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श्री नर्मदाष्टकम् हिन्दी अर्थ एवं छंदानुवाद सहित

                          ।। अथ श्री नर्मदाष्टकम् ।।


                    सविन्धुसिन्धु-सुस्खलत्तरंगभङ्ग-रंजितं,

                   द्विषत्सुपापजात-जात कारिवारी संयुतम।

                    कृतान्त-दूतकालभूत भीतिहारि वर्मदे,

                  त्वदीय पाद पंकजम् नमामि मातु नर्मदे।।१।।

अर्थ:- जल बिंदुओं से सिंधु की उछलती हुई तरंगों में मनोहरता लाने वाले तथा शत्रुओं के भी पाप समूह के विरोधी और कॉलरूप  यमदूतो के भय को हरने वाले अतएव सब भांति रक्षा करने वाली है माता नर्मदा तुम्हारे जलयुत चरण कमलों को में प्रणाम करता हूं।।१।।

                   त्वदम्बु-लीनदीन-मीन दिव्यसम्प्रदायकं,

                   कलौ मलौघ-भारहारि सर्वतीर्थनायकम्।

                   सुमत्स्य-कच्छ-नक्र-चक्र-चक्रवाक-शर्मदे,

                   त्वदीयपादपंकजम् नमामि मातु नर्मदे।।२।।

अर्थ:- तुम्हारे जल में लीन हुए उन दीन हीन मीनो को अंत में स्वर्ग देने वाले और कलयुग की पापराशि का भार हरने वाले समस्त तीर्थों में अग्रगण्य अतः मगर कछुआ आदि जलचरो तथा चकई चकवा आदि नभचर प्राणियों को सदैव सुख देने वाली हे माता नर्मदे तुम्हारे चरणारविन्दों को मैं प्रणाम करता हूं।।२।।

                     महागभीर-नीरपूर-पापधूत-भूतलं,

                 ध्वनत्-समस्त-पात्कारि-दारितापदाचलम्।

                    जगल्लये महाभये मृकण्डुसुनु-हरम्यदे,

                   त्वदीयपादपंकजम् नमामि मातु नर्मदे।।३।।

अर्थ:-  महान,भयंकर संसार के प्रलयकाल में महर्षि माार्कण्डेय को आश्रय प्रदान करने वाली हे माता नर्मदे! अत्यंत गंभीर नीर के प्रभाव से पृथ्वी तल के पापों को धोनेे वाले तथा समस्त पातक रूप शत्रुओं को ललकारते हुए विपत्ति रूप पर्वतों को विदीर्ण करनेवाले तुम्हारे पादपदमो को मैं प्रणाम करता हूं।।३।।

                   गतं तदैव मे भयं त्वदम्बुवीक्षितम् यदा,

                   मृकण्डुसुनु-शौनकासुरारिसेवी सर्वदा।

                   पुनर्भवाब्धि-जन्मजं भवाब्धि-दुःखवर्मदे

                   त्वदीयपादपंकजम् नमामि मातु नर्मदे।।४।।

अर्थ:-  सदैव मार्कण्डेय शौनक आदि मुनियों तथा सूरगणों से सेवित जब आपके दिव्य जल का दर्शन किया, तभी संसार में बारंबार जन्म मरण आदि से होने वाले मेरे सभी भय भाग गए। अतएव भव-सिंधु के दुख से बचाने वाली है माता नर्मदे! तुम्हारे पादपद्मो को मैं प्रणाम करता हूं।।४।।

                 अलक्ष-लक्ष-किन्नरानरासुरादिपूजितं,

                 सुलक्ष नीरतीर-धीरपक्षि-लक्षकुजितम्।

                 वशिष्ठशिष्ठ-पिप्पलादि-कर्दमादि शर्मदे,

                 त्वदीयपादपंकजम् नमामि मातु नर्मदे।।५।।

अर्थ:- महर्षि वशिष्ठ ,श्रेष्ठ पिप्पलाद,कर्दम आदि प्रजापतियों को सुख देने वाली हे माता नर्मदे। अदृश्य लाखों किन्नरों सुरो और नारों से पूजित तथा प्रत्यक्ष तुम्हारे तीरपर बसने वाले लाखोंं धीर पक्षियों की सुरीली ध्वनि से गुंजायमान आपके चरण कमलों को में प्रणाम करताा हूं।।५।।

                सनत्कुमार-नाचिकेत कश्यपात्रि-षटपदै:,

                 धृतं स्वकीयमानसेषु नारदादिषटपदै:।

                  रविन्दु-रन्तिदेव-देवराज-कर्म शर्मदे,

               त्वदीय पाद पंकजम् नमामि मातु नर्मदे।।६।।

अर्थ:- सूर्य चंद्र इंद्र आदि देवताओं को तथा रंतिदेव जैसे नृपति को कर्म का निर्देश कर सुख प्रदान करने वाली है माता नर्मदे! सनत कुमार, नाचिकेत, कश्यप, अत्रि, तथा नारदादि ऋषि-मुनि गणरूप भ्रमरों द्वारा निज मानसतल मे धारण किये गए आपके चरणारविन्दुओं को मैं प्रणाम करता हूं।।६।।

                 अलक्षलक्ष-लक्षपाप-लक्ष-सार-सायुधम्,

                 ततस्तु जीव-जंतुतंतु-भुक्तिमुक्तिदायकम्।

                 विरंचि-विष्णु-शंकर-स्वकीयधाम-वर्मदे,

                 त्वदीयपादपंकजम् नमामि मातु नर्मदे।।७।।

अर्थ:-   ब्रह्मा विष्णु और महेश को निज-निज पद या अपनी निजी शक्ति देनेे वाली हे माता नर्मदे अगणित दृष्ट अदृृष्ट लााखो पापो का लक्ष भेद करने मे अमोघ शस्त्र के समान और तुम्हारे तटपर बसनेे वाली छोटी-बड़ी सभी जीव परम्परा को भोग और मोक्ष देने वालेे तुम्हारे पादपंकजो में प्रणााम करता हु।।७।।

                  अहोमृतं स्वनं श्रुतं महेशकेशजातटे,

                  किरात सुत-वाडवेषु पंडिते शठे नटे।

                  दुरन्त-पाप-ताप-हारि-सर्वजन्तु शर्मदे,

                  त्वदीयपादपंकजम् नमामि मातु नर्मदे।।८।।

अर्थ:- हम लोगों ने शिवजी की जटाओ से प्रकट हुई रेवा के किनारे भील भाट ब्राह्मण विद्वान और धूर्त नटो के बीच घोर पाप ताप हरने वाला अहह! अमृतमय यशोगान सुना, अतः प्राणी मात्र को सुख देने वाली हे माता नर्मदे! तुम्हारे चरण कमलों में मै प्रणाम करता हूं।।८।।

                  इदन्तु नर्मदाष्टकं त्रिकालमेव ये सदा,

                पठन्ति ते निरन्तरं न यान्ति दुर्गतिंं कदा।

                  सुलभ्य देहदुर्लभं महेशधाम गौरवं,

                पुनर्भवा नरानवै विलोकयन्ति रौरवम्।।९।।

अर्थ:- निसंदेह जो मनुष्य इस नर्मदा अष्टक का तीनो समय सदैव पाठ करते हैं, वह कभी भी दुर्गति को प्राप्त नहीं होते अतार्थ पुनर्जन्म से रहित हुए रौरव नर्क नहीं देखते। किंतु अन्य प्राणियों को दुर्लभ देह भी उन्हें सुलभ होकर शिवलोक का गौरव प्राप्त होता है।।९।।

                    ।। इति श्रीनर्मदाष्टकम् सम्पूर्णम् ।

             नर्मदाष्टक का छंदानुवाद  

       बिन्दु सिंधु में परिणत होकर बहने लगी तरंगिणी मां,
     प्रबल वेग से अरिदल के भी पातक-पुञ्ज निवारिणि मां।
        कालरूप यमदुतो का भय हरती रक्षा करती मां,
           तेरे पद पंकज मे रेवे! सदा वंदना मेरी मां।।१।।

          तेरे जल में लीन दीन वे मीन स्वर्ग पा जाते मां,
      मच्छ-कच्छ-जलचर-नभचर-चकई-चकवे सुख पाते मां।
      भार हारणी कलिमल का सब तीर्थ शिरोमणि होती मां,
             तेरे पद पंकज मे रेवे सदा वंदना मेरी मां।।२।।

         
        अति गंभीर नीर से धोती पाप राशि भूतल की मां, 
      कल-कल करती पातक हरती संकट शैल सँहरती मां।
    भीषण-प्रँलय-पयोनिधि में नित मुनि को आश्रय देती मां,
            तेरे पद पंकज मे रेवे सदा वंदना मेरी मां।।३।।

        भय भागा मेरा तब ही जब निर्मल नीर निहारा मां,
        शौनक मार्कण्डेय देवगण सेवित सतत् तिहारा मां।
     बारम्बार जन्म मरणादिक भववारिधि भयहारिणी मां, 
           तेरे पद पंकज मे रेवे सदा वंदना मेरी मां।।४।।

        हुए अलक्षित लक्ष-लक्ष किन्नर सुरादि से पूजित मांं,
          लक्षित लक्ष धीर पक्षीगण से तेरा तट कुजित मां।
      शिष्ठ वशिष्ठ आदि कर्दम ऋषि पिप्पलाद सुख देनी मां,
            तेरे पद पंकज मे रेवे सदा वंदना मेरी मां।।५।।

      सनकादिक मुनि नचिकेतासुत कश्यप अत्रि भ्रमर ये मां,
        नारदादि तव चरण कमल को धारण करें हृदय में मां। 
        रवि-शशि-सुरपति-रंतिदेव की धर्म-कर्म सुख देती मां,
             तेरे पद पंकज में रेवे सदा वंदना मेरी मां।।६।।

         दृष्ट अदृष्ट अघोका तू आयुध सी लक्ष्य भेदती मांं,
        अधमाधम भी जीव जंतुको भोग-मोक्ष दे देती मांं।
   वितरण कर विधि-हरि-हरका पद निजपद अर्पित करती मां,
             तेरे पद पंकज मे रेवे सदा वंदना मेरी मां।।७।।

      सुना अमृतमय गान अहाहा! जटाशंकरी तट पर मांं,
    कोल-भील-शठ-नट-भाटों में पंडित के हिय पट पर मांं।
     दुस्तर-पाप-ताप- संहारिणी जीवमात्र सुखकारणी मां,
            तेरे पद पंकज मे रेवे सदा वंदना मेरी मां।।८।।

          जो यह तीनों समय नर्मदा अष्टक तेरा गाते मां,
        पढे निरंतर प्रेम सहित वे दुर्गति कभी ना पाते मां।
      'प्रणव' गीत में प्रीति करें नर नरक न कोई जाते मां 
      दुर्लभ देह सुलभ करके नित माहेश्वर पद पाते मां।।९।।
                            ।। नर्मदे हर ।।
              

माँ नर्मदा अवतरण की कथा सुनने के लिये कृपया यहाँ पर click करें


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