
क्या तू मुझमें नही सदा ।।3।।
जिम्मेवार सदा तू मेरा,
मैं ना जिम्मेवार कदा ।
क्योंकि पिता तू मम गुरु अंशी,
रक्ष अंश सुत शिष्य सदा ।।4।।
नमो नमो मैं नमो तुझे नित,
कभी न कीजै मुझे जुदा।
स्वयं समझ तब शरण सनातन,
युगल चरण बिच राख सदा ॥ 5 ॥
।। अर्थ ।।
हे दादा! तू शरणागत में आये हुए की स्वयं अपने बच्चेकी तरह रक्षा करता है,इसलिये तू मेरी रक्षा कर,रक्षाकर,सदा रक्षा तू कर।।टेक।।
1- हे दादा ! तू मायापति है और तू खुद मायावी भी है यों वह माया स्वयं तेरी चेली है, इसलिये बिना तेरी मर्जी के कभी भी वह माया मुझे भूलभुलैया का खेल नहीं खिला सकती।
2- हे दादा ! न तो कोई चर है और न अचर है और न कोई जड़ है न चैतन्य है एवं ना कोई मूर्ख है और न कोई ज्ञानी है परन्तु जिस समय तू जिसको जैसा कर देता है उस वक्त वह तत्काल वैसा ही हो जाता है।
3- हे दादा ! जो कुछ करता है वह सब तू ही करता है, मैं कुछ भी नहीं करता, अगर तू मुझ से कहे कि मैं करता हूँ, तो क्या तू मुझ में सदा विश्वास नहीं करता।
4- इसलिये हे दादा ! तू ही मेरा सदा जिम्मेवार है, मैं कदापि जिम्मेवार नहीं हूँ, क्योंकि तू मेरा बाप, गुरु अंशी है, इसलिये तू अपने पुत्र, शिष्य तथा अंश की सदा रक्षा कर ।
5- हे दादा! मैं तुझे निरन्तर नमन करता हूँ, प्रणाम करता हूँ, दण्डवत करता हूँ कि मुझे कभी भूल करके भी जुदा मत कर, बल्कि तू मुझे अनादि काल से शरण में आया हुआ समझ कर सदा अपने दोनों चरणों में रख।
।। पुनः नाराच छन्द..3..।।
समर्पि प्राण जीव धी अहं मनो चितादिये ।
त्रिदेह इंद्रियां दशों, गुणों त्रि अक्स अर्पिये ।।
सभी दशा त्रिताप अर्पि ज्ञान भाव शक्ति ये ।
तुझे सभी तवार्पि ते पड़ा तवांश तोहिये ।। 1 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
तवादि भूल मायया कदा अहं पना लिये ।
कदापि हो हुए बने मया स दोष आदि ये ।।
सभी अभी समर्पि देत वश्य मैं स्वीकारिये।
नमामि त्राहि पाहि भो! पड़ा तवांश तोहिये ।। 2 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
रचे तुही स जी स प्राण चिन्मनो अहं धिये ।
गुणों त्रिदेह तू रचे त्रि अक्स इन्द्रिये ।।
रचे दशा त्रिताप सर्वज्ञान भाव भक्तिये ।
स हेतु ये तवार्पि ते पड़ा तवांश तोहिये ।। 3 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
नचै तवादि मायया नचाय तू स्वप्रेरिये ।
तभी अहं पना उजाय, होत दोष भूलिये ।।
स हेतु सर्व अर्पि देत वश्य मैं स्वीकारिये ।
नमामि त्राहि पाहि भो ! पड़ा तवांश तोहिये ।। 4 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
त्रिदेह ये सभी जड़, गुणों त्रि अक्स इन्द्रिये ।
जड़ दशा त्रिताप ये स चिन्मनो अहं धिये ।।
स पंचभूत पंचतत्व ये जड़ त्रि शक्ति ये ।
स्वयं प्रकाश, ते चिदंश मैं तवांश तोहिए ।। 5 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
स्वयं प्रकाश तू स्वयं फुरा सशक्ति प्रेरिये ।
तभी तवादि मायया तवांश हुं पना लिये ।।
वही अनादि काल से भुला भ्रमाय जीव ये ।
प्रभो कृपा बिना कदा बची सके तवांश ये।। 6।।
समर्पि प्राण जीव धी अहं मनो चितादिये ।
त्रिदेह इंद्रियां दशों, गुणों त्रि अक्स अर्पिये ।।
सभी दशा त्रिताप अर्पि ज्ञान भाव शक्ति ये ।
तुझे सभी तवार्पि ते पड़ा तवांश तोहिये ।। 1 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
तवादि भूल मायया कदा अहं पना लिये ।
कदापि हो हुए बने मया स दोष आदि ये ।।
सभी अभी समर्पि देत वश्य मैं स्वीकारिये।
नमामि त्राहि पाहि भो! पड़ा तवांश तोहिये ।। 2 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
रचे तुही स जी स प्राण चिन्मनो अहं धिये ।
गुणों त्रिदेह तू रचे त्रि अक्स इन्द्रिये ।।
रचे दशा त्रिताप सर्वज्ञान भाव भक्तिये ।
स हेतु ये तवार्पि ते पड़ा तवांश तोहिये ।। 3 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
नचै तवादि मायया नचाय तू स्वप्रेरिये ।
तभी अहं पना उजाय, होत दोष भूलिये ।।
स हेतु सर्व अर्पि देत वश्य मैं स्वीकारिये ।
नमामि त्राहि पाहि भो ! पड़ा तवांश तोहिये ।। 4 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
त्रिदेह ये सभी जड़, गुणों त्रि अक्स इन्द्रिये ।
जड़ दशा त्रिताप ये स चिन्मनो अहं धिये ।।
स पंचभूत पंचतत्व ये जड़ त्रि शक्ति ये ।
स्वयं प्रकाश, ते चिदंश मैं तवांश तोहिए ।। 5 ।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
स्वयं प्रकाश तू स्वयं फुरा सशक्ति प्रेरिये ।
तभी तवादि मायया तवांश हुं पना लिये ।।
वही अनादि काल से भुला भ्रमाय जीव ये ।
प्रभो कृपा बिना कदा बची सके तवांश ये।। 6।।
सभी स्वयं म हेतु तैं तवांश क्या करे तुये ।।
फुरे तुही सते तरंग वासना समूल ये।
फुराय अंश को गहाय कल्पना सुदेह ये ।।
स वायु में घुसी जभी, यदा बनाय वायु ये।
सनीर भू घुसी जभी, रचे तु नीर भू तुये।। 7।।
हुए स हेतु तीन देह, अंश क्या करे तु ये ।।
फुरे तुही, स चित्त ते, मनो तरंग माल ये ।
करै तरंग नादहुं, वही अहंत्व भाव ये ।
प्रज्ञान रुप तू स्वयं, गहे तरंग सो धिये ।
उन्ही तरंग से भ्रमे, गहे तवांश सो हिये ।। 8 ।।
हुए हिये सुचार भेद, अंश क्या करे तु ये ।।
बनाय कौन इन्द्रियां कहो जु आप सांच ये ।
गढ़ी प्रज्ञान शक्ति से, करी विराट जांच ये ।।
तभी तवांश वृत्ति ये, गहे जु पांच-पांच ये ।
वही उजाय सूक्ष्म स्थूल, शक्ति ते भ्रमाय ये ॥ 9॥
दशों सहेतु मे भुलाय, अंश क्या करे तुये ।।
उन्हें अहं त्व शक्ति दे, प्रेरिये भुलात ये ।
सहो भुलात वासना, गही अहं भुलात ये ।।
वही भुलात सूक्ष्म होय, स्थूल होय भुलात ये।
तुझे त्व हेतु अर्पिते, अहं पनादि जात ये ।।
सभी स्वयं म हेतु तँ तवांश क्या करे तुये ।। 10।।
॥ अर्थ ॥
1- मैं तेरे चरणों में निज प्राण और जीव को समर्पित करता हूँ। चित्त, मन, बुद्धि और अंहकार को समर्पित करता हूँ, तीनों देह अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण को भी समर्पित करता हूँ, दसों इन्द्रियों को अर्थात् पञ्च कर्म इन्द्रियां और पञ्च ज्ञान इन्द्रियों को भी समर्पित करता हूँ, तीनों गुणों को अर्थात् रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण को भी समर्पित करता हूँ, तीनों संस्कार अर्थात् संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण को भी समर्पित करता हूँ, तीनों दशा अर्थात् जाग्रत, स्वप्न सुषुप्ति अथवा बचपन, जवानी और बुढ़ापे को भी समर्पित करता हूँ. त्रिताप अर्थात् दैहिक, दैविक और मानसिक को भी समर्पित करता हूँ, भक्ति, शक्ति और ज्ञान को भी समर्पित करता हूँ, यह सब तेरी सामग्री स्वयं तुझे अर्पित करके यह तेरा अंश तेरी ही शरण में पड़ा हुआ है, क्योंकि मैं तेरा अंश हूँ और मेरा सब कुछ कारण तू ही है इसलिये यह तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
2- तेरी आदि माया की भूल से कभी अंहकार को लेकर
अगर मुझसे कोई दोष आदि हो चुके हों, होते हों या आगे को हों, वे सब अभी तुझे समर्पित कर देता हूँ, मैं तेरे अधीन हूँ, कृपा करके मुझे स्वीकारिये । हे प्रभु शरणागत की रक्षा करो, कृपा करके रक्षा करो,तेरे को नमस्कार करता हुँ। यह तेरा अंश तेरे ही आश्रित पड़ा हैं। मेरा सब हेतु तू ही हैं। तेरा अंश क्या कर सकता हैं। जो कुछ करता हैं तू ही करता हैं।
3- तू ही प्राण, जीव तथा चित्त, मन, बुद्धि अहंकार को रचता है, तू ही तीनों गुण, तीनों देह, तीनों संस्कार और सब इन्द्रियों को रचता है, तू ही तीनों दशा, तीनों ताप, भक्ति, मुक्ति और सब ज्ञान को रचता है। इसलिये यह तेरी रचना तुझी को अर्पण करके यह तेरा अंश तेरे ही आश्रित पड़ा है क्योंकि मेरा सब हेतु तू ही है इसलिये तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
4- तू अपनी खुद की प्रेरणा से माया सहित सबको नचाता और तेरी आदि माया तेरी प्रेरणा से सबको नचाती है, तभी तेरी प्रेरणा से माया द्वारा अंहपना उत्पन्न हुआ इसलिये इस तेरी भूल से भूल कर से सबसे सब दोष होते हैं इसीलिये सब कुछ मैं तुझे अर्पण किये देता हूँ। मैं सब तरह आपके वश में हूँ, मुझे कृपा करके स्वीकारिये। हे प्रभो शरणागत की रक्षा करो, दया करके मेरी रक्षा कर मैं तुझे नमस्कार करता हूँ, तेरा अंश ही तेरे आश्रित पड़ा है, क्योंकि मेरा सब कुछ हेतु स्वयं तू ही है इसलिये यह तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
5- सिवाय तीनों देह, तीनों गुण, तीनों संस्कार और सभी इन्द्रियां जड़ हैं एवं तीनों दशा, तीनों ताप तथा तीनों चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार भी जड़ हैं एवं पंचभूत, पंचतत्व तथा तीनों शक्तियों भी जड़ हैं किन्तु केवल तू स्वयं प्रकाशक और चैतन्य है तिस पर यह तेरा अंश तेरे आश्रित पड़ा है, क्योंकि मेरा सब हेतु तू ही है इसलिये तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ करता है।
6- जब तू खुद स्वयं प्रकाश रुप से फुरा तभी प्रेरणा से तेरी शक्ति भी फुरी जो कि तेरी स्फुर्णा ही खुद (हुं) है तभी तेरी आदि माया के द्वारा स्वयं तेरे अंश को (हूं) पाना प्राप्त हुआ। यही (हुं) पाना आदि काल से जीव को भुला कर भ्रमा रहा है। हे प्रभु तेरी कृपा के बिना क्या कभी यह तेरा अंश बच सकता है? क्योंकि मेरा सब कुछ हेतु स्वयं तू ही है, इसलिये यह तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है ।
7 जो कि तू स्वयं चैतन्य सागर के समान है इसलिये ज्यों ही तू फुरा त्यों ही तुझमें तरंग उठी वहीं तरंग वासना का मूल कारण है, वहीं (हुं) रुप से अंश को फुरा कर कारण रुप कल्पित देह धराता है। अगर तू न फुरता तो कारण देह क्यों बनता, फिर जब वही वासना वायु में घुसी तब वायु रुप सूक्ष्म देह बनी, अगर वायु को न बनाया होता तो उसमें वासना मय कारण देह क्यों कर घुसता और फिर सूक्ष्म देह क्यों बनता ? फिर जब वह सूक्ष्म देह, भू व जल में घुसा तब स्थूल देह बना। अगर तू भू और जल न बनाता तो स्थूल देह क्यों कर बनता ? इसी हेतु से तीन देह बन गये इसलिये तेरा अंश क्या कर सकता है, बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
8- हे चैतन्य रुप प्रभु जो तेरे फुरने से तरंग उठती है वही तेरा चित्त है, और फिर जो उस फुरने से तरंग माला उठती है वही तेरा मन है और जो उस तरंग से (हूं) नाद उठता है वही तेरा अहंकार है। बल्कि तू स्वयं प्रज्ञान रुप है और सभी बात का ज्ञान कराने वाला है। इसलिये वह निश्चित तरंग ही तेरी बुद्धि है, उन्हीं तरंगों से भ्रमता हुआ यह तेरा अंश भी इन चारों को अर्थात् चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार को स्वयं ग्रहण करता है। इसी से अन्तःकरण के चार भेद हो गये ऐसी दशा में तेरा अंश क्या कर सकता है, बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
9- यथार्थ में इन्द्रियां कौन बनाता है स्वयं आप ही कहिये। तू ही (बिना आंख के देख सकता है, बिना कान के सुन सकता है, बिना नाक के सूंघ सकता है बिना जीभ के चख सकता है, बिना मुख के खा सकता है, बिना पैर के चल सकता है, बिना हाथ के कर सकता है, ये सब स्वयं कर सकता है। इसी प्रज्ञान शक्ति के द्वारा तूने ही सूक्ष्म इन्द्रियों की कल्पना की और फिर उन्हीं इन्द्रियों को स्वयं स्थूल रूप देकर तूने ही विराट द्वारा परीक्षा की, तभी तेरे अंशों की खुद वृत्ति ने भी दसों इन्द्रियों को ग्रहण कर लिया और फिर वही इन्द्रियां क्रम से सूक्ष्म तथा स्थूल अवस्था को तेरी शक्ति के द्वारा प्राप्त हुई क्योंकि तेरी शक्ति स्वयं जीव को भ्रमा रही है इसी कारण ये दसों इन्द्रियां खुद जीव को भुलाती हैं ऐसी दशा में तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
10- उन्हीं तेरे अंशों को स्वयं तेरी शक्ति अहंपना देती है और तू स्वयं उस शक्ति को प्रेरित करता है। इसी से यह अहंपना तेरे अंशों को भुला रहा है, और वही वासना रूप से भुला रहा है, वही सूक्ष्म रूप से होकर भुला रहा है, वही स्थूल रूप होकर भुला रहा है। इस तरह तेरे स्फूरण रूप अहंकार रूप से उत्पन्न होने वाले विकारों के द्वारा सब भूल रहे हैं, इसलिये तेरे अहंकार से उत्पन्न होने वाली सभी बातें स्वयं तुझी को समर्पित किये देता हूँ, क्योंकि मेरा सभी हेतु तू है, और मैं तेरा अंश हूँ, ऐसी दशा में तेरा अंश क्या कर सकता है, बल्कि सब कुछ तू ही करता हैं।
फुरे तुही सते तरंग वासना समूल ये।
फुराय अंश को गहाय कल्पना सुदेह ये ।।
स वायु में घुसी जभी, यदा बनाय वायु ये।
सनीर भू घुसी जभी, रचे तु नीर भू तुये।। 7।।
हुए स हेतु तीन देह, अंश क्या करे तु ये ।।
फुरे तुही, स चित्त ते, मनो तरंग माल ये ।
करै तरंग नादहुं, वही अहंत्व भाव ये ।
प्रज्ञान रुप तू स्वयं, गहे तरंग सो धिये ।
उन्ही तरंग से भ्रमे, गहे तवांश सो हिये ।। 8 ।।
हुए हिये सुचार भेद, अंश क्या करे तु ये ।।
बनाय कौन इन्द्रियां कहो जु आप सांच ये ।
गढ़ी प्रज्ञान शक्ति से, करी विराट जांच ये ।।
तभी तवांश वृत्ति ये, गहे जु पांच-पांच ये ।
वही उजाय सूक्ष्म स्थूल, शक्ति ते भ्रमाय ये ॥ 9॥
दशों सहेतु मे भुलाय, अंश क्या करे तुये ।।
उन्हें अहं त्व शक्ति दे, प्रेरिये भुलात ये ।
सहो भुलात वासना, गही अहं भुलात ये ।।
वही भुलात सूक्ष्म होय, स्थूल होय भुलात ये।
तुझे त्व हेतु अर्पिते, अहं पनादि जात ये ।।
सभी स्वयं म हेतु तँ तवांश क्या करे तुये ।। 10।।
॥ अर्थ ॥
1- मैं तेरे चरणों में निज प्राण और जीव को समर्पित करता हूँ। चित्त, मन, बुद्धि और अंहकार को समर्पित करता हूँ, तीनों देह अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण को भी समर्पित करता हूँ, दसों इन्द्रियों को अर्थात् पञ्च कर्म इन्द्रियां और पञ्च ज्ञान इन्द्रियों को भी समर्पित करता हूँ, तीनों गुणों को अर्थात् रजोगुण, तमोगुण और सतोगुण को भी समर्पित करता हूँ, तीनों संस्कार अर्थात् संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण को भी समर्पित करता हूँ, तीनों दशा अर्थात् जाग्रत, स्वप्न सुषुप्ति अथवा बचपन, जवानी और बुढ़ापे को भी समर्पित करता हूँ. त्रिताप अर्थात् दैहिक, दैविक और मानसिक को भी समर्पित करता हूँ, भक्ति, शक्ति और ज्ञान को भी समर्पित करता हूँ, यह सब तेरी सामग्री स्वयं तुझे अर्पित करके यह तेरा अंश तेरी ही शरण में पड़ा हुआ है, क्योंकि मैं तेरा अंश हूँ और मेरा सब कुछ कारण तू ही है इसलिये यह तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
2- तेरी आदि माया की भूल से कभी अंहकार को लेकर
अगर मुझसे कोई दोष आदि हो चुके हों, होते हों या आगे को हों, वे सब अभी तुझे समर्पित कर देता हूँ, मैं तेरे अधीन हूँ, कृपा करके मुझे स्वीकारिये । हे प्रभु शरणागत की रक्षा करो, कृपा करके रक्षा करो,तेरे को नमस्कार करता हुँ। यह तेरा अंश तेरे ही आश्रित पड़ा हैं। मेरा सब हेतु तू ही हैं। तेरा अंश क्या कर सकता हैं। जो कुछ करता हैं तू ही करता हैं।
3- तू ही प्राण, जीव तथा चित्त, मन, बुद्धि अहंकार को रचता है, तू ही तीनों गुण, तीनों देह, तीनों संस्कार और सब इन्द्रियों को रचता है, तू ही तीनों दशा, तीनों ताप, भक्ति, मुक्ति और सब ज्ञान को रचता है। इसलिये यह तेरी रचना तुझी को अर्पण करके यह तेरा अंश तेरे ही आश्रित पड़ा है क्योंकि मेरा सब हेतु तू ही है इसलिये तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
4- तू अपनी खुद की प्रेरणा से माया सहित सबको नचाता और तेरी आदि माया तेरी प्रेरणा से सबको नचाती है, तभी तेरी प्रेरणा से माया द्वारा अंहपना उत्पन्न हुआ इसलिये इस तेरी भूल से भूल कर से सबसे सब दोष होते हैं इसीलिये सब कुछ मैं तुझे अर्पण किये देता हूँ। मैं सब तरह आपके वश में हूँ, मुझे कृपा करके स्वीकारिये। हे प्रभो शरणागत की रक्षा करो, दया करके मेरी रक्षा कर मैं तुझे नमस्कार करता हूँ, तेरा अंश ही तेरे आश्रित पड़ा है, क्योंकि मेरा सब कुछ हेतु स्वयं तू ही है इसलिये यह तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
5- सिवाय तीनों देह, तीनों गुण, तीनों संस्कार और सभी इन्द्रियां जड़ हैं एवं तीनों दशा, तीनों ताप तथा तीनों चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार भी जड़ हैं एवं पंचभूत, पंचतत्व तथा तीनों शक्तियों भी जड़ हैं किन्तु केवल तू स्वयं प्रकाशक और चैतन्य है तिस पर यह तेरा अंश तेरे आश्रित पड़ा है, क्योंकि मेरा सब हेतु तू ही है इसलिये तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ करता है।
6- जब तू खुद स्वयं प्रकाश रुप से फुरा तभी प्रेरणा से तेरी शक्ति भी फुरी जो कि तेरी स्फुर्णा ही खुद (हुं) है तभी तेरी आदि माया के द्वारा स्वयं तेरे अंश को (हूं) पाना प्राप्त हुआ। यही (हुं) पाना आदि काल से जीव को भुला कर भ्रमा रहा है। हे प्रभु तेरी कृपा के बिना क्या कभी यह तेरा अंश बच सकता है? क्योंकि मेरा सब कुछ हेतु स्वयं तू ही है, इसलिये यह तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है ।
7 जो कि तू स्वयं चैतन्य सागर के समान है इसलिये ज्यों ही तू फुरा त्यों ही तुझमें तरंग उठी वहीं तरंग वासना का मूल कारण है, वहीं (हुं) रुप से अंश को फुरा कर कारण रुप कल्पित देह धराता है। अगर तू न फुरता तो कारण देह क्यों बनता, फिर जब वही वासना वायु में घुसी तब वायु रुप सूक्ष्म देह बनी, अगर वायु को न बनाया होता तो उसमें वासना मय कारण देह क्यों कर घुसता और फिर सूक्ष्म देह क्यों बनता ? फिर जब वह सूक्ष्म देह, भू व जल में घुसा तब स्थूल देह बना। अगर तू भू और जल न बनाता तो स्थूल देह क्यों कर बनता ? इसी हेतु से तीन देह बन गये इसलिये तेरा अंश क्या कर सकता है, बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
8- हे चैतन्य रुप प्रभु जो तेरे फुरने से तरंग उठती है वही तेरा चित्त है, और फिर जो उस फुरने से तरंग माला उठती है वही तेरा मन है और जो उस तरंग से (हूं) नाद उठता है वही तेरा अहंकार है। बल्कि तू स्वयं प्रज्ञान रुप है और सभी बात का ज्ञान कराने वाला है। इसलिये वह निश्चित तरंग ही तेरी बुद्धि है, उन्हीं तरंगों से भ्रमता हुआ यह तेरा अंश भी इन चारों को अर्थात् चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार को स्वयं ग्रहण करता है। इसी से अन्तःकरण के चार भेद हो गये ऐसी दशा में तेरा अंश क्या कर सकता है, बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
9- यथार्थ में इन्द्रियां कौन बनाता है स्वयं आप ही कहिये। तू ही (बिना आंख के देख सकता है, बिना कान के सुन सकता है, बिना नाक के सूंघ सकता है बिना जीभ के चख सकता है, बिना मुख के खा सकता है, बिना पैर के चल सकता है, बिना हाथ के कर सकता है, ये सब स्वयं कर सकता है। इसी प्रज्ञान शक्ति के द्वारा तूने ही सूक्ष्म इन्द्रियों की कल्पना की और फिर उन्हीं इन्द्रियों को स्वयं स्थूल रूप देकर तूने ही विराट द्वारा परीक्षा की, तभी तेरे अंशों की खुद वृत्ति ने भी दसों इन्द्रियों को ग्रहण कर लिया और फिर वही इन्द्रियां क्रम से सूक्ष्म तथा स्थूल अवस्था को तेरी शक्ति के द्वारा प्राप्त हुई क्योंकि तेरी शक्ति स्वयं जीव को भ्रमा रही है इसी कारण ये दसों इन्द्रियां खुद जीव को भुलाती हैं ऐसी दशा में तेरा अंश क्या कर सकता है बल्कि सब कुछ तू ही करता है।
10- उन्हीं तेरे अंशों को स्वयं तेरी शक्ति अहंपना देती है और तू स्वयं उस शक्ति को प्रेरित करता है। इसी से यह अहंपना तेरे अंशों को भुला रहा है, और वही वासना रूप से भुला रहा है, वही सूक्ष्म रूप से होकर भुला रहा है, वही स्थूल रूप होकर भुला रहा है। इस तरह तेरे स्फूरण रूप अहंकार रूप से उत्पन्न होने वाले विकारों के द्वारा सब भूल रहे हैं, इसलिये तेरे अहंकार से उत्पन्न होने वाली सभी बातें स्वयं तुझी को समर्पित किये देता हूँ, क्योंकि मेरा सभी हेतु तू है, और मैं तेरा अंश हूँ, ऐसी दशा में तेरा अंश क्या कर सकता है, बल्कि सब कुछ तू ही करता हैं।
हरि ॐ हर
केशव विनय
-- उत्तरार्द्ध--
।। ध्यान ।।
नंगा देह दिखे अति सुन्दर,
तन फूलों से शोभित खास।
दिव्यरूप सब केश मुड़ाये,
कम्बल ओढ़े कम्बलदास ।। 1 ।।
धर कांधे पर डंडा पकड़े,
बैठे दादा धूनी पास ।
आप दया कर, लख शरणागत,
करो सदा मम उर में वास ।। 2 ।।
॥ अर्थ ॥
हे दादा जी आपका नग्न शरीर अत्यन्त सुन्दर शोभायमान भासता है और वह दिव्य फूलों से सुशोभित है ऐसा आपका दिव्य स्वरूप केशों के मुड़वाने के कारण विशेष दिव्य भासता है, तिस पर भी आप कम्बल ओढ़ते हो और कम्बल ही बिछाते हो। हे दादा जी आप डंडा पकड़े हुए और उसे कांधे पर धारण किये हुए धूनी के पास बैठे हो, ऐसे आप मुझ पर कृपा करके और मुझ को अपने शरण आया हुआ देखकर सदा मेरे हृदय में उपर्युक्त रूप से निवास करो।
।। दोहा।।
केशव सब को वश करै, केशव सब को पीव ।
केशव अघ तन शव करै, शव को करै सजीव ।। 1 ।।
केशव ईशत सभी को, केशव सब को ईश ।
शके सभी केशव करी, स्वयं सुधाकर धीश ।। 2 ।।
केश गहे सब के वही, काटे सब के केश ।
केश यज्ञ केशव करे, ना तम राखै शेष ।। 3 ।।
केश गहत बन काल तू, काटत बनी महेश ।
हवन करत बन यज्ञ पति, हरता जन के क्लेश ।। 4 ।।
॥ अर्थ ।।
1- हे केशव! तू ही सबको वश कर सकता है, तू ही सबका पति है तथा तू ही शरीर के पापों को नष्ट करता है, और शव यानि मुर्दे को भी सजीव कर सकता है।
2-- हे केशव! तू ही सबका ईशन याने निग्रह करता है इसी से तू सबका ईश्वर है। हे केशव! तू सब कुछ कर सकता है, तू ही स्वयं अमृत का बनाने वाला और बुद्धि का ईश है।
3-- हे केशव! तू ही सबके केश पकड़ता है, तू ही सब के केश काटता है । हे केशव तू ही फिर उन केशों का यज्ञ करता है, इस तरह भक्तों का सब अज्ञान दूर कर देता है।
4- हे केशव! तू ही काल बन कर केश पकड़ता है, तू ही महेश बन कर उन केशों को काटता है, और तू ही यज्ञ पति बनकर उन केशों का होम करता है, इस तरह भक्तों के सब दुःख दूर करता है।
।। चौपाया ।।
जय जय गुरुवर कृष्णानन्द ।
जय जय केशव परमानन्द ।। 1 ।।
जय अवधूत केशवानन्द ।
जय जय नमो सच्चिदानन्द।। 2 ।।
जय-जय केशव सहजानन्द ।
जय आनन्द कन्द सानन्द ।। 3 ।।
जय-जय केशव ब्रह्मानन्द ।
त्राहि पाहि नित नमो मुकुन्द ।। 4 ।।
जय-जय डंडे वाले चन्ड ।
कन्धे पर नित धारे डंड।। 5 ।।
मार भगावै यम का फन्द ।
रोग दोष भव बाधा द्वन्द ।। 6।।
धूनी वाले स्वयं प्रचन्ड ।
करै करावै होम अखण्ड।। 7।।
तृप्त देव देवी आनन्द ।
जन के दोष हरै सानन्द ।। 8 ।।
फेंक लुटावै मेवा कन्द ।
हरता भूत पितर का फंद ।। 9 ।।
खात खिलावत कृष्णानन्द ।
ब्रह्म भोज कर, यो सानन्द ।। 10।।
चुरा उठावै जो छल छन्द ।
गुप्त दान का दोष अखण्ड ।। 11 ।।
जौ तू देत सुधा सम वन्द्य ।
बिना दिये ले विषसम निंद्य ।। 12 ।।
1-- हे कृष्णानन्द रूप दादा आप गुरुओं के भी गुरु हो आपकी जय हो, जय हो। हे परमानन्द रूप दादा आप ही केशव हो, आपकी जय हो, जय हो ।
2- हे केशवानन्द रूप दादा आप स्वयं अवधूत हो आपकी जय हो जय हो। हे सच्चिदानन्द रूप दादा आपको यह दास प्रणाम करता है आपकी जय हो, जय हो।
3-- हे सहजानन्द रूप केशव आपकी जय हो, जय हो। हे आनन्द रूप दादा आप आनन्द की भी जड़ हो, आपकी जय हो, जय हो।
4- हे ब्रह्मानन्द रूप केशव आपकी जय हो, जय हो । हे मुकुन्द रूप सदा मिथ्या को नसाने वाले आपको यह दास प्रणाम करता है, शरणागत की रक्षा करो, कृपा दृष्टि करके रक्षा करो।
5-- हे सूर्य के समान प्रचण्ड प्रतापी डंडे वाले दादा आप सदा कांधे पर डंडा धारे रहते हो, आपकी जय हो, जय हो।
6-- हे दादा आप डंडा मार कर सांसारिक झगड़े, बाधा, दोष,रोग तथा यम के फंदे को भी हटा देते हो ।
7- हे प्रचंड प्रतापी धूनी वाले दादा आप सदा स्वयं अखण्ड होम करके तथा भक्तों से भी होम कराते हो इस गरज से कि-
8-- जिसमें देवी देवता तृप्त होकर खुश हों और खुश होकर भक्तों के देव सम्बन्धी दोषों को दूर करें।
9- हे दादा आप मेवा, मिठाई आदि फेंक कर इसलिये लुटाते हो कि जिसमें उनके भूत, पितर आदि दोष दूर हों।
10- हे कृष्णानन्द दादा आप प्रसन्न होकर भक्तों का दिया नैवेद्य प्रसाद आदि खुद खाते तथा औरों को भी खिलाते हो इस तरह ब्रह्मभोज करके भक्तों का ऋषि दोष दूर करते हो।
11-- हे दादा ! जो छल, बल से उस सामग्री को चुरा कर उठा लेता है उसे गुप्त दान का अखण्ड दोष दिलाते हो।
12- हे दादा जी खुद आप अपने हाथों से देते हो तथा दिलाते हो वे सब पदार्थ अमृत तुल्य वन्दनीय हैं, किन्तु जो बिना दिये ही ले लेता है वह सब पदार्थ विष के समान निन्दनीय हैं।
।। दोहा ।।
हरत देव ऋण यज्ञ से, पितृ ऋणहि लुटवाय ।
ऋषि ऋण हरता स्वयं तू, बांट खाय खिलवाय।। 1 ।।
तू जभी विघ्न आगम लखे, चीरे वस्त्र जलाय।
हरता संकट फोड़ घट, घातहि मार लगाय।। 2।।
धूनी की खुद भस्म दे, नाशत नाना रोग ।
तन मन को यों शुद्ध कर, सभी सधाता योग ।। 3 ।।
जो रक्षा तन की करै, जो जठराग्नि बढ़ाय।
जो रक्षे आयु तभी, रक्षा राख कहाय ।। 4।।
जो धूनी में देत खुद, कन्डा लकड़ी आप ।
उनके नाशत विघ्न तू, जारत तन के पाप ।। 5 ।।
धूनि सुधारत जो मनुज, उसे उच्च पद देत।
निश दिन सेवत जो उसे, सभी रोग हर लेत ।। 6 ।।
मले तेल घृत जो तुझे, भक्ति उसे निज देत ।
श्वान सुअर के जन्म सब, हरै मूत्र मल लेत ।। 7 ।।
देत ध्यान तब ज्ञान वर, पूजा दे सत्कार ।
तेरी सेवा देत सब, दया देत जन तार ।। 8 ।।
दीप हेत घृत तेल दे, जो दे दीपक जोय ।
पुत्र कामना होय तो, ता निर्वंश न होय ।। १ ।।
हो निष्कामी दीप जो, जोई करै प्रकाश।
उसके उर दे ज्ञान तू, करता तम का नाश ।। 10।।
जो झाड़ै दरबार तब, तू झाड़ै ता दोष ।
जो लीपै ता प्रेम से, तू लीपै ता दोष ।। 11।।
जो तेरे खुद नाम पर, जल पा अन्न खिलाय।
नाशत उसके घात अघ, देता भगा बलाय ।। 12 ।।
जो तव हित उत्सव करै, आप करै ता हेत।
धनी सुखी इस जन्म में, दिव्य जन्म पर देत ।। 13।।
कर्म करै तब हेत जो, सहस गुणाकर सोय।
ज्यों का त्यों वर भोग दे, दिव्य जन्म ता होय।। 14।।
जो विरक्त निष्काम हो, करै कर्म तब हेत।
उसका हरी अज्ञान सब, मुक्ति उसे तू देत ।। 15।।
तू ना चाहे काम कुछ, चहे भक्ति निष्काम।
निष्कामी ता भक्त के, स्वयं सुधारे काम।। 16 ।।
चाहे सच्चा प्रेम तू, कपट रहित व्यवहार ।
उसका तू खुद दास बन करता बेड़ा पार ।। 17।।
बैठ हजारों कोस जो, टेरे हो आसक्त ।
करत मदद तू झट उसे देखी सच्चा भक्त ।। 18 ।।
॥ अर्थ ॥
1-- हे दादा ! तू यज्ञ के द्वारा देव ऋण हटाता है और लुटाने के द्वारा देने वाले का पितृ ऋण दूर करता है तथा बाट कर खाने खिलाने के द्वारा देने वाले का ऋषि ऋण दूर करता है।
2-- हे दादा ! जब तू किसी विघ्न को आता हुआ देखता है। तब तू उस भक्त के वस्त्र चीरता या जला देता है और घड़ा फोड़कर भक्त का संकट हरता है तथा मार लगा कर घात हटाता है।
3-- हे दादा ! तू खुद अपनी धूनी की भस्म देकर भक्तों के अनेक रोग नसाता है तथा तन, मन को शुद्ध करके उनके सभी काम सधाता है।
4- भस्म तन की रक्षा करती है, जठराग्नि बढ़ाती है तथा जीवन की रक्षा करती है एवं जो भस्म सब विघ्नों से रक्षा करने वाली है इसी से इसे रक्षा या राख कहते हैं।
5-- हे दादा ! जो भक्त तेरी धूनी में स्वयं कन्डा, लकड़ी देताहै उस के तू विघ्न नसाता है तथा तन के पाप जलाता है।
6-- हे दादा। जो भक्त तेरी धूनी नित्य सुधारता है उसे तू उच्च पद देता है या धूनी की सेवा से उसके सभी रोग हर लेता है।
7-- हे दादा ! जो तुझे तेल या घी मलता है उसे तू निज भक्ति देता है, और जिसे तू मल-मूत्र खिला-पिला देता है उसके आगे के होने वाले स्वान, सुअर के जन्म हर लेता है।
8-- हे दादा ! तेरा ध्यान ही श्रेष्ठ ज्ञान का देने वाला है, और पूजा ही सर्वत्र आदर देने वाली है, तथा तेरी सेवा ही सब कुछ तेरी देने वाली है, बल्कि तेरी दया स्वयं भक्त को तार देती है।
9 · हे दादा! जो दीपक के लिये घी या तेल देता है या जो तेरे दीपक लगा देता है यदि उसे पुत्र की कामना हो तो तू उस को निर्वश नहीं होने देता है।
10- • किन्तु हे दादा जो निष्काम बुद्धि से दीपक लगाकर तेरे यहां प्रकाश करता है उसके सब अज्ञान अन्धकार हर कर उसके हृदय में तू ज्ञान का प्रकाश कर देता है।
11- · हे दादा ! जो तेरे दरबार को प्रेम पूर्वक झाड़ता है उसके दोषों को तू खुद झाड़ता है और जो तेरे दरबार को प्रेमपूर्वक लीपता है उसके दोषों को तू खुद लीपता है।
12- हे दादा ! जो तेरे नाम पर जल पिलाता है या अन्न खिलाता है उसके तू सब पाप और घात नसाता है तथा उसकी कंगाली भी दूर कर देता है या सब प्रकार की बलाएं हटा देता है।
13-- हे दादा ! जो भक्त तेरे लिये उत्सव करता है उसका तू जगत में उत्सव कराता है तथा इस जन्म में उसे धनी या सुखी बनाता है, और फिर मेरे बाद उसे दिव्य जन्म देता है ।
14-- हे दादा ! जो कोई तेरे लिये जो कुछ कर्म करता है, उसे उसी का ज्यों का त्यों हजार गुना फल देता है और फिर मरने के बाद उसे दिव्य जन्म देता है।
15-- हे दादा ! जो भक्त विरक्त तथा निष्काम होकर तेरे लिये शुभ कर्म करता है। तू उसका सब अज्ञान हर कर उसे मोक्ष प्रदान करता है।
16- हे दादा! तू अपने स्वार्थ के लिये कुछ भी काम नहीं ! चाहता बल्कि निष्काम भक्ति चाहता है तथा तू उस निष्काम भक्त के स्वयं सभी काम सुधारता हैं।
17-- हे दादा! तू सच्चा प्रेम और कपट रहित बर्ताव चाहता है, और जो कोई सच्चा प्रेम और कपट रहित बर्ताव करता है, उसका तू खुद दास बन कर बेड़ा पार करता है।
18-- हे दादा ! जो निष्कपट प्रेमपूर्वक हजारों कोस के फासले पर बैठ कर भी अत्यन्त आसक्त हो तुझे भजता है उसकी सच्ची भक्ति देखकर तू तत्काल उसे मदद देता है।
।। ध्यान ।।
नंगा देह दिखे अति सुन्दर,
तन फूलों से शोभित खास।
दिव्यरूप सब केश मुड़ाये,
कम्बल ओढ़े कम्बलदास ।। 1 ।।
धर कांधे पर डंडा पकड़े,
बैठे दादा धूनी पास ।
आप दया कर, लख शरणागत,
करो सदा मम उर में वास ।। 2 ।।
॥ अर्थ ॥
हे दादा जी आपका नग्न शरीर अत्यन्त सुन्दर शोभायमान भासता है और वह दिव्य फूलों से सुशोभित है ऐसा आपका दिव्य स्वरूप केशों के मुड़वाने के कारण विशेष दिव्य भासता है, तिस पर भी आप कम्बल ओढ़ते हो और कम्बल ही बिछाते हो। हे दादा जी आप डंडा पकड़े हुए और उसे कांधे पर धारण किये हुए धूनी के पास बैठे हो, ऐसे आप मुझ पर कृपा करके और मुझ को अपने शरण आया हुआ देखकर सदा मेरे हृदय में उपर्युक्त रूप से निवास करो।
।। दोहा।।
केशव सब को वश करै, केशव सब को पीव ।
केशव अघ तन शव करै, शव को करै सजीव ।। 1 ।।
केशव ईशत सभी को, केशव सब को ईश ।
शके सभी केशव करी, स्वयं सुधाकर धीश ।। 2 ।।
केश गहे सब के वही, काटे सब के केश ।
केश यज्ञ केशव करे, ना तम राखै शेष ।। 3 ।।
केश गहत बन काल तू, काटत बनी महेश ।
हवन करत बन यज्ञ पति, हरता जन के क्लेश ।। 4 ।।
॥ अर्थ ।।
1- हे केशव! तू ही सबको वश कर सकता है, तू ही सबका पति है तथा तू ही शरीर के पापों को नष्ट करता है, और शव यानि मुर्दे को भी सजीव कर सकता है।
2-- हे केशव! तू ही सबका ईशन याने निग्रह करता है इसी से तू सबका ईश्वर है। हे केशव! तू सब कुछ कर सकता है, तू ही स्वयं अमृत का बनाने वाला और बुद्धि का ईश है।
3-- हे केशव! तू ही सबके केश पकड़ता है, तू ही सब के केश काटता है । हे केशव तू ही फिर उन केशों का यज्ञ करता है, इस तरह भक्तों का सब अज्ञान दूर कर देता है।
4- हे केशव! तू ही काल बन कर केश पकड़ता है, तू ही महेश बन कर उन केशों को काटता है, और तू ही यज्ञ पति बनकर उन केशों का होम करता है, इस तरह भक्तों के सब दुःख दूर करता है।
।। चौपाया ।।
जय जय गुरुवर कृष्णानन्द ।
जय जय केशव परमानन्द ।। 1 ।।
जय अवधूत केशवानन्द ।
जय जय नमो सच्चिदानन्द।। 2 ।।
जय-जय केशव सहजानन्द ।
जय आनन्द कन्द सानन्द ।। 3 ।।
जय-जय केशव ब्रह्मानन्द ।
त्राहि पाहि नित नमो मुकुन्द ।। 4 ।।
जय-जय डंडे वाले चन्ड ।
कन्धे पर नित धारे डंड।। 5 ।।
मार भगावै यम का फन्द ।
रोग दोष भव बाधा द्वन्द ।। 6।।
धूनी वाले स्वयं प्रचन्ड ।
करै करावै होम अखण्ड।। 7।।
तृप्त देव देवी आनन्द ।
जन के दोष हरै सानन्द ।। 8 ।।
फेंक लुटावै मेवा कन्द ।
हरता भूत पितर का फंद ।। 9 ।।
खात खिलावत कृष्णानन्द ।
ब्रह्म भोज कर, यो सानन्द ।। 10।।
चुरा उठावै जो छल छन्द ।
गुप्त दान का दोष अखण्ड ।। 11 ।।
जौ तू देत सुधा सम वन्द्य ।
बिना दिये ले विषसम निंद्य ।। 12 ।।
1-- हे कृष्णानन्द रूप दादा आप गुरुओं के भी गुरु हो आपकी जय हो, जय हो। हे परमानन्द रूप दादा आप ही केशव हो, आपकी जय हो, जय हो ।
2- हे केशवानन्द रूप दादा आप स्वयं अवधूत हो आपकी जय हो जय हो। हे सच्चिदानन्द रूप दादा आपको यह दास प्रणाम करता है आपकी जय हो, जय हो।
3-- हे सहजानन्द रूप केशव आपकी जय हो, जय हो। हे आनन्द रूप दादा आप आनन्द की भी जड़ हो, आपकी जय हो, जय हो।
4- हे ब्रह्मानन्द रूप केशव आपकी जय हो, जय हो । हे मुकुन्द रूप सदा मिथ्या को नसाने वाले आपको यह दास प्रणाम करता है, शरणागत की रक्षा करो, कृपा दृष्टि करके रक्षा करो।
5-- हे सूर्य के समान प्रचण्ड प्रतापी डंडे वाले दादा आप सदा कांधे पर डंडा धारे रहते हो, आपकी जय हो, जय हो।
6-- हे दादा आप डंडा मार कर सांसारिक झगड़े, बाधा, दोष,रोग तथा यम के फंदे को भी हटा देते हो ।
7- हे प्रचंड प्रतापी धूनी वाले दादा आप सदा स्वयं अखण्ड होम करके तथा भक्तों से भी होम कराते हो इस गरज से कि-
8-- जिसमें देवी देवता तृप्त होकर खुश हों और खुश होकर भक्तों के देव सम्बन्धी दोषों को दूर करें।
9- हे दादा आप मेवा, मिठाई आदि फेंक कर इसलिये लुटाते हो कि जिसमें उनके भूत, पितर आदि दोष दूर हों।
10- हे कृष्णानन्द दादा आप प्रसन्न होकर भक्तों का दिया नैवेद्य प्रसाद आदि खुद खाते तथा औरों को भी खिलाते हो इस तरह ब्रह्मभोज करके भक्तों का ऋषि दोष दूर करते हो।
11-- हे दादा ! जो छल, बल से उस सामग्री को चुरा कर उठा लेता है उसे गुप्त दान का अखण्ड दोष दिलाते हो।
12- हे दादा जी खुद आप अपने हाथों से देते हो तथा दिलाते हो वे सब पदार्थ अमृत तुल्य वन्दनीय हैं, किन्तु जो बिना दिये ही ले लेता है वह सब पदार्थ विष के समान निन्दनीय हैं।
।। दोहा ।।
हरत देव ऋण यज्ञ से, पितृ ऋणहि लुटवाय ।
ऋषि ऋण हरता स्वयं तू, बांट खाय खिलवाय।। 1 ।।
तू जभी विघ्न आगम लखे, चीरे वस्त्र जलाय।
हरता संकट फोड़ घट, घातहि मार लगाय।। 2।।
धूनी की खुद भस्म दे, नाशत नाना रोग ।
तन मन को यों शुद्ध कर, सभी सधाता योग ।। 3 ।।
जो रक्षा तन की करै, जो जठराग्नि बढ़ाय।
जो रक्षे आयु तभी, रक्षा राख कहाय ।। 4।।
जो धूनी में देत खुद, कन्डा लकड़ी आप ।
उनके नाशत विघ्न तू, जारत तन के पाप ।। 5 ।।
धूनि सुधारत जो मनुज, उसे उच्च पद देत।
निश दिन सेवत जो उसे, सभी रोग हर लेत ।। 6 ।।
मले तेल घृत जो तुझे, भक्ति उसे निज देत ।
श्वान सुअर के जन्म सब, हरै मूत्र मल लेत ।। 7 ।।
देत ध्यान तब ज्ञान वर, पूजा दे सत्कार ।
तेरी सेवा देत सब, दया देत जन तार ।। 8 ।।
दीप हेत घृत तेल दे, जो दे दीपक जोय ।
पुत्र कामना होय तो, ता निर्वंश न होय ।। १ ।।
हो निष्कामी दीप जो, जोई करै प्रकाश।
उसके उर दे ज्ञान तू, करता तम का नाश ।। 10।।
जो झाड़ै दरबार तब, तू झाड़ै ता दोष ।
जो लीपै ता प्रेम से, तू लीपै ता दोष ।। 11।।
जो तेरे खुद नाम पर, जल पा अन्न खिलाय।
नाशत उसके घात अघ, देता भगा बलाय ।। 12 ।।
जो तव हित उत्सव करै, आप करै ता हेत।
धनी सुखी इस जन्म में, दिव्य जन्म पर देत ।। 13।।
कर्म करै तब हेत जो, सहस गुणाकर सोय।
ज्यों का त्यों वर भोग दे, दिव्य जन्म ता होय।। 14।।
जो विरक्त निष्काम हो, करै कर्म तब हेत।
उसका हरी अज्ञान सब, मुक्ति उसे तू देत ।। 15।।
तू ना चाहे काम कुछ, चहे भक्ति निष्काम।
निष्कामी ता भक्त के, स्वयं सुधारे काम।। 16 ।।
चाहे सच्चा प्रेम तू, कपट रहित व्यवहार ।
उसका तू खुद दास बन करता बेड़ा पार ।। 17।।
बैठ हजारों कोस जो, टेरे हो आसक्त ।
करत मदद तू झट उसे देखी सच्चा भक्त ।। 18 ।।
॥ अर्थ ॥
1-- हे दादा ! तू यज्ञ के द्वारा देव ऋण हटाता है और लुटाने के द्वारा देने वाले का पितृ ऋण दूर करता है तथा बाट कर खाने खिलाने के द्वारा देने वाले का ऋषि ऋण दूर करता है।
2-- हे दादा ! जब तू किसी विघ्न को आता हुआ देखता है। तब तू उस भक्त के वस्त्र चीरता या जला देता है और घड़ा फोड़कर भक्त का संकट हरता है तथा मार लगा कर घात हटाता है।
3-- हे दादा ! तू खुद अपनी धूनी की भस्म देकर भक्तों के अनेक रोग नसाता है तथा तन, मन को शुद्ध करके उनके सभी काम सधाता है।
4- भस्म तन की रक्षा करती है, जठराग्नि बढ़ाती है तथा जीवन की रक्षा करती है एवं जो भस्म सब विघ्नों से रक्षा करने वाली है इसी से इसे रक्षा या राख कहते हैं।
5-- हे दादा ! जो भक्त तेरी धूनी में स्वयं कन्डा, लकड़ी देताहै उस के तू विघ्न नसाता है तथा तन के पाप जलाता है।
6-- हे दादा। जो भक्त तेरी धूनी नित्य सुधारता है उसे तू उच्च पद देता है या धूनी की सेवा से उसके सभी रोग हर लेता है।
7-- हे दादा ! जो तुझे तेल या घी मलता है उसे तू निज भक्ति देता है, और जिसे तू मल-मूत्र खिला-पिला देता है उसके आगे के होने वाले स्वान, सुअर के जन्म हर लेता है।
8-- हे दादा ! तेरा ध्यान ही श्रेष्ठ ज्ञान का देने वाला है, और पूजा ही सर्वत्र आदर देने वाली है, तथा तेरी सेवा ही सब कुछ तेरी देने वाली है, बल्कि तेरी दया स्वयं भक्त को तार देती है।
9 · हे दादा! जो दीपक के लिये घी या तेल देता है या जो तेरे दीपक लगा देता है यदि उसे पुत्र की कामना हो तो तू उस को निर्वश नहीं होने देता है।
10- • किन्तु हे दादा जो निष्काम बुद्धि से दीपक लगाकर तेरे यहां प्रकाश करता है उसके सब अज्ञान अन्धकार हर कर उसके हृदय में तू ज्ञान का प्रकाश कर देता है।
11- · हे दादा ! जो तेरे दरबार को प्रेम पूर्वक झाड़ता है उसके दोषों को तू खुद झाड़ता है और जो तेरे दरबार को प्रेमपूर्वक लीपता है उसके दोषों को तू खुद लीपता है।
12- हे दादा ! जो तेरे नाम पर जल पिलाता है या अन्न खिलाता है उसके तू सब पाप और घात नसाता है तथा उसकी कंगाली भी दूर कर देता है या सब प्रकार की बलाएं हटा देता है।
13-- हे दादा ! जो भक्त तेरे लिये उत्सव करता है उसका तू जगत में उत्सव कराता है तथा इस जन्म में उसे धनी या सुखी बनाता है, और फिर मेरे बाद उसे दिव्य जन्म देता है ।
14-- हे दादा ! जो कोई तेरे लिये जो कुछ कर्म करता है, उसे उसी का ज्यों का त्यों हजार गुना फल देता है और फिर मरने के बाद उसे दिव्य जन्म देता है।
15-- हे दादा ! जो भक्त विरक्त तथा निष्काम होकर तेरे लिये शुभ कर्म करता है। तू उसका सब अज्ञान हर कर उसे मोक्ष प्रदान करता है।
16- हे दादा! तू अपने स्वार्थ के लिये कुछ भी काम नहीं ! चाहता बल्कि निष्काम भक्ति चाहता है तथा तू उस निष्काम भक्त के स्वयं सभी काम सुधारता हैं।
17-- हे दादा! तू सच्चा प्रेम और कपट रहित बर्ताव चाहता है, और जो कोई सच्चा प्रेम और कपट रहित बर्ताव करता है, उसका तू खुद दास बन कर बेड़ा पार करता है।
18-- हे दादा ! जो निष्कपट प्रेमपूर्वक हजारों कोस के फासले पर बैठ कर भी अत्यन्त आसक्त हो तुझे भजता है उसकी सच्ची भक्ति देखकर तू तत्काल उसे मदद देता है।
।। चौपाया ।।
जो जन सन्मुख हुक्म चलाय।
गाली दे या देय धकाय।। 1।।
करे बुराई मार भगाय।
वह जन तुझे तनक न भाय ।। 2 ।।
सन्मुख जो जन जिसे सताय।
उसका पातक उसे दिलाय।। 3 ।।
जिसका भोजन जो ले खाय।
उसका उसको पाप दिलाय।। 4 ।।
रहे मौन खा गाली मार।
ना मन जरे उसे दे तार ।। 5 ।।
आप अनेकों विधि बताय।
जन के पातक देत नसाय ।। 6 ।।
भण्डारा जितने जन खांय।
लें उतने ता पाप बटाय ।। 7।।
चूड़ी फोड़ी वैधव खोय।
ले टीकी पति चंगा होय ।। 8 ।।
उठत शक्ति के विपुल तरंग।
भले बुरे के वे घुस अंग ।। १ ।।
हो दूषित जब बाहर जाय।
लागत जिसे हानि पहुंचाय।। 10।।
उनसे तू झट देत बचाय।
इधर उधर ता जनहिं हटाय।। 11।।
बुरी घड़ी जब कोई आय।
जनहि बिठा खुद लेत भुगाय।। 12।।
घड़ी देख शुभ देत रजाय।
सिद्ध करत सब काम पठाय।। 13।।
दे रोटी तू जिसे खिलाय।
अन्न कष्ट वह कभी न पाय ।। 14।।
कहे किसे तू किसे सुनाय।
होनहार सब देत बताय।। 15।।
तब निश्चय ना राखे जोय।
उसे दिखे तू औरहि कोय।। 16।।
कपट प्रेम कर छल से आय।
वह जन तुझे तनक ना भाय।। 17।।
उसका जरा करै ना काम।
चाहे तुझे करै बदनाम।। 18।।
पापी चाहे जैसा होय।
शरण लखी तू राखे सोय।। 19।।
उसका साधे तू सब काम ।
जात पन्थ कुल लखे न धाम ।। 20 ।।
करै भक्ति जो जन जिस हेत।
वहीं वस्तु तू ताको देत।। 21 ।।
करनीवत भुगतावे भोग।
भला-बुरा ता सुख-दुख रोग।। 22।।
शरणागत उर दृढ़ता देख।
मारत स्वयं रेख पर मेख।। 23।।
किये पाप ले जन्म अनेक।
दे भुगता तू जन्महि एक ।। 24 ।।
एक जन्म के पाप जितेक।
तू भुगता दे वर्षहि एक ।। 25 ।।
वर्ष मास में, मास दिनेक।
मेटे दिन अघ पल में एक ।। 26।।
दण्ड देत तू बन यमराज ।
पाछे तूर्त सुधारे काज ।। 27 ।।
देख दण्ड जो नर भाग जाय।
बिलकुल कोरा वह रह जाए।। 28 ।।
धैर्य धरी जो खावे मार ।
निश्चय उसको तू दे तार ।। 29 ।।
बिना मार सब धर्मी पाय ।
बिन पढ़ा ज्ञानी हो जाय ।। 30 ।।
ऋद्धि-सिद्धि तू मुक्ति देत ।
दे निज भक्ति दुख हर लेत।। 31।।
तव आज्ञा ना माने जोय।
उसका कारज कभी न होय ।। 32।।
वह खावै फोकट में मार ।
तौभी करते कुछ उपकार ।। 33 ।।
बने जहां तक आज्ञा भंग।
करैं कभी ना तजै अडंग ।। 34।।
जितना सधै करे मन पाग।
निश्चय उसका खोले भाग ।। 35।।
जो जन राखै तब मर्याद।
राखै सदा उसे तू याद ।। 36 ।।
जो करता मर्यादा भंग।
उसको सदा करै तू तंग ।। 37 ।।
सृष्टि नियम वत तव मर्यादा।
सबको करै सदा आबाद।। 38 ।।
जो नर जाकी निन्दा करै।
ताको पातक ता सिर धरै।। 39।।
चोरी जारी जो जस करें।
सो जस ताको फल अनुसरै ।। 40।।
।। अर्थ ।।
1- हे दादा ! जो मनुष्य तेरे सन्मुख औरों पर हुक्म चलाता है, गाली देता है, या क्का देता है।
2- जो बुराई करता है, मारता है या भगा देता है वह मनुष्य तुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। 3- हे दादा ! जो जन तेरे सन्मुख जिसे सताता है तू उसका पाप सताने वाले को देता है।
4- हे दादा ! जो जन जिसका भोजन लेकर खा जाता है, तू खाने वाले को उसका पाप दिलाता है।
5- हे दादा ! जो जन औरों की गाली तथा औरों की मार खा कर चुप रहता है और मन में उस पर नहीं जलता, उस मनुष्य तार देता है। तू
6- हे दादा ! तू अनेकों विधि बता कर भक्तों के पाप नसा देता है।
7- हे दादा ! जितने मनुष्य भंडारा खाते हैं वे सब भंडारा करने वाले का पाप बांट लेते हैं।
8- हे दादा ! तू स्त्रियों की चूड़ी फोड़ कर उनका होने वाला विधवापन खो देता है और उनके सिर की टीकी लेकर उनके पति को चंगा कर देता है।
9 • हे दादा ! जो अदृश्य शक्ति के अनेक तरंग उठा करते हैं बल्कि वे ही परस्पर भले-बुरे के शरीरों में घुसा करते हैं।
10- वे ही बुरे अंगों से दूषित होकर बाहर निकलते हैं तब वे दूषित तरंग जिसे लगते हैं या जिसमें घुसते हैं उसे हानि पहुंचाते हैं।
11- हे दादा ! तब तू अपने भक्तों को इधर-उधर हटा कर उन्हें बुरे तरंगों से बचा देता है।
12- हे दादा ! जब किसी भक्त की बुरी घड़ी आती है तब तू उसे अपने पास बिठा कर तथा भगा कर बचा लेता है।
13- जब शुभ घड़ी आती हुई देखता है तब उसे बिदा कर उसके सब काम सिद्ध करता है ।
14- हे दादा ! तू जिसे रोटी देता या खिला देता है उसे अन्न कष्ट कभी होने नहीं होने पाता।
15- हे दादा! तू किस की बात किसी और ही को सुना कर कहता है बल्कि इस तरह होनहार कह देता है।
16- हे दादा ! जो जन तुझ पर विश्वास नहीं रखता उसे तू
कुछ और ही दीखता है।
17- हे दादा ! जो कपटी मन में छल रख कर तेरे पास आता है और ऊपर से प्रेम दिखाता है वह मनुष्य तुझे बिल्कुल नहीं सुहाता ।
18- उसका तू जरा सा भी काम नहीं करता चाहे वह तुझे
कितना ही बदनाम क्यों न करे।
19- हे दादा ! चाहे कैसा ही पापी क्यों न हो तो भी तू उसे शरण में रख लेता है।
20- और उसका सब कुछ काम सिद्ध करता है लेकिन उसके काम, जात, मत या कुल पर लक्ष नहीं देता।
21- हे दादा ! जो जन जिस काम के लिये तेरी भक्ति करता है तू उस भक्त को वही वस्तु प्रदान करता है।
22- हे दादा ! तू स्वयं भक्त का उसकी करनी के अनुसार भला-बुरा, सुख-दुःख, रोग-शोक भगा देता है।
23- हे दादा ! तू जब अपने शरण में आये हुए भक्त का पूर्ण दृढ़ विश्वास देख लेता है तब उसके भाग्य की बुरी रेखा पर भी मेख मार देता है अर्थात् उसकी बुरी रेखा मिटा देता है।
24- हे दादा ! तू भक्तों के अनेक जन्मों के किये हुए पापों को,एक ही जन्म में भगा देता है।
25- एक जन्म भर के किये हुए पापों को तू एक ही वर्ष में भगा देता है।
26- वर्ष भर के किये पापों को एक मास में भगा देता है और एक मास के किये पापों को एक दिन में भगा देता है बल्कि एक दिन के किये पापों को एक क्षण में भगा देता है।
27- हे दादा ! तू यमराज बन कर दण्ड देता है, किन्तु पीछे उस भक्त का शीघ्र ही काम सुधार देता है।
28- हे दादा ! जो मनुष्य तेरा डंडा देख कर भाग जाता है वह बिल्कुल ही कोरा रह जाता है अर्थात् उसका कोई काम सिद्ध नहीं होता।
29- लेकिन जो मन में धैर्य रखकर मार भी खा लेता है तू निश्चय उस भक्त को तार देता है।
30 - परन्तु धर्मी मनुष्य बिना मार के ही सब कुछ पा जाता है। बल्कि तेरी कृपा दृष्टि से बिना पढ़ा हुआ भी ज्ञानी हो जाता है।
31- हे दादा तू भक्त को ऋद्धि-सिद्धि, भक्ति तथा मुक्ति भी देता है बल्कि अपनी भक्ति देकर उसका सब दुःख हर लेता है।
32- हे दादा ! जो जान-बूझ कर तेरी आज्ञा नहीं मानता
उसका कार्य कभी सिद्ध नहीं होता।
33- वह फोकट ही में मार खाता है तो भी आप उस पर कुछ कृपा करते ही हो ।
34- इसलिये जहां तक बन सके वहां तक आज्ञा भंग कभी न करे और सब प्रकार की हठ भी छोड़ दें।
35- हे दादा ! जितना जिससे सध सके उतना ही जो जन दिलोजान से भक्तिपूर्वक कार्य करता है तू उसका निश्चयपूर्वक भाग्य उदय कर देता है।
36- हे दादा! जो मनुष्य तेरी मर्यादा रखता है उसे तू भी सदा याद रखता है।
37- किन्तु जो तेरी मर्यादा भंग करता है उसे तू भी सदा तंग करता है।
38- हे दादा! तेरी मर्यादा ठीक सृष्टि नियम का पालन है जो सबको सदा आबाद रखती है अर्थात् सदा हरा भरा बनाये रखती है।
39- हे दादा ! जो जन जिसकी निन्दा करता है उसका पातक तु निन्दक के सिर पर रखता है।
40- जो कोई जिस तरह चोरी आदि कुकर्म करता है तू उसको उसका उसी तरह फल देता है।
।। दोहा ।।
भूखा प्यासा तू रखी, ताय तपाय दबाय।
सांच झूठ की जांच कर, देता ज्ञान बताय ।। 1।।
आने दे तू पास ना, दे गाली दे मार ।
करी निराशा देत तू, भक्तहि को निज तार ।। 2 ।।
औरों की करतूत पर, जो ना धरता ध्यान।
पड़ा रहै दुःख भोग ले, तभी देत तू ज्ञान ।। 3 ।।
हम सब तेरे पुत्र हैं, तू हम सबका बाप ।
तू ही पढ़ाता पालता, तू ही बचाता आप ।। 4 ।।
।। अर्थ ॥
1- हे दादा! तू अपने भक्त को भूखा-प्यासा रखकर उसे अच्छी तरह तपाता, दबाता तथा कष्ट देता है। इस तरह उसके सत्य-झूठ की जांच करके उसे निज ज्ञान देता है।
2- हे दादा! तू निज भक्त को गाली देता, मार लगाता तथा अपने पास तक नहीं आने देता। इस तरह उसको निराश करता, अर्थात् उसे वैराग्य उपजा कर तार देता है।
3- हे दादा ! जो भक्त औरों की करतूत पर ध्यान नहीं देता, बल्कि दुःख भोगता हुआ भी तेरी शरण में पड़ा रहता है उसी भक्त को तू निज रूप का ज्ञान कराता है।
4- हे दादा ! हम सब तेरे पुत्र हैं और तू ही हम सबका बाप है, इसी से तू स्वयं हमें पढ़ाता है, पालता तथा बचाता है।
।। मन्त्र सन्ध्यागत ।।
आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागर ।
सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ।। 1।।
जहां तहां आकाश से गिरा हुआ पानी जिस तरह समुद्र में पहुँच जाता है ठीक उसी तरह हे केशव रूप दादा जी प्रत्येक देव या व्यक्ति को नमन करने से वह नमस्कार केवल आप ही के प्रति पहुँचता है इसलिये आप ही को प्रणाम है।
|| इति शुभम् ||
जय श्री दादाजी की |
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