|| जय श्री दादाजी की ||
कहते हैं श्री बड़े दादा जी महाराज का जन्म बिहार प्रांत के मोघिर जिले के चिट्टियां ग्राम में सन 1850 में शिवरात्रि के दिन एक सारस्वत ब्राम्हण परिवार मे हुआ था।
आपकी माताजी का नाम विद्यावती देवी था। तथा आपके पिताश्री का नाम श्री शिव बालक था। दोनों ने अपने तेजोमय पुत्र का नाम रामसेवक रखा। पिता शिव बालक शास्त्री थे। देवी कि उपासना,कथा वाचन तथा अनुष्ठान आदि से जो भी राशि प्राप्त होती थी उसी से अपना जीवन यापन करते थे। माता विद्यावती देवी भी अत्यंत साध्वी थी भगवती देवी की आराधना एवं गृहस्थ धर्म का पालन करना ही उनकी प्रमुख दिनचर्या थी। श्री दादाजी महाराज के जन्म लेने के बाद परिवार में हमेशा आनंद छाया रहता था।
यह आनंद केवल 5 वर्ष तक ही रहा। एक दिन अचानक इनकी माता जी का देहांत हो गया मां की अनुपस्थिति से इनके मन को गहरा धक्का लगा। पिताजी एवं गांव वालों ने पुत्र रामसेवक को बहुत समझाया कि मां भगवान के घर गई है तथा कुछ दिनों में वापस आ जावेगी। किन्तु रामसेवक प्रतिदिन मां के आने का रास्ता देखा करते थे। इसी तरह मां की राह देखते-देखते 2 वर्ष बीत गए किंतु माँ नही आई। अंत में 1 दिन परिवार को तथा गांव के लोगों को बिना कुछ बताए रामसेवक मां को ढूंढने तथा भगवान के घर का पता करने के लिए घर से निकल पड़े।
सन 1857 मे मां को ढूंढते हुए जबलपुर के ग्वारीघाट पर पहुंचे। ग्वारीघाट पर जमात के साधुओं ने 6 से 7 वर्ष के बालक को देखा तथा उस बालक को श्री गौरी शंकर महाराज जी के सम्मुख उपस्थित किया। महाराज श्री ने बालक को जैसे ही देखा उनके हृदय में प्रेम उमड़ने लगा एवं आप सब समझ गए। प्रेम से पास में बैठा कर उन्होंने पूछा बालक कहां से पधारे हो तुम्हारा नाम क्या है तब उस बालक ने कहा मैं मां को ढूंढने एवं भगवान के घर का पता करने आया हूं। महाराज श्री बोल उठे मातेश्वरी की कृपा से तुम माँ के घर आ पहुंचे हो यही ईश्वर का घर है। मां नर्मदा ही साक्षात मातेश्वरी है। अब यही रुक जाओ आज से हम तुम्हारा नाम माधव रखते हैं। सारी जमात तुम्हे माधव के नाम से जानेगी। तभी से यह बालक रात दिन महाराज श्री के सानिध्य में रहने लगा। श्री गौरीशंकर महाराज जी ने माधव को काशी में विद्या अध्ययन हेतु भेज दिया। उस बालक ने कुछ ही समय में सारे शास्त्र,पुराण, वेद ,उपनिषदो को कंठस्थ कर लिया। बड़े-बड़े पंडितों के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। सब यह मान गए कि कोई विशेष चेतन्य इस बालक में जागृत हुआ है। उस समय काशी नरेश ने इस बालक से शास्त्रार्थ करने की इच्छा प्रकट की परंतु रात्रि में स्वयं भगवान काशी विश्वनाथ ने राजा को स्वप्न में बताया कि इस बालक के भीतर स्वयं में प्रगट हो चुका हूं। इसलिए शास्त्रार्थ का विचार छोड़ कर उसे जल्द से जल्द श्री नर्मदा जी के तट पर पहुंचा दो।
काशी में अध्ययन करके माधव ने आचार्य पद का प्रमाण पत्र प्राप्त किया। माधव वापस आए तथा प्रमाण पत्र महाराज श्री गौरी शंकर जी के चरणों में रखकर प्रणाम किया। महाराज जी ने बालक को अपने गले से लगा लिया अब जमात के नियमों के अनुसार उन्हें दीक्षा देने की तैयारी होने लगी। बड़ी खुशी के साथ दीक्षा संस्कार तथा नाम करण संस्कार हुआ। जमात के नियमों के अनुसार इनका नाम श्री स्वामी कृष्णानंद जी रखा गया।
अब श्री गौरी शंकर महाराज जी ने कृष्णानंद जी को श्री स्वामी रेवानंद जी तथा स्वामी श्री ब्रह्मानंद जी की देखभाल में हठयोग की दीक्षा देना आरंभ करवाया। अल्प समय में ही इन्होंने हठयोग के अंग प्रत्यंग का अध्ययन कर उसे आत्मसात कर लिया।
|| जय श्री दादाजी की ||
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